संतोष कुमार
राय
राम जन्मभूमि को लेकर आम लोगों के मन में एकबारगी मंदिर-मस्जिद
विवाद और हिंदू-मुस्लिम टकराव की ही बात आती है, जो उसका एक पक्ष है. जबकि, वास्तविक स्थिति इससे इतर भी बहुत कुछ है. हिंदुओं के साथ ही मुसलमानों का
एक तबका इस पर एकमत है और वह चाहता है कि जितनी जल्दी हो सके राम जन्मभूमि का आपसी
सहमति से समाधान निकाल लिया जाय. यह वह वर्ग है जिसकी आस्था भारतीय संस्कृति और
समाज की एकता में है. यह वर्ग टकराव से नहीं भाईचारे से समस्या का हल निकालना
चाहता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी दोनों पक्षों से पूरे मसले का हल बातचीत से निकालने
की अपील की थी. आखिर कोर्ट से बाहर बातचीत से हल करने की बात क्यों और कैसे आयी?
अभी तक सभी लोग कोर्ट की ओर टकटकी लगाये हुए बैठे थे और अचानक कोर्ट
बातचीत से मामले का हल करने की बात करने लगा. क्या इससे पहले बातचीत की पहल नहीं
हुई ? ऐसा बिलकुनहीं है. इससे पहले भी इस पर अनेक दौर की
बातचीत हुई, लेकिन कुछ राजनीतिक दलों ने बातचीत और आम सहमति
से रास्ता नहीं निकलने दिया.
बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में आम सहमति बनाने के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा प्रयास हो रहे हैं. इस तरह के प्रयासों को एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए. इसे और विस्तृत किया जाना चाहिए, जिससे आम आदमी को यह पता चले कि वास्तव में जैसी टकराहट और द्वेष की स्थिति बताई जा रही है, आम जनमानस की उससे बिलकुल उलट सोच है. इस संदर्भ में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहली यह कि हम किस इतिहास को देश का इतिहास मानें ? उसे, जो विदेशी आक्रांताओं और आक्रमणकारियों की प्रशंसा में लिखा गया है या फिर उसे जो देश का वास्तविक इतिहास है. दूसरी बात यह कि राम जन्मभूमि से जुड़े हुए तथ्यों को आम जनमानस तक कैसे पहुँचाया जा सकता है. अब इस बात को समझने की जरूरत है कि राम जन्मभूमि का निर्विवाद होना क्यों आवश्यक है ? इस संदर्भ में संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार जी की बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. उनके मुताबिक, “किसी भी देश का इतिहास विदेशी आक्रांताओं से प्रेरित नहीं हो सकता, बल्कि उस देश के लोगों का इतिहास ही वास्तविक इतिहास हो सकता है. हकीकत तो यह है कि मो. बिन कासिम से लेकर औरंगजेब तक सभी ने इस देश को लूटने का काम किया है. इन शासकों ने देश में मंदिरों को तोड़कर हिंदू मुस्लिम को आपस में लड़वा दिया जो आज तक जारी है. तो क्या उन विदेशियों द्वारा की गई लूट और अत्याचार का इतिहास ही भारत का इतिहास होगा ? यह निर्विवाद सत्य है कि बाबर विदेश से आया हुआ एक आक्रांता था. वह यहाँ लोगों को गुलाम बनाने आया था. वे समाज सुधार के लिए नहीं, बल्कि देश को गुलाम बनाने और लूटने आए थे. उन्होंने लाखों लोगों को मारा, गुलाम बनाया, धर्मांतरण किया, मंदिर और अनेक भारतीय प्रतिष्ठान ध्वस्त किए. आक्रांताओं के खाते में एक भी विश्वविद्यालय और औद्योगिक क्षेत्र दर्ज नहीं हैं. हुनर को मारा, जिससे कि लोग गुलाम बन सकें. उसमें कौन हिंदू था और कौन मुस्लिम, इसका कोई मतलब नहीं है, गुलाम तो गुलाम थे”.
इन्द्रेश कुमार ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने को लेकर न्याय प्रक्रिया के साथ समाज प्रक्रिया की भागीदारी को रेखांकित करते हुए कहा, “तमाम सबूतों से सिद्ध हो चुका है कि विवादित ढांचे की जगह मंदिर था. ऐसे में, धर्म-जाति-उपजाति से ऊपर उठकर भारतीय जनमानस को मंदिर निर्माण के लिए सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए. राम मंदिर तो हजारों हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. जिस तरह दुनिया में कैथोलिक ईसाइयों के लाखों चर्च और मुसलमानों की लाखों मस्जिदें हैं, लेकिन ईसाइयों के लिए वेटिकन सिटी और मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना एक ही है. उसी तरह दुनिया में श्रीराम के मंदिर अनेक हो सकते हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है”. दरअसल यह राम जन्मभूमि पर चिंतन से समाधान निकालने का रास्ता है.
इस बहस में प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आम सहमति के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है. पूर्व मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, प्रो मोहम्मद साबिर और वसीम रिजवी जैसे लोग समाधान देने का प्रयास कर रहे हैं. आरिफ मोहम्मद खान मानते हैं, “भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराएं एक दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं. राम मंदिर को समस्त भारतवासियों का सिरमौर बताते हुए उन्होंने कहा कि मंदिर जरूर बनना चाहिए लेकिन राम की मर्यादा के अनुकूल ही काम होना चाहिए”. यह स्वागत योग्य विचार है. भारतीय संस्कृति को स्थापित करने के पक्ष में इसे देखा जाना चाहिए. इसी कड़ी में प्रो. मो. साबिर के विचार भी दृष्टव्य हैं, “अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि इस मुद्दे का हल शांति से अदालत के बाहर ही हो जाए, क्योंकि अदालत ने भी इस विषय पर बाहर चर्चा कर लेने की बात कही है. उन्होंने कहा कि इससे समुदायों की भावनाएं भी जुड़ी हैं, लेकिन समझौते के लिए आपसी तालमेल और बातचीत बेहद जरूरी है. वैसे भी खुदाई में जो तथ्य मिले हैं उसमें राम जन्मभूमि पर मंदिर के होने का दावा पुख्ता होता है”. यह ऐसी पहल है जिससे समाधान का रास्ता बहुत आसान हो जायेगा. यह पढ़े-लिखे लोगों की राय है, जो शांति के पक्षधर हैं. कुछ ऐसी ही धारणा वसीम रिज़वी की भी है, वे कहते हैं, “राम जन्मभूमि के संदर्भ में लिए जाने वाले सारे निर्णय हिंदुओं के द्वारा तय होना चाहिए. भगवान राम का जन्म कहां हुआ, इसे कोई और कैसे तय कर सकता ? अगर हिंदू ये कहता है कि अयोध्या में श्रीराम का जन्मस्थान है तो कट्टरपंथी मुसलमानों को भी देश के बारे में अपने हठधर्मिता से ऊपर उठकर यह सोचना चाहिए और और खुद सहयोग करते हुए वहां राम मंदिर बनने देना चाहिए. सच यह है कि बाबर कभी अयोध्या आया ही नहीं था. मुझे मालूम है कि बाबर का सेनापति मीर बांकी अयोध्या आया था. वहां उसने कत्लेआम कर मंदिरों को तोड़ा. फिर अपने सैनिकों के लिए मस्जिद के रूप में एक स्ट्रक्चर बनवाया. मुसलमान इसे बेहतर जानते हैं कि ऐसी जगह नमाज नहीं पढ़ी जा सकती, जो जगह आपकी है ही नहीं, छीनी या कब्जा की हुई है, जहां पर नमाज ही जायज नहीं है, उसे मस्जिद कैसे माना जा सकता”.
इस पूरे प्रसंग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचार विवादित ढांचे की खुदाई करने वाली टीम का हिस्सा रहे भारतीय पुरातात्विक विभाग के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के.के. मुहम्मद के हैं. उनके मुताबिक, “विवादित ढांचे के नीचे कई स्तंभ मिले हैं, जिनमें पूर्ण कलश की आकृति बनी हुई है”. यहीं नहीं, उन्होंने वामपंथी इतिहासकारों की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा “पूरे विवाद के दौरान मंदिर के साक्ष्य मिलने पर एक ऐसा समय आया था जब मुस्लिम समुदाय ने मंदिर निर्माण के लिए हामी भर दी थी लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें गुमराह कर दिया”. यह इस पूरे प्रकरण का ऐसा पक्ष है जिस पर शायद ही कभी विचार होता हो. यह सच है कि भारत के अनेक राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी इसे भरपूर उलझाने में लगातार लगे रहे. उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री और वरिष्ठ वकील का यह कहना कि इसकी सुनवाई पर 2019 तक रोक दी जाय. ये लोग किस भारत के हैं. मैथिलीशरण गुप्त ने ऐसे लोगों के लिए बहुत सही लिखा है कि ‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है. वह नर नही नर पशु निरा और मृतक समान है’.
किसी भी देश के गौरव को पुनर्सृजित करने का दायित्व वहां के आम लोगों पर ही होता है. राम मंदिर भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ विषय है. लेकिन इसमें इसका भी ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि इसका रास्ता आम सहमति से ही निकले. निकल भी रहा है. इसे लेकर आम जन में लगातार जागरूकता बढ़ रही है. आम जन भी अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर रहे हैं. यही इसका सही मतलब भी है कि आम जनमानस के बीच से सहमति की आवाज उठे और बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इसे हल कर दुनिया के सामने एक उदहारण के रूप में प्रस्तुत किया जाये. अब देखना यह है कि यह कितना कारगर होता है और इसमें कितना समय लगता है. लेकिन एक बात तो साफ हो गई है कि इसका परिणाम तो आयेगा ही, समय चाहे जितना लगे. इससे यह उम्मीद की जा सकती है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण नई क्रांति की राह पर उन्मुख देश-दुनिया को नई दिशा देगा.(14 अप्रैल 2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)
राम जन्मभूमि को लेकर आम लोगों के मन में एकबारगी मंदिर-मस्जिद
विवाद और हिंदू-मुस्लिम टकराव की ही बात आती है, जो उसका एक पक्ष है. जबकि, वास्तविक स्थिति इससे इतर भी बहुत कुछ है. हिंदुओं के साथ ही मुसलमानों का
एक तबका इस पर एकमत है और वह चाहता है कि जितनी जल्दी हो सके राम जन्मभूमि का आपसी
सहमति से समाधान निकाल लिया जाय. यह वह वर्ग है जिसकी आस्था भारतीय संस्कृति और
समाज की एकता में है. यह वर्ग टकराव से नहीं भाईचारे से समस्या का हल निकालना
चाहता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी दोनों पक्षों से पूरे मसले का हल बातचीत से निकालने
की अपील की थी. आखिर कोर्ट से बाहर बातचीत से हल करने की बात क्यों और कैसे आयी?
अभी तक सभी लोग कोर्ट की ओर टकटकी लगाये हुए बैठे थे और अचानक कोर्ट
बातचीत से मामले का हल करने की बात करने लगा. क्या इससे पहले बातचीत की पहल नहीं
हुई ? ऐसा बिलकुनहीं है. इससे पहले भी इस पर अनेक दौर की
बातचीत हुई, लेकिन कुछ राजनीतिक दलों ने बातचीत और आम सहमति
से रास्ता नहीं निकलने दिया.
बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में आम सहमति बनाने के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा प्रयास हो रहे हैं. इस तरह के प्रयासों को एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए. इसे और विस्तृत किया जाना चाहिए, जिससे आम आदमी को यह पता चले कि वास्तव में जैसी टकराहट और द्वेष की स्थिति बताई जा रही है, आम जनमानस की उससे बिलकुल उलट सोच है. इस संदर्भ में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहली यह कि हम किस इतिहास को देश का इतिहास मानें ? उसे, जो विदेशी आक्रांताओं और आक्रमणकारियों की प्रशंसा में लिखा गया है या फिर उसे जो देश का वास्तविक इतिहास है. दूसरी बात यह कि राम जन्मभूमि से जुड़े हुए तथ्यों को आम जनमानस तक कैसे पहुँचाया जा सकता है. अब इस बात को समझने की जरूरत है कि राम जन्मभूमि का निर्विवाद होना क्यों आवश्यक है ? इस संदर्भ में संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार जी की बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. उनके मुताबिक, “किसी भी देश का इतिहास विदेशी आक्रांताओं से प्रेरित नहीं हो सकता, बल्कि उस देश के लोगों का इतिहास ही वास्तविक इतिहास हो सकता है. हकीकत तो यह है कि मो. बिन कासिम से लेकर औरंगजेब तक सभी ने इस देश को लूटने का काम किया है. इन शासकों ने देश में मंदिरों को तोड़कर हिंदू मुस्लिम को आपस में लड़वा दिया जो आज तक जारी है. तो क्या उन विदेशियों द्वारा की गई लूट और अत्याचार का इतिहास ही भारत का इतिहास होगा ? यह निर्विवाद सत्य है कि बाबर विदेश से आया हुआ एक आक्रांता था. वह यहाँ लोगों को गुलाम बनाने आया था. वे समाज सुधार के लिए नहीं, बल्कि देश को गुलाम बनाने और लूटने आए थे. उन्होंने लाखों लोगों को मारा, गुलाम बनाया, धर्मांतरण किया, मंदिर और अनेक भारतीय प्रतिष्ठान ध्वस्त किए. आक्रांताओं के खाते में एक भी विश्वविद्यालय और औद्योगिक क्षेत्र दर्ज नहीं हैं. हुनर को मारा, जिससे कि लोग गुलाम बन सकें. उसमें कौन हिंदू था और कौन मुस्लिम, इसका कोई मतलब नहीं है, गुलाम तो गुलाम थे”.
इन्द्रेश कुमार ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने को लेकर न्याय प्रक्रिया के साथ समाज प्रक्रिया की भागीदारी को रेखांकित करते हुए कहा, “तमाम सबूतों से सिद्ध हो चुका है कि विवादित ढांचे की जगह मंदिर था. ऐसे में, धर्म-जाति-उपजाति से ऊपर उठकर भारतीय जनमानस को मंदिर निर्माण के लिए सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए. राम मंदिर तो हजारों हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. जिस तरह दुनिया में कैथोलिक ईसाइयों के लाखों चर्च और मुसलमानों की लाखों मस्जिदें हैं, लेकिन ईसाइयों के लिए वेटिकन सिटी और मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना एक ही है. उसी तरह दुनिया में श्रीराम के मंदिर अनेक हो सकते हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है”. दरअसल यह राम जन्मभूमि पर चिंतन से समाधान निकालने का रास्ता है.
इस बहस में प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आम सहमति के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है. पूर्व मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, प्रो मोहम्मद साबिर और वसीम रिजवी जैसे लोग समाधान देने का प्रयास कर रहे हैं. आरिफ मोहम्मद खान मानते हैं, “भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराएं एक दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं. राम मंदिर को समस्त भारतवासियों का सिरमौर बताते हुए उन्होंने कहा कि मंदिर जरूर बनना चाहिए लेकिन राम की मर्यादा के अनुकूल ही काम होना चाहिए”. यह स्वागत योग्य विचार है. भारतीय संस्कृति को स्थापित करने के पक्ष में इसे देखा जाना चाहिए. इसी कड़ी में प्रो. मो. साबिर के विचार भी दृष्टव्य हैं, “अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि इस मुद्दे का हल शांति से अदालत के बाहर ही हो जाए, क्योंकि अदालत ने भी इस विषय पर बाहर चर्चा कर लेने की बात कही है. उन्होंने कहा कि इससे समुदायों की भावनाएं भी जुड़ी हैं, लेकिन समझौते के लिए आपसी तालमेल और बातचीत बेहद जरूरी है. वैसे भी खुदाई में जो तथ्य मिले हैं उसमें राम जन्मभूमि पर मंदिर के होने का दावा पुख्ता होता है”. यह ऐसी पहल है जिससे समाधान का रास्ता बहुत आसान हो जायेगा. यह पढ़े-लिखे लोगों की राय है, जो शांति के पक्षधर हैं. कुछ ऐसी ही धारणा वसीम रिज़वी की भी है, वे कहते हैं, “राम जन्मभूमि के संदर्भ में लिए जाने वाले सारे निर्णय हिंदुओं के द्वारा तय होना चाहिए. भगवान राम का जन्म कहां हुआ, इसे कोई और कैसे तय कर सकता ? अगर हिंदू ये कहता है कि अयोध्या में श्रीराम का जन्मस्थान है तो कट्टरपंथी मुसलमानों को भी देश के बारे में अपने हठधर्मिता से ऊपर उठकर यह सोचना चाहिए और और खुद सहयोग करते हुए वहां राम मंदिर बनने देना चाहिए. सच यह है कि बाबर कभी अयोध्या आया ही नहीं था. मुझे मालूम है कि बाबर का सेनापति मीर बांकी अयोध्या आया था. वहां उसने कत्लेआम कर मंदिरों को तोड़ा. फिर अपने सैनिकों के लिए मस्जिद के रूप में एक स्ट्रक्चर बनवाया. मुसलमान इसे बेहतर जानते हैं कि ऐसी जगह नमाज नहीं पढ़ी जा सकती, जो जगह आपकी है ही नहीं, छीनी या कब्जा की हुई है, जहां पर नमाज ही जायज नहीं है, उसे मस्जिद कैसे माना जा सकता”.
इस पूरे प्रसंग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचार विवादित ढांचे की खुदाई करने वाली टीम का हिस्सा रहे भारतीय पुरातात्विक विभाग के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के.के. मुहम्मद के हैं. उनके मुताबिक, “विवादित ढांचे के नीचे कई स्तंभ मिले हैं, जिनमें पूर्ण कलश की आकृति बनी हुई है”. यहीं नहीं, उन्होंने वामपंथी इतिहासकारों की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा “पूरे विवाद के दौरान मंदिर के साक्ष्य मिलने पर एक ऐसा समय आया था जब मुस्लिम समुदाय ने मंदिर निर्माण के लिए हामी भर दी थी लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें गुमराह कर दिया”. यह इस पूरे प्रकरण का ऐसा पक्ष है जिस पर शायद ही कभी विचार होता हो. यह सच है कि भारत के अनेक राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी इसे भरपूर उलझाने में लगातार लगे रहे. उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री और वरिष्ठ वकील का यह कहना कि इसकी सुनवाई पर 2019 तक रोक दी जाय. ये लोग किस भारत के हैं. मैथिलीशरण गुप्त ने ऐसे लोगों के लिए बहुत सही लिखा है कि ‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है. वह नर नही नर पशु निरा और मृतक समान है’.
किसी भी देश के गौरव को पुनर्सृजित करने का दायित्व वहां के आम लोगों पर ही होता है. राम मंदिर भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ विषय है. लेकिन इसमें इसका भी ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि इसका रास्ता आम सहमति से ही निकले. निकल भी रहा है. इसे लेकर आम जन में लगातार जागरूकता बढ़ रही है. आम जन भी अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर रहे हैं. यही इसका सही मतलब भी है कि आम जनमानस के बीच से सहमति की आवाज उठे और बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इसे हल कर दुनिया के सामने एक उदहारण के रूप में प्रस्तुत किया जाये. अब देखना यह है कि यह कितना कारगर होता है और इसमें कितना समय लगता है. लेकिन एक बात तो साफ हो गई है कि इसका परिणाम तो आयेगा ही, समय चाहे जितना लगे. इससे यह उम्मीद की जा सकती है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण नई क्रांति की राह पर उन्मुख देश-दुनिया को नई दिशा देगा.
(14 अप्रैल 2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)
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