संजो कर रक्खें धूमिल की विरासत को करीने से....

                 
यह हमारी पीढ़ी से अदम गोंडवी की गुजारिश थी, और खुद भी उस बेबाक प्रतिरोधी परम्परा को जीवन भर उन्होंने न सिर्फ संजोया बल्कि लगातार उसे आगे बढ़ाते रहे। अदम गोंडवी का जाना, हिन्दी की प्रतिरोधी परम्परा का कमजोर पड़ना है। अदम गोंडवी एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने जीवन भर सत्ता और पूंजीवादी-सामंतवादी समाज का विरोध किया। कहीं भी समझौता नहीं किया, न तो जीवन में और न ही रचनात्मकता में ।
          हिन्दी साहित्य जगत उनकी लगातार उपेक्षा करता रहा । कभी भी उन्हें मुख्यधारा के साहित्यकारों में शामिल नहीं किया गया, जबकि उनके समानांतर अनेक ऐसे बौने कवि हैं जो जोड़-जुगत करके लगातार मुख्य धारा में बने रहे। उनकी उपेक्षा करने का जो साहित्यिक हथियार आलोचकों ने इस्तेमाल किया वह उनके गीत और गज़ल थे । उन लोगों का ऐसा मानना था कि वे मंचीय कवि थे लेकिन ऐसा नहीं है कि गीत और गज़ल सिर्फ मंच तक सीमित हैं। उनकी गज़ल नायिका की जुल्फों की तारीफ में नहीं बनी थी। वे गज़ल को आम जनता तक पहुँचाने वाले रचनाकारों में से थे....
             जो गजल मासूक के जल्वों से वाकिफ हो गई,
             उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।
             मुझको नज्मों-जब्त की तालीम देना बाद में,
             पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो।
अदम गोंडवी की रचनाएं यथार्थ से अनुप्राणित है । समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति ही उनकी रचनात्मकता की सीमा है...
                तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
                 मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी हैं ।  
                 लगी है होड़ सी देखो अमीरी औ गरीबी में
           ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है ।
अदम गोंडवी लगातार भारत की ग्रामीण जीवन की समस्याओं को लेकर चिंतित रहे। उनकी रचानाओं का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण किसानों के दुख और गरीबी को लेकर है। भारत के अनेक रचनाकार वैश्वीकरण का ढोल पीटकर अपने को वैश्विक घोषित करने पर तुले हुए थे, वहीं अदम गोंडवी उन्हीं किसानों के बीच में अपनी रचना का स्वर तलाश रहे थे। आज के समाज में लोलुपता जिस तरह से बढ़ रही है और मनुष्य अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपनी अस्मिता को बेचने के लिए तैयार है, ऐसे में अदम गोंडवी जैसा लिखना और अपने विचार और आचरण में दृढ़ बने रहना बहुत कठिन है।
आज की हिन्दी कविता पर बहुत लम्बे समय से जो आरोप लगाया जा रहा है कि उसकी पठनीयता लगातार कम होती जा रही है या वह अब पठनीय नहीं रही। यह बात अदम गोंडवी के लिए बिलकुल गलत है। अदम गोंडवी की रचनाए लोगों की जुबान पर होती थी। गरीब मजदूर-किसानों की समस्याओं को अदम गोंडवी ने बहुत सिद्दत से उठाया है..
         न महलों की बुलंदी से न लफ्जों के नगीने से
         तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।
        कि अब मरकज में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
         उतर आई गजल इस दौर में कोठी के जीने से।
        अदब का आइना उन तंग गलियों से गुजरता है
       जहां बचपन सिसकता है लिपट कर मां के सीने से।
अदम गोंडवी लगातार सत्ता का विरोध करते रहे । वे जिस तरह से अपनी कविताओं में प्रतिरोधी थे वैसे ही जीवन में भी। कई बार इसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। बहुत प्रसिद्ध रचना है उनकी..
               काजू भूनी पलेट में विस्की गिलास में
              रामराज उतरा है विधायक निवास में ।
नागार्जुन के बाद की हिन्दी कविता में धूमिल ने प्रतिरोधी धारा को आगे बढ़ाया । उसके बाद अदम गोंडवी की आवाज ने उसे आगे बढ़ाया, लेकिन यह बेबाक प्रतिरोधी धारा आज छोटे-छोटे स्वार्थों में दब कर अपने अवसान की ओर अग्रसर है । दूर=दूर तक हिन्दी कविता आज इस तरह के प्रतिरोधी स्वर का रचनाकार दिखाई नहीं दे रहा है । अदम गोंडवी को भी यह पता था, तभी तो उन्हों ने लिखा..
              अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है,
              संजो कर रक्खें धूमिल की विरासत को करीने से।

पेट्रोल की बढती कीमत का सरकारी पैमाना

सन्तोष कुमार राय

पेट्रोल की बढी हुई कीमत देशवासियों को लिए नई परेशानी के रूप में हर रोज सामने आ रहा है। अब किसी को यह पता नहीं है कि किस चीज की कीमत कब बढेगी और कितनी बढेगी। आज भारत में जिस तरह से बेतहासा मंहगाई बढ़ रही है उसमें जीवन कितना कठिन होता जा रहा है इसका अंदाजा अभी भी सरकारी अमला को नहीं है। दिल्ली की नज़र से देश की अर्थव्यस्था को देखना कितना न्यायसंगत है। यह आज के राजनेताओं की समझ में न तो आ रहा है और न ही वे इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में आम आदमी की समस्या को कौन समझेगा, यह आज के मध्यवर्गीय समाज के लिए बड़ा प्रश्न है।

असल बात यह है कि आज का सत्ताधारी वर्ग इस बात से बेखबर है कि देश के लोगों पर क्या गुजर रहा है। जिस तरह से मंहगाई के बोझ तले आम आदमी का जीवन दबता जा रहा है उसे देखकर सरकार की बेखबरी का अंदाजा लगाया जा सकता है। मंहगाई की मार ऐसी बढ़ती जा रही है कि आम आदमी का जीवन दुर्लभ हो रहा है। नमूने के लिए पेट्रोल की बढी हुई कीमत को देखा जा सकता है। आखिर सरकार के इस रवैये के पीछे उसकी मंसा क्या है? वह इन बढ़ी हुई किमतों को किस रूप में देख रही है। कई बार छठे वेतनमान को इसका आधार बनाया गया लेकिन सरकार के पास तो यह आंकड़ा है कि इस देश में कितने लोगों को यह वेतनमान मिलता है फिर जो लोग इसके दायरे में नहीं आते है उनके लिए सरकार के पास क्या विकल्प है? इस बढ़ी हुई मंहगाई की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है जो किसी भी वेतनभोगी वर्ग में नहीं आते हैं। आज कृषि कार्य की बुनियादी जरूरतों में डीजल और पेट्रोल शामिल हो गया है, जिसकी कीमत बढ़ने पर उनकी परेशानी का बढ़ना लाजमी है। भारत में पिछले दश साल में पेट्रोल की जो मुल्यबृद्धि ही है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक मध्यवर्गीय जीवन जीने वाला आदमी उसके साथ कैसे चल सकता है। साल 2002 में पेट्रोल की कीमत जून से दिसम्बर तक की अवधि में 11 बार परिवर्तित हुई। पहले यह कीमत पैसे में बढ़ती थी अब इसे रूपये में बढ़ाया जा रहा है। जून से लेकर अगस्त तक पेट्रोल की कीमत 29 रूपये के आस-पास थी, सितम्बर में इसमें कुछ पैसे की बृद्धि हुई, फिर अक्टूबर में भी बृद्धि हुई उसके बाद नवम्बर में कमी आयी और 1 दिसम्बर 2002 को पेट्रोल की कीमत 28.91 प्रति लीटर(दिल्ली) थी। 2003 के अंत तक यह बढ़कर 33.7 हो गया। 2004 के अंत में यह 37.84 तथा 2005 में बढाकर 43.49 कर दिया गया। 2006 में लगभग 1 रूपये की बृद्धि के साथ 44.45 तक ही पंहुचा। इसके बाद इसकी कीमत में थोड़ी कमी आयी और 2007 में यह 43.52 पर बना रहा। उसके बाद जो सिलसिला जारी हुआ वह आज मुम्बई में 68.33 तक पहुंच गया है। 2008 में 45.62, 2009 में 44.72 तथा 2010 के अंत तक यह बढ़कर 55.87 हो गया। जनवरी 2011 में तेल की कीमत बढ़ाकर 58.37 कर दिया गया। अब पिछ्क्ले तीन बार की बृद्धि के बाद पेट्रोल की कीमत 71 रूपये हो गयी है।

पिछले साल जून से लेकर अब तक पेट्रोल की कीमत दस बार बढाई जा चुकी है। अभी और बढने की आशंका जताई जा रही है क्योंकि सरकार की उदारता जनता के साथ नहीं उद्योगपतियों के साथ है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार यह कहते हुए पल्ला झाड़ लेती है कि यह गठबन्धन की सरकार है और यह गठबन्धन की मजबूरी है, तो क्या यह मान लिया जाय कि मंहगाई भी गठबन्धन की ही मजबूरी है। हो सकता है कि सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस मंहगाई को झेल जाय लेकिन गैरसरकारी और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का जीवन कैसे चलेगा, इसका सरकार के पास कोई जवाब है? मजबूरी में सरकार चलाने का मतलब यह नहीं है कि जनता को मंहगाई के बोझ तले दबाकर मार दिया जाय। सत्ताधारी वर्ग को इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

आज यह कहना कठिन है कि कौन समस्याओं से नहीं जूझ रहा है, लेकिन इसमें भी सर्वाधिक पीड़ित मध्यवर्गीय किसान ही हैं। किसान इसलिए क्योंकि उन्हें अपनी बुनियादी जरूरत की पुर्ति के लिए इस व्यवस्था व्दारा दी गयी सुव्यवस्थित मंहगाई से सीधे-सीधे जूझना पड़ता है। किसानों को गरीबी रेखा से नीचे की सरकारी सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं क्योंकि उनके पास थोड़ी बहुत जमीन भी है। दरअसल यह जमीन उन्हें और कुछ दे या न दे उनके क्लास को तो अवश्य ही परिवर्तित कर देती है और यह क्लास उन्हें समस्याओं के सिवा और कुछ नहीं देता है। जमीन के व्दारा मिले हुए क्लास और कमरतोड़ मंहगाई के बीच किसान पिसने के लिए अभिशप्त हैं। आने वाले समय में कम से कम सरकार के व्दारा कोई ऐसा कदम उठता नहीं दिख रहा है जो किसानों और भारत की बहुसंख्यक मध्यवर्गीय जनता के दर्द को समझे और दूर करे।

सरकार और देश के लिए यह खुशी की बात है कि आज हमारा देश किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं जूझ रहा है, जूझ रहा है तो अपनों के व्दारा दी गयी कुव्यवस्था से। ऐसा नहीं है कि इसका समाधान नहीं है, समाधान है लेकिन सरकारी अमला इस तरह की जहमत उठाना नहीं चाहता है। हमारे वित्त मंत्री ने लगातार देश की विकास दर में बृद्धि को अपना और सरकार का सराहनीय प्रयास बताया है लेकिन क्या उन्हें पता है कि इस देश के गरीब मजदूर और किसान अपना भरण-पोषण कैसे करते हैं? इस देश के नेताओं के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वे चुनाव के बाद इस देश को दिल्ली की नजर से ही देखते हैं जबकि देश को दिल्ली होने में उतना ही समय लगेगा जितना समय दिल्ली को न्यूयार्क या लंदन, जो आज की स्थिति को देखते हुए असंभव के अलावा कुछ नहीं लग सकता है। जब तक हमारे नेता देश के रूप में गांवो को नहीं समझेंगे सुधार नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि विकास की गति गांवो की ओर से शुरू हो लेकिन यह इसके विपरीत दिल्ली से चल रही है। यह दृष्टि को दिग्भ्रमित करने का सबसे बड़ा कारण है। यहां के नेता और सरकार में सम्मिलित लोग नीचे से उपर देखने के वजाय उपर से नीचे देखते हैं। और जब तक वे उपर से नीचे देखते रहेंगे इस देश का विकास कागज पर ही होता रहेगा।

शहीदों की धरती आज खुद शहीद होने को तैयार...

संतोष कुमार राय

1942 के स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास बिना गाज़ीपुर का नाम लिए पूरा नहीं हो सकता। जिन गाँवों के लोग देश के लिए अपनी जान देने से पीछे नहीं हटे आज वे गाँव ऐसी जगह परे खड़े हैं जहाँ अब उनका नाम सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही रह जायेंगे। उनका अस्तित्व अब गंगा के पानी में घुलकर हमेशा के लिए अब समाप्त हो जायेगा। शेरपुर ग्राम पंचायत का अटूट हिस्सा सेमरा-शिवराय का पूरा आज ऐसी जगह खड़ा है जहाँ बहुत कुछ गंगा के पानी में चला गया है और बहुत कुछ आने वाले कुछ दिनों में चला जायेगा। इस ग्राम पंचायत की कृषि योग्य सारी जमीन पिछले कई वर्षों से लगातार गिर रही है जिसे हमेशा से सरकार ने उपेक्षित रखा। बलिया में ऐसे कई गाँव हैं जिन्हें बांध बनाकर बचाया गया है। इसका कारण है कि वहां के जनप्रतिनीधि जागरूक थे और उन्होंने इसके लिए प्रयास किया, लेकिन गाज़ीपुर के प्रतिनीधियों ने न तो प्रयास किया और न ही सरकार की ओर से कोई सकारात्मक कदम उठाया गया। लिहाजा आज ये गाँव गंगा की गोद में जा रहे हैं।

सरकार को इस बात की जानकारी कई वर्षों से दी जा रही थी लेकिन पूरा प्रशासन कान में तेल डालकर सोया रहा। अब जब चुनाव नज़दीक है और सेमरा कुछ गिर गया और कुछ गिर रहा है तो सभी लोग अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। विशेषकर सभी पार्टीयों के जन प्रतिनीधि। कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी से लेकर भाजपा, बसपा और सपा के स्थानीय नेता अपना ढोंग व्यक्त करने के लिए रोज़ आ-जा रहे हैं। पिछले दस सालों से प्रदेश में सपा और बसपा की सरकार है, क्यों नहीं उन गावों को बचाने का प्रयास हुआ। वर्तमान सरकार के विधायक पशुपति नाथ राय भी उसी क्षेत्र के रहने वाले हैं। पिछले पाँच सालों में उन्होंने क्या किया है? आप अगर अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को अपनी ही पार्टी के सरकार के सामने नहीं उठा सकते तो आपको राजनीति नहीं दुकानदारी करना चाहिए। अगर सरकार नहीं सुनती तो आप त्याग-पत्र तो दे सकते थे। तब समझ में आता कि आप अपने क्षेत्र के जनता के प्रतिनीधि हैं। पिछली सपा सरकार के कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश सिंह भी उसी क्षेत्र से जीतते रहे हैं और गाज़ीपुर के ही रहने वाले हैं। उन्होंने भी वही किया जो गाज़ीपुर के साथ अन्य मंत्रियों ने किया। सपा के सांसद नीरज शेखर भी वहीं से जीतकर आये हैं, अन्ना के आन्दोलन पर टीवी चैनलों पर भाषण देने के लिए उनके पास समय है लेकिन अपने क्षेत्र के बारे में उन्हें पता ही नहीं है और अगर पता था तो अभी तक क्या किया। वह कौन सी राजनीति है जिसमें अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं का निदान करना गलत है।

इस क्षेत्र की जमीनी सीमा बीस किलोमीटर से भी अधिक है। हजारों एकड़ जमीन गंगा की गोद में समा गयी। लोग भूखे मरने के कगार पर पहुँच गये। सारी की सारी कृषि योग्य उपजाऊ जमीन देखते-देखते रेत में तब्दील हो गयी। चुनाव आते रहे नेता जीतते रहे लेकिन किसी ने भी इसे बचाने की ओर ध्यान नहीं दिया। गाँव के गरीब किसान मजदूर इस आस में जी रहे थे कि सबकुछ गिर गया लेकिन अभी उनका गांव बचा है, घर बचा है लेकिन इस साल उनकी छोटी सी इस आशा का भी अंत हो गया। अब उनके सामने पुनर्वास की समस्या है। यह ऐसी समस्या है जिसके हल होने में पीढ़ीयाँ निकल जाती हैं। इस मंहगाई के दौर में जब लोग अपना पेट भरने में तबाह हैं ऐसे में वे गरीब लोग जिनके पास जिविकोपार्जन के नाम पर कुछ भी नहीं है कहां जायेंगे। उन लोगों की इस बदहाल स्थिति का जिम्मेदार कौन है? क्या सत्ता की रहनुमई करने वाले लोग, जो अपने को जनता का हितैषी बताते हैं और लम्बे-लम्बे भाषण देते हैं अभी तक क्या कर रहे थे। क्या उनका कोई कर्तव्य है या नहीं? बेघर होने वाले लोगों का दर्द कितना भयावह होता है इसका अंदाजा लगाना उन लोगों की क्षमता के बाहर है जिन्होंने कभी ऐसा दुख नहीं देखा।

सरकार के नुमाईंदो द्वारा की गयी उपेक्षा ने आज हजारों लोगों को सड़क पर खुले आसमान के नीचे रहने के लिए मजबूर कर दिया है। भूखे बच्चों और महिलाओं का क्या कसूर है कि आज अपने अच्छे खासे घरों से निकलकर बरसात में भिगने के लिए बेबस हैं? क्या इसका जवाब किसी भी राजनेता के पास है? उस क्षेत्र के और भी गाँव हैं जो इस साल नहीं तो अगले कुछ सालों में जरूर गिर जायेंगे। फिर सरकार और सरकार के लोग अपने इस कृत्य का बखान करेंगे।

अभी तक चुप क्यों थे...

सन्तोष कुमार राय

कांग्रेस के बड़े नेता और भारत सरकार के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब आपको पता था कि टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला अगर चिदंबरम चाहते तो नहीं होता या इस देश को इतने बड़े घोटाले से बचाया जा सकता था तो यह प्रयास इतने दिनों बाद क्यों ? क्या इस बात को समझ में आने में इतने अधिक दिन लग गएयहाँ सवाल किसी एक आदमी या मंत्री पर नहीं है, यह सवाल कहीं कहीं कांग्रेस की आतंरिक रणनीति और राजनीति भी है कि आखिरकार कांग्रेस सरकार अपनी किस मजबूरी के चलते कुछ नेताओ के कुकृत्य को बचाने में लगी हुई है| इसमे प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल है कि जब यह पत्र मार्च में लिखा गया था तो सामने आने में इतना अधिक समय क्यों लगाअगर चिदंबरम दोषी नहीं है (हम भी ऐसी कामना करेंगे कि वे निर्दोष हो जाय ) तो कांग्रेस को इस आरोप का खुलकर और जांच कराकर जवाब देना चाहिएअगर इस तरह की बात सामने आयी है तो इसकी महक दूर तक जायेगी, इसलिए भलाई इसी में है कि कांग्रेस इससे घबराने के बजाय जांच प्रक्रिया पर भरोषा दिखाए जिससे जनता के बीच अपने खोए हुए विश्वास को कुछ हासिल कर सके
जब से चिदंबरम पर सवाल उठा है कांग्रेस ने हमेशा की तरह गोल मोल जवाब देना शुरू कर दिया हैयह पहली बार नहीं हुआ हैइससे पहले भी जब -जब इस तरह मुद्दे उठाये गए सरकार और कांग्रेस के प्रवक्ता अपने सारे के सारे नए पुराने हथियारों के साथ मैदान में आकर खूब बहस किये हैंइस बार भी यह सिलसिला शुरू हो गया है, लेकिन अब इसा पर बेमतलब बहस करने के बजाय मूल मुद्दे पर विचार होइस समय के हालात को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि कहीं कही कांग्रेसी नीति या फिर मनमोहन सिंह सरकार की असफलता ही सामने आयी हैअभी तक इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने अपना विचार स्पष्ट नहीं किया है, हमेशा की तरह इस बार भी वे उसी मासूमियत का सहारा ले रहे हैं और अपने उसी पुराने भोलेपन के साथ इससे अनजान बन रहे हैं हमारे देश के साथ एक यह भी बड़ी समस्या है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री अल्पभाषी है इसकी वजह से लगातार असमंजस की स्थिति बनी रहती है और बहुत सारे मुद्दे अस्पष्ट रह जाते है। इस तरह के मुद्दों पर तो प्रधानमंत्री की राय स्पष्ट होनी ही चाहिए।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार देश के सामने किस तरह से अपना बचाव करती है या फिर इसे भी किसी ठन्डे बसते में डाल देती है। इस तरह से देश की रक्षा की कसम खाने वाले इन लोगो से हम क्या उम्मीद करेइस सन्दर्भ में प्रणव मुखर्जी की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने यह कदम उठाने का साहस किया है। प्रणव मुखर्जी के लिए भी यह राह बहुत आसान नहीं है, हो सकता है कि उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़े, क्योकि इससे पहले राजीव गांधी की सरकार में कुछ इसी तरह के कार्य के लिए कैबिनेट में शामिल नहीं किया गया और प्रणव मुखर्जी ने लगभग गुमनामी का जीवन बिताया. इस बार थोड़ीस्थिति अलग जरूर है फिर भी इस आशंका से मुक्त नहीं हुआ जा सकताएक बात साफ़ हो गयी है कि कांग्रेस में अब प्रणव मुखर्जी और चिदंबरम दोनों का का एक साथ रहना कठिन है और अगर कठिन भी हो तो अब मीडिया और विपक्ष की कृपा से हो जाएगापिछले दिनों एक वाकया सामने आया था जिसमे कहा था कि गृहमंत्रालय प्रणव मुखर्जी के दफ्तर की ख़ुफ़िया जांच करवा रहा बाद अब यह आया है जिससे साफ़ हो गया है कि गृहमंत्रालयऔर वित्त मंत्रालय में बहुत कुछ मैत्रीपूर्ण नहीं हैबहरहाल जो भी हो देश के साथ न्याय होना चाहिएअभी तक जो भी हुआ उससे कुछ ऐसा निकले जो देश हित में हो। वैसे इसे अभी संदेह के रूप में ही लिया जाना चाहिए लेकिन जो लोग भी इसमें सम्मिलित है उनका नकाब हटाना जरूरी है तभी कांग्रेस और और लोकतंत्र दोनों की रक्षा हो सकेगी क्योकि लोकतंत्र सिर्फ खतरे में ही नहीं खतरे से बाहर है

बाल अधिकारों की उपेक्षा

सन्तोष कुमार राय

24 सितम्बर के राष्ट्रीय सहारा में 'उपेक्षा नहीं संरक्षण मिले शीर्षक ' से प्रकाशित...

बच्चे किसी भी देश,समाज तथा राष्ट्र के भविष्य होते हैं। बच्चों का भविष्य आने वाले समय में देश के विकास की दिशा तय करता है। भारत के सन्दर्भ में भी यह बात उतनी ही सच है, लेकिन क्या भारत में इसे लेकर सरकार तथा अन्य लोग सचेत हैं? क्या बाल अधिकारों पर सरकार की ओर से कोई ऐसा कदम उठया गया है जिससे कुपोषण, तथा बालश्रम पर रोक लगाई जा सके? और जो योजनाएं पहले से चल रही थीं क्या उनका समुचित क्रियांवयन हो रहा है? आज इस तरह के अनेक सवाल बाल अधिकारों के सन्दर्भ में उठाये जा रहे हैं, जो आज भी भारत में बाल अधिकारों को उपेक्षित रखने की लागातार साजिस की ओर संकेत कर रहे हैं। आज की यह उपेक्षा कल की दिशाहीनता है। कल का भारत कैसा होगा या कल के भारत में रहने वाले लोगों में किस तरह का और कितना अंतर होगा अभी इसका अन्दाजा लगाना कठिन होगा।

भारत में अपने अधिकारों के प्रति सजगता कोई नयी बात नहीं है, और समय-समय पर इसे लेकर अनेक तरह के आन्दोलन भी होते रहे हैं। लेकिन तेजी से बदलते भारतीय समाज में बच्चों की स्थिति पर कम गौर किया जा रहा है। आज की यह उपेक्षा आने वाले कल के लिए एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने आ रही है। उससे हम सभी आंख चुराने की कोशिश कर रहे हैं। आज भारत में ऐसे बच्चों की बड़ी तादात है जिन्हें यह पता नहीं है कि उनके मां-बाप कौन हैं, और उनका कुसुर क्या है जिसकी वजह से उन्हें अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। वही नहीं उनके साथ-साथ वे बच्चे भी है जो गरीबी और भूखमरी के चलते शोषण के शिकार हो रहे हैं।

यूनीसेफ की रिपोर्ट के आधार पर कहा जाय तो विश्व में बच्चों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। यहां प्रतिवर्ष 2.5 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे जन्म लेते हैं। यह किसी भी देश में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या से अधिक है। आज जब प्राथमिक शिक्षा को कानूनी मान्यता प्राप्त है फिर भी तीन-चार करोड़ बच्चे विद्यालयों में नहीं जा पाते। इस देश में लगभग इतने ही बच्चे बाल मजदूरी के लिए अभिशप्त हैं। बाल मजदूरी हमारे यहाँ शौकिया नहीं है, वास्तव में वह एक मजबूरी है जिसके बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता। बाल मजदूरी का नतीजा यह होता है कि मजदूरी करने वाले आधे से अधिक बच्चे क्षमता से अधिक कार्य करने की वजह से अनेक जानलेवा बिमारियों के शिकार हो जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है।

भारतीय संविधान के अनु. 15 के अनुसार राज्य को महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए विशिष्ट प्रावधान की शक्ति प्राप्त है। हमारा संविधान बालश्रम को रोकने के पक्ष में है और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित न किया जाय इसका हिमायती है फिर भी भारत में इसे अनदेखा किया जा रहा है। अनु. 45 में शिक्षा का प्रावधान है। इन संवैधानिक और कानूनी बातों को छोड़कर आज के भारत की यह कड़वी सचाई है जो हमें भारत के भविष्य से रूबरू कराती है।

बाल अधिकार के सन्दर्भ भारत की सबसे बड़ी समस्या बालश्रम है। तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी बालश्रम यथावत बना हुआ है। स्वयं सेवी संस्थाओं के द्वारा समय-समय पर बालश्रम का विरोध किया जाता रहा है लेकिन जब तक सरकार की ओर से कोई कारगर कदम नहीं उठाया जायेगा इससे निजात नहीं मिल सकती। सारे आरक्षण और जागरूकता के बाद आज भी बालश्रम अपने मूल रूप से बहुत कम नहीं हुआ है। विभिन्न होटलों और ढाबो में काम करने वाले तथा सड़क पर भीख मांगने वाले बच्चों को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। उन्हें यह काम करने के लिए किसने मजबूर किया है। बचपन की मासूमियत और खूबसूरती को छोड़कर वे इस तरह का कार्य करते हैं। यह उनके जीवन की मजबूरी है, आदत नहीं।

आज भारत के विकास का दंभ भरने वाले लोगों को इस ओर की सचाई को भी देख लेना चाहिए सारा विकास का ढोंग काफूर हो जायेगा। जब तक भारत में बाल अधिकारों का उचित समाधान नहीं होगा और इस देश के बच्चों को अनुचित श्रम से नहीं रोका जायेगा तब तक किसी भी तरह के विकास की बात बेमानी होगी। मिसाईल और कारखाने बनाने से विकास नहीं होगा। बेहतर मनुष्य बनाने से विकास होता है, इसलिए यह आवश्यक है कि अब मनुष्य और मनुष्यता दोनों को बचाया जाय तथा इस देश के बच्चों को उनके अधिकार दिये जाय जिससे सुन्दर भारत का निर्माण हो सके साथ ही वे अपने जीवन की सार्थक दिशा तय कर सकें।

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...