किसानों के लिए चुप्पी मजदूरों पर हाहाकार

संतोष कुमार राय 


किसानों और मजदूरों को लेकर कोई तुलना नहीं लेकिन जैसी स्थिति बनी है उसमें किसानों का पक्ष रखना बहुत आवश्यक है। आज किसानों को लेकर जैसी उदासीनता भारत में व्याप्त है उसके कई कारण हैं। आज की स्थिति को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कई दशकों से भारत की कृषि व्यवस्था और उसकी अहमियत को समझने वाला नेतृत्व कम से कम कृषि क्षेत्र को तो नहीं मिला। कहना तो यह भी गलत नहीं होगा कि स्वाधीनता के बाद से ही भारतीय कृषि व्यवस्था को सत्तासीन समुदाय ने दोयम दर्जे का कार्य बनाने का काम किया जिसका परिणाम यह है कि आज भारत की जीडीपी में कृषि का सिर्फ 14-15 प्रतिशत हिस्सा रह गया है, जबकि भारत की जनसंख्या का लगभग 55-60 प्रतिशत की प्रत्यक्ष निर्भरता कृषि पर ही है। बाहर से देखने पर यह बहुत साधारण और सहज दिख रहा है लेकिन इसके अंदर की विडम्बना बहुत भयावह और घातक है।

मजदूरों को लेकर सरकारी अमला जिस तरह तत्पर और संवेदनशील दिखा, किसानों के किसी भी मुद्दे पर कभी भी ऐसा नहीं दिखा। पिछले लगभग तीन महीने से देशभर के ध्यानकर्षण के केंद्र में वे मजदूर हैं जो शहरों से पलायन कर अपने गाँव जा रहे हैं। मीडिया और सरकारी तंत्र ने खूब शोर मचाया कि मजदूरों के लिए क्या-क्या किया जाएगा और कितना कुछ किया जा रहा है। आज जब वही मजदूर, जो गाँव छोड़कर शहर गए थे, उनके जाते समय क्या किसी ने यह सोचा था कि शहरों में इनके लिए क्या व्यवस्था होगी? शायद नहीं। और ये शहर गये ही क्यों यह भी एक बड़ा प्रश्न है। जबकि कृषि क्षेत्रों को बड़ी संख्या में कामगारों की आवश्यकता है। उसका कारण यह है कि किसी न किसी रूप में यह किसान-पुत्र ही थे जो जीविकोपार्जन के लिए गाँव छोड़कर शहर गए थे। इसक भी कारण यही है कि कृषि से कल के किसान और आज के इन मजदूरों का भरण-पोषण लगभग असंभव हो गया था। अब यहाँ चिंता की बात है कि पूरे भारत के शहरी क्षेत्रों में इतने बड़े पैमाने पर मजदूर कहाँ से पैदा हो गए? और ये मजदूर गाँव ही क्यों जा रहे हैं?

तमाम सरकारी दावों और कोशिशों के बाद भी भारत सरकार किसानों के लिए वह रास्ता नहीं बना पा रही है जिससे किसानी को सम्मानजनक पेशा के तौर पर देखा जाय। एक समय था जब भारत में कृषि कार्य को न सिर्फ सम्मानजनक रोजगार माना जाता था, बल्कि भारत की जीडीपी में कृषि का बहुत बड़ा हिस्सा होता था। आज की स्थिति में कोई भी किसान अपने बेटे हो किसान नहीं बनाना चाहता। यदि वह मजबूरन बन जाय तो अलग बात है। हम सभी को यह बहुत अच्छी तरह पता है कि भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है। इसकी लगभग 55 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि क्षेत्र में ही कार्यरत है। वर्तमान में कृषि का भारतीय अर्थव्यस्था के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 14 के आस-पास योगदान है। लेकिन स्वाधीनता के बाद से देखें तो लगातार भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान घटता रहा है। 1951 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 52.2 प्रतिशत था। 1965 में यह 43.6 प्रतिशत हो गया। 1976 में यह 37.4 प्रतिशत हो गया। गिरने की दर लगातार बढ़ती रही और 2011, 2012 और 2013 में सीधे 18 प्रतिशत पर आ गया और आंकड़ों के मुताबिक 2015-16 में यह अपनी न्यूनतम अवस्था 14 प्रतिशत पर आ गया। जबकि देश की 135 करोड़ आबादी की खाद्य सुरक्षा कृषि पर ही निर्भर है।

ऐसा क्यों और कैसे हुआ इस पर अब बहस करना बेमानी है।  सोचने की बात यह है कि भारत के किसानों और कृषि को कैसे इससे बाहर निकाला जा सकता है। सरकार की ओर से पिछले 6 वर्षों में जो प्रयास हुए हैं वे प्रशंसनीय हैं लेकिन अभी भी सरकार की ओर से किसानों को कोई ठोस रास्ता प्रदान नहीं किया गया है जो वास्तव में कृषि को आगे बढ़ाए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया। पहला लोकल ही भोकल और दूसरा आत्मनिर्भर भारत। इस संदर्भ मे यह कहना अतिवाद नहीं होगा कि भारत तब तक आत्मनिर्भर नहीं हो सकता जब तक भारत की कृषि आत्मनिर्भर नहीं होगी। इस संदर्भ में यह आवश्यक है कि कृषि और कृषकों के उत्थान के लिए ऐसा नेतृत्व कृषि क्षेत्र को मिले जिसे भारत की कृषि व्यवस्था की समझ हो और उसके पास कृषि सुधार की सम्यक समझ हो। अभी तक देश में मुट्ठीभर केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन सुधार के लिए अनेक आयोग बने और उन आयोगों के सुझाव पर पूर्णतः अमल हुआ, जबकि भारत के सबसे बड़े रोजगार क्षेत्र के लिए स्वामीनाथन समिति के बाद से कोई आयोग नहीं बना और न ही स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिसों को अमल में लाया गया।

अब यह बहुत आवश्यक है कि आत्मनिर्भर भारत के लिए पहले आतमनिर्भर किसान की दिशा में सरकार की ओर से व्यवस्थित दिशा निर्देश मिले। यदि वास्तव में लोकल को आगे करना है तो उसके लिए अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा। भारत में यह जड़ कृषि ही है। कृषि का सुदृढ़ ढांचा भारत के विकास का नया सोपान बन सकता है। अब देखना होगा कि कोरोना काल से सीख लेते हुए सरकार इस दिशा में क्या प्रावधान करती है और उसका कितना लाभ कृषि और किसानों को मिलता है।

(14 जून, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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