बनारसी राजनीतिक मिज़ाज और इस बार का चुनाव

                                                                                                सन्तोष कुमार राय
          इस बार के चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम को जिस तरह से चर्चा का केंद्र बनाया गया है उस लिहाज से मोदी का बनारस से चुनाव लड़ना बनारस और मोदी दोनों के लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन इसके साथ ही यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद भी बनारस के साथ बने रहेंगे? मेरा अनुमान है कि ऐसा होगा नहीं और पिछले 60 वर्षों से अपनी भावुकता और बनारसीयत के अंदाज में ठगे गए बनारसी इस बार भी ठगे जाएंगे और नरेंद्र मोदी चुनाव के बाद इस सीट को छोड़ देंगे और फिर गुजरात की सीट को लेकर प्रधानमंत्री बन जाएंगे। बहरहाल यह एक कयास है सच्चाई नहीं है। जहाँ तक फायदे की बात है तो मोदी के बनारस आ जाने से भाजपा के कार्यकर्ताओं में नया उत्साह आएगा और उसका प्रभाव पूर्वांचल के साथ बिहार पर भी पड़ेगा। मतदाताओं के लिए जिन सीटों पर असमंजस की स्थिति रहेगी उन सीटों पर भी वे मोदी के नाम पर भाजपा जे जुड़ सकते हैं, लेकिन यह भी सच्चाई है कि जाति और धर्म का जो बीज इन क्षेत्रों में बहुत पहले बोया गया था उसका फल कई पार्टियों ने काट लिया है। जहाँ तक भाजपा का सवाल है तो उसने भी धर्म के आधार पर अपना आंदोलन यूपी के अयोध्या में ही शुरू किया था जिसके कुछ छींटे बनारस भी आए थे और इस सीट को 90 से 2009 तक, बीच में 2004 को छोड़कर भाजपा का बना दिये। इस बार का चुनाव कई मायनों में दूसरे तरह का है। इस लिहाज से वाराणसी में मोदी की दावेदारी का विश्लेषण बहुत जरूरी है। अभी तक मुख्य रूप से वाराणसी की दावेदारी में तीन नाम आए हैं जिन्हे ध्यान में रखकर वाराणसी के मतदाताओं पर विचार होना चाहिए। मोदी के समानांतर इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल भी आ रहे हैं। पिछले चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे पूर्वांचल के प्रख्यात बाहुबली मुख्तार अंसारी भी मोदी के समक्ष होंगे, जिनका अतीत कभी सपा तो कभी बसपा की झोली में घूमता रहा है। इस क्षेत्र के अतीत पर अगर ध्यान दिया जाय तो यह क्षेत्र भाजपा के बाहुबली विधायक कृष्णानंद राय का कार्य क्षेत्र रहा है। कृष्णनन्द और मुख्तार की लड़ाई में निश्चित तौर पर मतदाताओं के दो पक्ष बने हैं और वे आज भी उसी तेवर के साथ काम कर रहे हैं जिसके नमूने कभी-कभी देखने को मिल जाते हैं। यह सच्चाई है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी मुस्लिम वोटरों का एक बड़ा तबका मोदी को स्वीकार नहीं कर रहा है। बनारस में मुस्लिम वोटरों की संख्या ठीक-ठाक है। दूसरा वर्ग वह है जो यहाँ जाति की लड़ाई लड़ता है। अतीत के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाजपा को बनारस में कुछ एक अपवादों को छोड़कर सवर्ण वोटरों की पार्टी का दर्जा प्राप्त है। ऐसी स्थिति में परंपरागत भाजपा विरोधी वोटर खुद को मोदी के विरोध में स्थापित करेगा। जहां तक केजरीवाल की बात है तो उन्हे भाजपा जिस तरह हल्के में ले रही है दरअसल वैसी स्थिति है नहीं। भाजपा के नेताओं की सबसे बड़ी कमी है कि वे कभी भी अपने विरोधियों की क्षमता को स्वीकार नहीं करते और अपनी राग ही अलापने में अपनी बहदुरी समझते हैं। इसका परिणाम 2004, 2009 और कुछ महीने पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखा चुके हैं फिर भी सच्चाई से आंखे मोड़ रहे हैं। केजरीवाल जितने खतरनाक कांग्रेस के लिए हैं उससे कम भाजपा के लिए नहीं हैं। जहाँ तक बनारस में वोटरों की बात है तो हम इसे तीन वर्गों में देख सकते हैं। पहला वह है जो परंपरागत भाजपा का वोट है। दूसरा वह है जो क्षेत्रीय पार्टियाँ, मसलन सपा, बसपा और मुख्तार की पार्टी के वोटर हैं जो कभी सपा तो कभी बसपा पर वोट करते रहे हैं। तीसरा वर्ग कांग्रेस का है। कांग्रेस का वोट बँटेगा यह तय है लेकिन यह भी तय है कि वह मोदी को उस हिसाब से नहीं मिलेगा जैसा भाजपा अनुमान लगा रही है। अगर इस चुनाव में केजरीवाल नहीं होते तो शायद मोदी को इसका लाभ मिल जाता लेकिन केजरीवाल अगर सेंध लगायेंगे तो मोदी के लिए खतरा हो सकता है जो कि 2009 में मुरली मनोहर जोशी को नहीं था।
          मोदी के बनारस आने से निश्चित तौर पर भाजपा को लाभ होगा। लेकिन 90 के दशक मे भाजपा ने राजनीति में जो प्रयोग किया था उसका प्रभाव इस चुनाव में मोदी की सीट पर भी पड़ेगा। देश के विकास की जगह राजनीति में भाजपा ने नया प्रयोग किया और एक खास समुदाय की आस्था को मुद्दा बनाया और राम मंदिर के आधार पर आम चुनाव में आए जिसका कई प्रान्तों में त्वरित लाभ मिला। वह पहला दौर था जब राजनीति में सत्ता की नाकामियों को गिनाने की बजाय लीक से हटकर बिलकुल नायाब मुद्द सामने आया। भाजपा की पारंपरिक सीट की तलाश करते हुए नरेंद्र मोदी बनारस आ गये। अब यह देखना होगा कि इस सीट पट भाजपा के साथ अन्य दल किस तरह से आते हैं। अगर सपा और बसपा ने प्रत्याशी खड़ा नहीं किया तो मोदी की सीट का निकालना बहुत मुश्किल है। उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार है और मुख्तार अंसारी सपा के पूर्व नेता भी हैं आज सपा से उनकी नज़दीकियाँ भी है और इसका लाभ मुख्तार को मिल सकता है। वैसे अभी कुछ भी साफ साफ नहीं कहा जा सकता है लेकिन भाजपा और मोदी का यह फैसले को बहुत योग्य नहीं कहा जा सकता।

           

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