अपने बच्चे तक को बेचने तक को मजबूर

सन्तोष कुमार राय 


विकसित भारत का सपना सँजोये जो लोग बहुत आपाधापी में आगे बढ़ रहे हैं वे बढ़ें, लेकिन उन्हें पीछे मुड़कर एकबार भारतीय समाज के उस पक्ष को भी देख लेना चाहिए जो विकसित भारत के स्याह को उजागर करता है। पिछले दिनों बरेली से एक खबर आयी। खबर यह थी कि एक महिला ने अपने पति के इलाज के लिए 42 हजार रुपये में 15 दिन के अपने बेटे को बेच दिया। सुनने में थोड़ा अजीब लगा लेकिन यह सही है और इसकी छानबीन में प्रशासन भी लगा। प्रशासन ने पूरी मुस्तैदी दिखाई। पूरे मामले की छानबीन भी हुई जिसका निष्कर्ष यह निकाला कि उसने बेचा नहीं, बल्कि किसी परिचित ने उसे गोद लिया। मामला खत्म हो गया। खबर भी बन गई, जांच भी हो गई और निष्कर्ष भी आ गया। लेकिन इस घटना ने अपने पीछे जिस तरह के सवाल छोड़े वे खत्म नहीं हुए, बल्कि हमें सोचने के लिए मजबूर कर गये।

          इस पूरे प्रकरण में दो पक्ष हैं। इसका पहला पक्ष समाज है और दूसरा पक्ष व्यवस्था। व्यवस्था से मतलब सरकारी व्यवस्था और सरकारी में भी चिकित्सा विभाग। गोरखपुर में आक्सीजन के अभाव में अनेक बच्चों को मरे हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाय कि बच्चे को किसी परिचित ने गोद ही लिया तो क्या इसकी जांच हुई कि इलाज के पैसे कहाँ से आए, किसने दिये और क्यों दिये? और यदि उसी परिचित ने दिया जिसने बच्चा लिया तो उसने बच्चा लेने से पहले क्यों नहीं दिया? सिर्फ किसी महिला को डराकर या उसके साथ ऐसा बर्ताव करके स्वीकार करा लेना कि उसएन बहुत गलत किया है ठीक है? इसमें निहित अनेक सवाल हैं जो समाज और व्यवस्था दोनों के लिए कलंक हैं। कोई भी महिला अपने पति का इलाज करा रही है और ऐसी हालत में उसने किसी तरह से पैसे की व्यवस्था की उसके बाद यदि उसे सरकारी अधिकारियों के प्रकोप का सामना करना पड़े तो वह क्या बोलेगी? वह वही बोलेगी जो सरकारी बाबू चाहेंगे और वही सत्य भी कहा जायेगा। लेकिन एचएम विचार करें क्या यह सत्य है।यह सरकारी दबाव में कहलवाया गया झूठ है। सत्य उसकी परिस्थिति है, सत्य उसकी गरीबी है। सत्य समाज और सरकारी बाबुओं की संवेदनहीनता है।

सवाल यह है कि आखिर गरीबी क्यों? किसके लिए? और कब तक? मेरा मानना है कि इसके लिए गरीबी जिम्मेदार नहीं है और ऐसी स्थिति सिर्फ गरीबी के कारण भी नहीं आती। इस घटना के बाद अनेक लोगों ने यह कहा कि कैसी माँ और कैसे बाप हैं जिन्होंने अपने बच्चे को बेच दिया। दरअसल यह मुद्दा मानवीयता और संवेदनशीलता का है। सबसे पहले वे अमानवीय और असंवेदनशील हैं जिन्होंने ऐसा समाज निर्मित किया और उस महिला को पति को बचाने के लिए अपना बच्चा बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। दूसरा इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए कि उनकी गरीबी बुरी है या सरकारी व्यवस्था? गरीबों के खत्म हो जाने से गरीबी नहीं जा सकती। यह सर्वमान्य सत्य है। इस बात को समझने की आवश्यकता है कि गरीबी अवस्था और परिस्थिति से उत्पन्न होती है। परिस्थितियाँ किसी की भी विपरीत हो सकती हैं लेकिन विपरीत परिस्थितियों से उबरने में समाज और आस-पास के लोग हमेशा सहायक होते रहे हैं।

लेकिन भारतीय समाज अंधाधुंध विकास की दौड़ में अपनी मानवीय पहचान लगभग खो चुका है। सबकुछ सरकार करेगी, सबकुछ सरकारी होगा। इस घटना ने सरकारी व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों को कलंकित किया है। सरकारी तंत्र ऐसा निर्मम और कठोर होता जा रहा है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती, खासकर सरकारी चिकित्सा विभाग। सरकारी चिकत्सा का सीधा संबंध गरीब और ग्रामीण समुदाय से है और इसी का एक उदाहरण इस घटना में भी निहित है।

किसी को भी अपने 15 दिन के बच्चे को बेचने तक पहुँचने में कितना घुटना पड़ा होगा आप अपने ऊपर सोच कर देखिये, समझ मे आ जायेगा। गरीब इस दुनिया के सबसे संवेदनशील लोग हैं। चाहे वे किसी भी देश के हो। पूरी दुनिया में व्यक्तिगत सेवा का कार्य गरीब ही करते हैं। मैंने किसी अमीर को किसी बूढ़े बीमार के घर जाकर सेवा करते, उसके कपड़े बदलते, उसकी शौच साफ करते नहीं देखा है, वह भी बहुत मामूली पैसों पर। दुनिया में जीने वाले करोड़ों लोगों के जीवन और सेवा के आधार होते हैं ये गरीब लोग। मानवता, सेवा और दया का सागर बसता है इनमें। इसलिए व्यवस्था और समाज दोनों को अपना नजरिया बदलना होगा।

(21 जनवरी, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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