‘गाय हमारी माता है’- फिर भी गायों से क्यों दूर हो रहे हैं हमारे किसान ?'


संतोष कुमार राय 

एक दौर था जब गाय भारतीय किसानों की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार हुआ करती थी. पर, आज यह कहना कि गाय उसी रूप में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है, न सिर्फ आज अप्रासंगिक लगता है बल्कि जमीनी सच्चाई से कोसों दूर लगता है. किसी भी संस्कृति और सभ्यता का निर्माण उस समुदाय के रहन-सहन और जीवन निर्वाह से होता है. जीवन निर्वाह के तौर-तरीकों और संसाधनों का निरंतर विकास ही संस्कृति और सभ्यता का रूप ले लेता है. गाय मानव जीवन के निर्वाह का महत्वपूर्ण साधन और संसाधन थी. गाय का या गो वंश का संबंध धर्म, संस्कृति और सभ्यता से जोड़ना अलग बात है. पर, वास्तविकता की अनदेखी कर हर हिन्दू परिवार, विशेषकर किसान परिवार से गाय पालने का आग्रह करना हास्यास्पद सा लगता है. यह आग्रह करने से पहले यह विचार करना ही होगा कि आखिरकार यह नौबत क्यों आ गई कि जो गाय पर ही आधारित थे, जिनका जीवन गाय के बिना या गो वंश के बिना चल ही नहीं सकता था, उन्हें ही गाय न पाल सकने वाले बुद्धिजीवी बता रहे हैं कि गाय को बचाइए और संरक्षित करिए.
देशी बनाम विदेशी गाय
अब प्रश्न उठता है कि हम भारतीय गायों की बात करें या फिर अभारतीय गायों की भी. यह एक बड़ा संकट है कि जब से भारत में अभारतीय गायों का प्रचलन बढ़ा है, तब से स्थिति बदल गई है. दुग्ध पैदावार की दृष्टि से अभारतीय गायें आज भारतीय किसानों की पहली पसंद बन गई हैं. एक गाय कई गायों के बराबर दूध देती है, जिसमें खर्च और मेहनत दोनों कम हो गई. लेकिन, इसी के साथ जो बड़ा संकट पैदा हुआ वह यह कि विदेशी नस्ल की गायों के बछड़ों की हमारे यहाँ कोई उपयोगिता नहीं है. फिर उनका क्या होगा ?
दरअसल, गाय भारतीय किसानों की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार हुआ करती थी, और यह 90 के दशक तक चलता रहा. यह भी समझने की जरूरत है कि जिन्हें गाय रखनी है, वे न तो गाय के लिए कोई आंदोलन कर रहे हैं और न ही किसी आंदोलन में शामिल हो रहे हैं. फिर गाय के लिए होने वाले आंदोलन किसके लिए और क्यों होते रहते हैं ? जो लोग ये कर रहे हैं उन्हें इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि क्या केवल गोशालाओं के माध्यम से गोसेवा और गोरक्षा हो सकती है ? क्या इन आंदोलनों से किसान गाय पालना शुरू कर देंगे ?
उदारीकरण ने बदले हालात
इसका जवाब पाने के लिए हमें 90 के दशक का विश्लेषण करना होगा. इस विश्लेषण के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं, पहला आर्थिक उदारीकरण और विदेशी कंपनियों के विस्तार का है. दूसरा, मांस के बेतहाशा निर्यात का है. 90 के दशक में भारतीय कृषि को पूरी तरह से बैंक आधारित ऋण के अधीन कर दिया गया. यह दूरगामी रणनीति के तहत किया गया. योजनाएँ और लालच ऐसा कि अनेक किसान अपने पूरे जीवन में भी ऋण चुका नहीं सके और उनकी बर्बादी की कहानी तैयार हो गई. बड़े किसानों को बैंकों और विदेशी कंपनियों ने तोड़ा और छोटे किसानों को मांस निर्यात ने. मांस का निर्यात किसानों को कृषि और पशुपालन से दूर करने का बहुत महत्वपूर्ण कारण है.
महंगाई की मार, गोपालक लाचार
लेकिन, यह पूरी सच्चाई नहीं है, बल्कि यह आधी-अधूरी सच्चाई है. पूरी सच्चाई को न तो आंदोलनकारी बुद्धिजीवी बता रहे हैं और न ही सरकार. यह सच्चाई पूरी तभी हो सकती है, जब इसमें महँगाई को शामिल किया जाएगा. 90 के दशक से 2016 तक गोवंश की कीमत कितनी बढ़ी है, इसका अंदाजा सिर्फ किसान को है या कुछेक श्रद्धावान लोगों को. 90 के दशक में जिस गाय की कीमत 1500 रुपये होती थी, आज 50 हजार रुपये की है. ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा इसलिए हुआ कि मांस निर्यात में दुधारी गायें कटती गईं और देखते-देखते मात्र 25 वर्षों में उनकी संख्या बहुत कम हो गई. किसान जिस गाय की कीमत आज 15 हजार लगाता है, गोमांस का व्यापारी उसकी कीमत 30 हजार देता है.
मजदूर बनने को मजबूर किसान
साफ है कि बढ़ती हुई महँगाई का असर किसानों और पशुपालकों पर भी हुआ है. गाय ले लेना अगर संभव भी हुआ तो उसका खर्च वहन करना बहुत कठिन है. गाय की उपयोगिता अब सिर्फ दूध देने तक सिमट गई है. अब वह जीवन निर्वाह का साधन या संसाधन नहीं रह गई है. पहले उसके दूध के साथ-साथ गोबर और बछड़ों का उपयोग होता था. अब गोबर की जगह अनेक प्रकार के उर्वरक आ गए. उपले की जगह एलपीजी गैस आ गई. फिर गोबर का स्वरूप अब कचरे से अधिक कुछ नहीं है. मशीनों के बेतहाशा उपयोग ने बछड़ों की उपयोगिता खत्म कर दी. बढ़ती हुई महँगाई का असर यह हुआ कि छोटे किसानों ने बड़े पैमाने पर कृषि कार्य छोड़ दिया और शहरों में जाकर मजदूरी करने लगे. किसानों की क्षमता महँगाई के अनुसार नहीं बढ़ पायी है और न ही इसका कोई वैकल्पिक उपाय निकाला गया है.
गाय को बचाने के आंदोलन का कोई मतलब नहीं होगा जब तक सीधे तौर पर किसान खुद इसका नेतृत्व नहीं करेंगे. किसान तभी नेतृत्व करेंगे जब उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी होगी कि वे गाय रखने में सक्षम होंगे. इसलिए बहुत जरूरी है कि गाय के आंदोलन के साथ किसानों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने और महँगाई को रोकने की दिशा में सरकार के स्तर पर व्यवस्थित योजनाएँ लायी जाएं और उनका सीधा लाभ किसानों को मिले. अन्यथा सरकार गाय खरीदकर दे देगी तो भी किसान नहीं लेगा. यही जमीनी हकीकत है. इससे आँख नहीं चुरायी जा सकती. गोसेवा-गोरक्षा के लिए आंदोलन चलाने वाले महानुभाव लोग इस पर भी ध्यान देंगे तभी कुछ सार्थक परिणाम निकल सकता है.

(3अप्रैल 2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)

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