संतोष कुमार राय
अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को अत्याचार और भेदभाव से बचाने
वाले एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में विभिन्न संगठनों और
राजनीतिक दलों की ओर से 2 अप्रैल को बुलाए गये भारत बंद के दौरान हिंसा की जैसी
घटनाएँ देखने को मिलीं, वह निंदनीय होने के साथ ही कई परत के सवाल भी छोड़ गईं. सबसे पहला सवाल यह
कि क्या सामाजिक बराबरी के लिए किये जाने वाले प्रतिरोध और आंदोलनों का स्वरूप ऐसा
ही होना चाहिए ? क्या यही सामाजिक न्याय और बराबरी
की वास्तविक पहचान है? आजादी के इतने सालों बाद भी क्या
हमारा समाज यही सीख पाया है? और यह सवाल सिर्फ इस बार
के भारत बंद के परिप्रेक्ष्य में नहीं है, बल्कि यह
समूचे उस आंदोलन प्रणाली से है, जो सरकारी संसाधनों को
क्षति पहुँचाने, आम नागरिक के साथ दुर्व्यवहार करने, लूट-पाट और पत्थरबाजी करने का आंदोलन करते हैं. आखिर ऐसे आंदोलन किसके लिए
होते हैं ? क्या हिंसा के अलावा भी प्रतिरोध
का कोई रास्ता है ?
यह पहला आंदोलन नहीं था जिसमें इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई.
अभी कुछ ही दिनों पहले करणी सेना के नाम से ऐसा ही आंदोलन कई दिनों तक चलता रहा और
उसका अनेक स्तर पर समाज के अलग-अलग तबके को नुकसान उठाना पड़ा. कोरेगांव में जिस
तरह से हिंसा की आग भड़काई गई उसकी लपटें अभी शांत नहीं हुई हैं. हरियाणा में जाटों
के आंदोलन को गुजरे कुछ ही समय हुआ है, जिसमें नृशंसता की सारी हदें पर हो गई थीं. बच्चों,
बूढ़ों और महिलाओं के साथ जो व्यवहार हुआ, जैसी
लूट-पाट और तोड़-फोड़ हुई उससे हम समाज को क्या बताना चाहते हैं?
दरअसल अब यह स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि भारत में होने
वाले इस तरह के आंदोलनों का मकसद कोई प्रतिरोध जताना या अपने अधिकार की मांग करना
कतई नहीं है, बल्कि अब
यह क्षमता प्रदर्शन, सामर्थ्य प्रदर्शन और बल प्रदर्शन के
औजार बन गये हैं. यह कौन सा समाज है जो यह स्वीकार करता है कि अपने प्रतिरोध को
दिखाने के लिए हम औरों का जीना हराम कर देंगे. सरकारी संसाधनों को क्षति पहुँचाने
से, आम लोगों के साथ अभद्रता करने से अधिकार मिलेगा क्या ?
इसके लिए एकतरफा प्रदर्शन करने वालों को दोषी मानना भी जायज नहीं है,
बल्कि इसमें राजनीतिक दलों की भी बराबर की सहभागिता है.
क्या है वास्तविक मामला
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार
निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की गई थी. यह
सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई. आदेश जारी होने के तुरंत बाद ही यह
गाइडलाइन लागू हो गई थी, जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि
किसी भी आरोपी सरकारी कर्मी की तुरंत गिरफ्तारी नहीं होगी. सरकारी कर्मचारियों की
गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अधिकारी की इजाजत से ही होगी. आम लोगों के लिए भी एक्ट में
संशोधन किया गया है. इस एक्ट के तहत आरोपी की गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी.
अदालतों के लिए अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत
मंजूर या नामंजूर करेंगे.
पूरे मामले में भ्रम और अंतर्विरोध
दलित आंदोलन की तह में जाने की जरूरत है. यह सिर्फ एससी-एसटी
एक्ट में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरोध में नहीं था. असल में इसके
राजनीतिक निहितार्थ को भी समझना जरूरी है. इसमें बड़े पैमाने पर भ्रम और अंतर्विरोध
को प्रचारित किया गया. इस पूरे आंदोलन को आरक्षण के विरोध में भारत बंद के नाम से
प्रचारित किया गया और आम जनमानस में विपक्षी पार्टियों ने यह भ्रम फैलाने का
प्रयास किया कि सरकार आरक्षण के विरोध में है. इसमें सबसे ज्यादा बढ़-चढ़कर सोशल
मीडिया ने भागीदारी निभाई. सभी पार्टियों ने बाकायदे पार्टी ऑफिस से इस तरह के
संदेश अलग-अलग तरीके से प्रसारित किए. इसमें कौन आगे है कौन पीछे यह विचारणीय नहीं
है. सबने अपनी क्षमता के अनुरूप हाथ धोया. यहाँ यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि
राजनीतिक दलों की ऐसी परिस्थितियों में जिम्मेदारी क्या होती है ? भारत बंद के नाम पर समाज में गलत
संदेश देना, फिर हिंसात्मक आंदोलन का समर्थन करना, हिंसा हो इसके लिए भरपूर प्रयास करना, यह किस स्तर
की राजनीति है ?
पुनर्विचार से सुप्रीम कोर्ट का इनकार
तीन अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए
सरकार की ओर से लगाई गई एससी-एसटी ऐक्ट से जुड़े फैसले पर पुनर्विचार याचिका को
स्वीकार नहीं किया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसमें बदलाव नहीं किया गया है, बल्कि निर्दोष व्यक्तियों की
गिरफ्तारी के मामले में उनके हितों की रक्षा का प्रावधान किया गया है. सुप्रीम
कोर्ट ने यह भी कहा कि एससी-एसटी कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल निर्दोष लोगों
को आतंकित करने के लिए नहीं किया जा सकता.
इस घटना के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने कर्तव्य
के निर्वाह को लेकर संदेह के घेरे में हैं. अगर ऐसा ही रहा तो भारत जिस
लोकतांत्रिक आधार पर टिका हुआ है, उसे ढहते देर नहीं लगेगी. यह अपनी जिम्मेदारियों को समझने का समय है. जनता
जब उग्र होगी तो उसका प्रभाव आज नहीं तो कल सभी पर पड़ेगा, राजनेताओं
पर भी. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि समाज के हर तबके को राजनीति से ऊपर उठकर अपने
उत्तरदायित्व का बोध हो.
(5 अप्रैल 2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें