कर्ज, किसान और आत्महत्या



सन्तोष कुमार राय
          कर्ज ने भारतीय किसानों को आज आत्महत्या तक पहुंचा दिया है ।  दिनोंदिन लगातार बढ़ता यह अमानुषिक नरसंहार थमने का नाम नहीं ले रहा है, इसे क्या कहा जाय ? किसे इसका दोषी माना जाय ? सरकार को या उसके तंत्र को, या उन व्यक्तियों को जिन्होंने आत्महत्या करने वाली पीढ़ी को पैदा किया ? यह  बहुत ही जटिल सवाल है जिसका जबाब खोजना आसान नहीं है । भारतीय इतिहास में किसानों का जितना शोषण हुआ है उतना और किसी भी वर्ग का नहीं हुआ है । जब हमारा देश गुलाम था तब भी किसानों का शोषण होता था और आज भी हो रहा है लेकिन आज की स्थिति उस समय से शायद आधिक खराब है । वह इसलिए कि इतनी बड़ी संख्या में और इतने लंबे समय तक किसी भी काल में किसानों ने आत्महत्या नहीं  किया । किसानों की आत्महत्या के मद्देनजर अगर यह कहा जाय कि आज की शासन व्यवस्था अँग्रेजी हुकुमत से अधिक खराब है तो हैरान नहीं होना चाहिए । इस बात को जानकार कुछ लोगों ताज़्जुब होगा कि हमारे देश में आत्महत्या करने वाला हर सातवाँ व्यक्ति किसान है, लेकिन यह सच्चाई है जिसे न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ेगा । अगर यही स्थिति रही तो आने वाले समय में इसमें कमी आने के बजाय बढ़ने की संभावना है । ऐसा हमारे ही देश में हो सकता है कि आइसक्रीम की तुलना चावल से की जाती है और यह महान कार्य सरकार में शामिल वे लोग करते हैं जिन्हें इस देश के लोगों ने देश की हिफ़ाजत की ज़िम्मेदारी दी है ।  इस तरह के वाक्य पर हमारे देश के पढ़े-लिखे और समझदार लोग मौन हो जाते हैं क्योंकि इसमें उनकी भलाई नहीं है । हमारे देश में पिछले डेढ़ दशक से चल रही इस प्रक्रिया को रोकने की कुछ नाम मात्र की कोशिश भी हुई है लेकिन उस कोशिश का परिणाम जमीन पर कितना हुआ, इसका कुछ पता नहीं है, जो बात पता है वह यह कि किसानों की आत्महत्या बदस्तूर जारी है । किसानों की आत्महत्या को लेकर कई सरकारी नुमाइन्दे काफी चिंतित दिखे लेकिन दिल्ली जाने के बाद किसानों के घर में बहाये गए उनके आँसू भी घड़ियाली ही सिद्ध हुए । ऐसे में इतने लंबे समय से चल रहे इस मानवद्रोही अपराध को रोकने की ज़िम्मेदारी किसकी है, इस पर सभी मौन हैं ।
          बहरहाल हम यहाँ कुछ दृश्य रखने की कोशिश करेंगे कि आखिर किसानों की अत्महत्या के मूल में कौन-कौन सी बातें हैं । सबसे महत्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न अबाध गति से बढ़ती हुई महँगाई का है, जिसने लाखों किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया है । आज यह कहना बड़ा मुश्किल है कि हमारे देश के किसान किस वर्ग में आते हैं । कुछ बड़े जमीदारों को छोड़ दिया जाय अधिकतम संख्या उन किसानों की है जो या तो निम्न मध्यवर्ग में आएंगे या फिर निम्न वर्ग में । पिछले दस वर्षों में जिस गति से महँगाई बढ़ी है उसने इन किसानों की कमर तोड़ दी है । आज खेती के लिए बड़ी पूंजी की आवश्यकता है । जुताई-बुआई से लेकर खाद बीज तक सबका दाम आसमान छू रहा है। निम्न मध्यवर्गीय किसानों के पास उतना पैसा नहीं होता की वे यह सारा खर्च वहन कर सकें, लिहाजा उन्हें इस देश के गरीबों का खून चूसने वाले सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ता है ।
          महंगाई के बाद बड़ा प्रश्न उनके जीवन में कर्ज़ का है । वे कर्ज़ किससे लें, किस आधार पर लें और किस तरह के ब्याज पर लें, यह किसानों के लिए बड़ी समस्या है । हमारे सरकारी आंकड़े भारत की शिक्षा व्यवस्था को चाहे जितना बढ़ा–चढ़ाकर दिखाये लेकिन जमीनी हकीकत बहुत अलग है । आज भी हमारे गांव में रहने वाले किसानों में ज़्यादातर संख्या उनकी है जो शिक्षित होने के नाम पर सिर्फ हस्ताक्षर ही कर सकते हैं । ऐसे में, इस तरह की व्यवस्था में सरकारी कर्ज़ लेना और उसके दांव-पेंच को समझना उनकी समझ से परे है । इसलिए उन्हें हारकर व्यक्तिगत सूदखोरों के पास जाना पड़ता है जो उनके खून पसीने की कमाई को ऐंठते हैं । सरकारी बैंकों से कर्ज लेना भारतीय किसानों के लिए आज भी बहुत डरावना है । सरकार के द्वारा किसानों को दी गई छूट और सुविधाओं का बहुतायत हिस्सा नौकरसाहों के हक़ में चला जाता है और उसकी भरपाई किसानों से की जाती है । सरकार जब तक किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं को उन तक पहुंचाने का पुख्ता प्रबंध नहीं करेगी तब तक इस देश के किसान तड़प – तड़पकर जान देते रहेंगे ।
          भारत के विकास की कल्पना करने वाले लोग उनको कैसे भूल जाते हैं जिनके बलबूते देश के लोगों का पेट भरता है । अगर उनका पेट खाली रहेगा तो क्या देश का विकास होगा ? आज अगर उनकी स्थिति अच्छी रहती तो उनको आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाना पड़ता । लगातार बढ़ती हुई महंगाई ने उनको अत्यंत कमजोर बना दिया है । सरकार लगातार झांसा देती रही है कि महंगाई कम हो जाएगी लेकिन कम होने के बजाय उसमें लगातार बढ़ोत्तरी ही हुई है । अगर वास्तव में किसानों के साथ हमदर्दी है तो उनकी समस्याओं के मूल रूप पर विचार बहुत जरूरी है । यह एक मानवतवादी कदम होगा जिसे सरकार में बैठे लोगों को जरूर उठाना चाहिए ।
          आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों पर भी विश्वास किया जाय तो ये आंकड़े भी उनके विषय में सोचने और उनकी समस्याओं पर कुछ करने के लिए पर्याप्त है । जिस देश में हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं उसे किस आधार पर यह कहा जाएगा कि उसका विकास हो रहा है ।  कोई भी देश जिसकी अर्थव्यवस्था के मूल आधार में परंपरा से कृषि हो, उस देश के किसान अगर इतनी तेजी से समाप्त होने लगे तो आखिर वह देश किसका विकास करेगा ।  मेरा मानना है कि विकास हमारी मानसिकता का होना चाहिए जो उन किसानों के दर्द को समझे और उनके लिए कुछ ऐसा करे जिससे यह सिलसिला रुके ।

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