असफल प्रेम का इंडियापा

संतोष कुमार राय 

इंडियापा लोकप्रिय कथा लेखन की अच्छी रचना है। वैसे तो लेखकीय घोषणा में इसे उपन्यास कहा गया है लेकिन यह सिर्फ उपन्यास नहीं है। यह आत्मकथा भी हो सकता है, संस्मरण भी हो सकता है। वर्तमान दौर कथा लेखन के लोकप्रिय शैली का दौर है और अँग्रेजी भाषा में यह आज के भारत में खूब पढ़ा जा रहा है। इंडियापा भी हिंदी में इसी शैली का एक बेहतरीन प्रयास है, जिसमें रूमानियत भी है, उत्साह भी है, बचपना भी है, लगाव भी है, सम्मान भी है दुख भी है, उदासी भी है, निराशा भी है, आरोप-प्रत्यारोप भी है और भारतीय युवाओं के प्रेम की पारंपरिक परिणति प्रेम और विवाह का द्वंद्व भी है। 

लेखक विनोद दूबे खुद मर्चेंट नेवी में कैप्टन हैं और रचना का मुख्य पात्र सागर भी। ऐसा लगता है कि इस रचना का ज्यादातर हिस्सा लेखक के जीवन के इर्द-गिर्द ही घूमता दिखाई दे रहा है। सागर और भक्ति की प्रेम कथा की मोबाईल शुरुआत और वैवाहिक अंत ऐसी कोई नायाब चीज नहीं है, जिस पर इससे पहले या इससे अलग कुछ नहीं लिखा गया है। लेकिन लेखक की यह कोशिश सराहनीय है कि अच्छी हिंदी जानने समझने के बावजूद लेखक ने इसे आज की पीढ़ी की मानसिकता के अनुरूप हिंगलिशिया आकार दिया है। बीच-बीच अँग्रेजी के शब्दों को रोमन में लिखा गया है। हिंदी के अनेक प्रयोग जो व्याकरणिक दृष्टि से गलत हैं लेकिन आम बोलचाल में प्रचलित हैं, उनका धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है, जैसे वो। इस उपन्यास की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उपन्यास  बिलकुल पुराने, घिसा हुए विषय पर आधुनिक शैली में लिखा गया है।   

इसकी पृष्ठभूमि में बनारस है, लेकिन इसमें बनरसीपन का पूर्णतः अभाव है। इसका कारण बहुत साफ है। वह यह कि लेखकीय मानसिकता ठेठ बनारसी नहीं है, वह आयातीत है या लेखक खाँटी बनारसी नहीं बन पाया है। क्योंकि उपन्यास में कचौरी-जलेबी की महक और गंगा की घाटों और कुछ गलियों के सिवा वैसा कुछ उभरा नहीं है, जिससे बनारस की भाषा और भूगोल को समझा जा सके। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह आज के कनवेंट कल्चर के लिए एक उत्साही प्रयास है।

इसकी कथा शैली भी वैसी ही है जैसे तुलसीदास ने राम कथा कहने सुनने की प्रक्रिया में ही पूरा रामचरित मानस तैयार कर दिया। इसमें भी सागर और भक्ति के प्रेमकथा को गंगा के उस पार रेत पर पूरे मनोयोग से सागर ने सारिका को सुनाया है। अन्य सहयोगी पात्र की भूमिका में राजू हैं।

मुख्य बात यह है कि इस उपन्यास की पूरी कथा का अधिकतम हिस्सा कृत्रिम (आर्टिफिसियल) और नितांत सतही है। वह वास्तविकता से बहुत दूर है। माँ को इसमें बड़े आराम से लेखक ने सागर को एक आज्ञाकारी-संस्कारी बालक बनाने की आड़ में नाहक ही खलनायक बना दिया है, जबकि वास्तव में बनारस जैसे शहर की मानसिकता इतनी संकीर्ण नहीं है, जैसा लेखक ने आदिम बना दिया है। समाज बहुत तेजी से बदला है लेकिन लेखक ने सागर को जिस तरह से माँ के सामने बिना कुछ कहे नतमस्तक कर दिया है, इसे हजम करना थोड़ा कठिन है। पिता के सामने ऐसा हो सकता था लेकिन माँ तो माँ होती है। अधिकतर जगहों पर तो ऐसे मामलों में माँ ही खेवनहार बनती है। सागर को लेखक ने जैसा भोला-भाला दिखाया है वह आज के युवाओं के लिए संदेहास्पद है, वह भी बनारसी युवा के लिए। मजे कि बात यह है कि पूरे उपन्यास में कहीं भी सागर और भक्ति का प्रेम सामाजिक संघर्ष का शिकार नहीं होता है और न ही परिवार के लोगों को इसकी खबर मिल पाती है और भक्ति-सागर घंटों बनारस की घाटों और शहरों में घूमते रहते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात है कि बनारस में इतनी सुंदर लड़की, जिसका लेखक ने पूरे मनोयोग से वर्णन किया है, उसके सौंदर्य को इत्मीनान से गढ़ा है, उसका कोई और प्रेमी न हो, सागर का उन प्रेम पुजारियों से सामना न हो, वे सागर और भक्ति के घर तक इस प्रेमकथा को पहुंचाए न—  इसे हजम करना बड़ा मुश्किल है।

लेखक ने पूरी कथा को एकरैखिक और व्यक्तिगत कथा बना दिया है, जबकि यह बहुआयामी (मल्टी डाइमेन्सनल) होने की भरपूर जगह थी। चूंकि विनोद दूबे युवा और उत्साही लेखक हैं, इसलिए अगली रचनाओं में इन कमियों को जरूर पूरा करेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कुलमिलाकर इस रचना में भरपूर सरसता है और नयी पीढ़ी इसे खूब पसंद भी करेगी। इसमें ज्यादातर युवाओं के जीवन का कुछ न कुछ हिस्सा उन्हें मिल ही जाएगा। इसलिए इसका पठनीय होना स्वाभाविक है। 

(30 सितंबर, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित)


स्वाधीनता आंदोलन का ऐतिहासिक गाँव गंगा में विलीन होने की ओर...

संतोष कुमार राय 


भारत में सरकारी व्यवस्था की उपेक्षा न तो नई बात है और न ही कोई नायाब चीज, लेकिन जब यह व्यवस्था देश के स्वर्णिम अतीत की अनदेखी करने लगती है तो आवाज उठाना स्वाभाविक हो जाता है। दरअसल यह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थिति देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भारत की बड़ी ग्राम पंचायतों में से एक शेरपुर के अस्तित्व का सवाल है। वैसे तो किसी भी गाँव का गंगा या किसी अन्य नदी में विलीन हो जाना उस गाँव के लोगों के लिए कितना कष्टकारी होता है इसका अनुमान लगाना कठिन है। उत्तर प्रदेश और बिहार के ऐसे अनेक गाँव हैं जो बरसात में नदियों की भेंट चढ़ जाते हैं और सरकारी अमला हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। अचानक से हँसता-खेलता गाँव, समाज नदी की भेंट चढ़ जाता है और एक झटके में पूरा गाँव बेघर हो जाता है। फिर शुरू होती है सरकारी सहायताओं के नाम पर असहाय करने वाली सुनियोजित लूट।

          शेरपुर ग्राम पंचायत का बड़ा हिस्सा, जिसकी हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन गंगा की कटान की भेंट चढ़ चुकी है। 1942 के आंदोलन में इस ग्राम पंचायत ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। इतिहास में दर्ज है कि 18 अगस्त 1942 को इस गाँव के आठ नौजवान शहीद हुए और अंग्रेजों को पूर्वांचल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस तरह के गौरवशाली अतीत गाँव आज अदद सरकारी सहायता के लिए असहाय की तरह गुहार लगा रहा है, जिसे पिछले कई वर्षों से सरकारी नुमाइंदों द्वारा नजरंदाज किया जाता रहा है। छोटी-छोटी योजनाओं में उलझाकर सरकारी अमला अपनी खानापूर्ति कर लेता है।

          दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ग्राम पंचायत में सिर्फ मतदाताओं की संख्या जो ग्रामपंचायत में दर्ज है वह 25 हजार से अधिक है, साथ ही इस ग्राम पंचायत के हजारों लोग अन्य शहरों में भी हैं। मोटे तौर पर अनुमानित वॉटर लगभग 40 हजार हैं। यानी पूरी ग्राम पंचायत से जुड़ी हुई जनसंख्या एक लाख के आस-पास होगी। ऐसी स्थिति यदि यह ग्राम पंचायत गंगा में गिर जाती है तो कितना नुकसान होगा। और बेघर लोग कहाँ जायेंगे। सरकारी लापरवाही का नतीजा यह है कि ग्राम पंचायत का एक हिस्सा सेमरा, जिसकी कुल आबादी 15 हजार से अधिक है, का ज़्यादातर हिस्सा और हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन गंगा में विलीन हो चुकी है। बेघर लोग दर दर की ठोकर खाने को मजबूर हैं। सेमरा के लोगों की बदहाली कल्पना से परे है। कटान में गाँव के गिरने के बाद जिन लोगों के पास दूसरी जगहों पर  पास जमीन बची थी उन्होंने तो जैसे तैसे झुग्गी-झोपड़ी में  रहने की व्यवस्था कर लिया, जिनके पास पैसे थे और जमीन नहीं थी वे आस-पास के गाँवों में जमीन खरीदकर बस गये, लेकिन एक बड़ा हिसा उन गरीब लोगों का है जिनके पास न तो जमीन है और न पैसे हैं। वे पिछले कई वर्षों से दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। कभी किसी प्राथमिक विद्यालय में, कभी किसी माध्यमिक विद्यालय में, कभी किसी इंटर कालेज में, कभी कस्बे की अनाज मंडी में तो कभी सड़कों के किनारे खुले आसमान के नीचे अपनी जिंदगी काट रहे हैं। प्रत्येक बरसात का मौसम इन गाँवों के लिए कहर की तरह आता है। हर साल गाँव का कुछ न कुछ हिस्सा जरूर गिरता है।


           हर बार चुनावी वादे में गाँव को बचाने के राजनीतिक वादे होते हैं। कुछ सहयोग भी होता है, बावजूद इसके गाँव गिर रहे हैं। कटान को रोकने के लिए अब तक कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया  गया है जिसे यहाँ उल्लिखित किया जाये। । ऐसा नहीं है कि इसकी ख़बर शासन-प्रशासन में बैठे देश और प्रदेश अधिकारोयोन और नेताओं को नहीं है। गाँव के लोगों अनेक बार देश और प्रदेश की सरकारों और मंत्रियों को लिखते रहे हैं, बताते रहे हैं लेकिन यह अनदेखी इस ऐतिहासिक गाँव के अस्तित्व को मिटाने की ओर ले जा रही है। इस ग्राम पंचायत के कटान की खबर जिलाधिकारी से लेकर देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सड़क परिवहन एवं जल संसाधन मंत्री, संचार व रेल राज्यमंत्री, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, लोकसभा क्षेत्र के सांसद व स्थानीय विधायक सहित ऐसी कोई जगह नहीं बची है जहां ग्रामीणों ने उम्मीद से गुयाहर नहीं लगाई है। लेकिन अभी तक ठोस काम के नाम पर हर जगह से सिर्फ आश्वसन मिला है।

          यहाँ समझने की बात यह है कि यह ग्राम पंचायत देश की एक बड़ी ग्राम पंचायत है, जिसके पास अपना कालेज, अनेक स्कूल, हास्पिटल जैसी सरकारी सम्पदा भी कम नहीं है। दूसरी ओर देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए मजबूत किसानों का क्षेत्र है। तीसरी और महत्वपूर्ण कि यह भारतीय इतिहास की धरोहर है। इसे बचाने की व्यवस्थित योजना नहीं बनी तो राष्ट्रीय आंदोलन का जीवंत स्मारक महज कुछ ही वर्षों गंगा में विलीन हो जाएगा और लाखों लोग बेघर और मजबूर हो जायेंगे। 


परंपरागत कृषि पर औपनिवेशिक मार

संतोष कुमार राय

 





एक जमाने में भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि होती थी। जिसकी अपनी वैश्विक पहचान यह थी कि वह बिना किसी बाहरी सहयोग के अपने भीतर से ही भरपूर, सात्विक और पौष्टिक उत्पादन का स्रोत पैदा करती थी। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेज भारत से जाने के बाद भी यहाँ की अर्थव्यवस्था पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए थे। यही कारण था कि भारतीय सरकारों को सहयोग की आड़ में साजिश परोसते रहे। मजे कि बात यह है कि उन सरकारों और अब उनके अनुयायियों की जमात इसे अपने गौरवपूर्ण कार्य के रूप में प्रस्तुत करती रही है। 

इसे समझने की आवश्यकता है कि इसमें औपनिवेशिक साजिश कहाँ और कैसे हुई? इसके मूल में हरित क्रांति ही है। आज जिस गैर रासायनिक खेती की वकालत की जा रही है इसकी सबसे उन्नत तकनीक भारत में विकसित थी। हरित क्रांति का भारत में आगमन जिन कारकों को आधार बनाकर हुआ उसमें उत्पादन क्षमता और बीज अहम कारक थे। लेकिन आज बड़े पैमाने पर हरित क्रांति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि हरित क्रांति ही आज के कृषि संकट का मूल आधार है।

यहाँ इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि आज के कृषि संकट के मूल में हरित क्रांति भूमिका कैसे रही? इस संदर्भ में इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत में पायी जाने वाली मिट्टी की पोषण क्षमता किस तरह के अनाजों के उत्पादन के अनुकूल रही है। मिट्टी की सेहत बढ़ाने के पारंपरिक उपाय किस तरह से पर्यावरण अनुकूल थे, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। यह औपनिवेशिक चाल ही थी कि अनेक विदेशी कंपनियों के द्वारा भारत के विरुद्ध सर्वे रिपोर्ट तैयार करवाकर लगातार भारत को पिछड़ा, भूखा, अविकसित और तकनीक विहीन घोषित करने की साजिश चलती रही, जिसे भारत कि सरकारें समझने में नाकाम रहीं हैं। परिणाम स्वरूप उन्हीं विदेशी संस्थानों से निकले हुए लोगों ने सबसे पहले भारतीय समाज पर अपने ज्ञान की धौंस को स्थापित किया तथा परंपरागत ज्ञान और तकनीक को पिछड़ा और गँवारू घोषित करने में लगे रहे। सरकारें और सरकारों में शामिल लोग बिना सोचे-समझे उनके सुझाओं को लागू करते रहे। उसी का परिणाम है रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाइयों और विदेशी बीजों का बड़े पैमाने पर प्रयोग। इसका बेतहासा प्रयोग उदारीकरण के बाद देखने को मिला। उदारीकरण के बाद की भागमभाग में भारत में कृषि क्षेत्र में निजी पूंजी का बड़े पैमाने पर निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के बाद हाईब्रिड प्रजातियों ने भारतीय बीजों को धीरे-धीरे नष्ट करते रहे। दुर्भाग्य है कि अभी तक इस दिशा में किसी भी तरह की स्थायी सरकारी योजना नहीं बनी है, जबकि आम जनमानस में जागरूकता आयी है लेकिन इस जनजागरुकता की सीधी टक्कर दुनिया की सबसे ताकतवर बीज कंपनियों से है। एक ओर पूंजीवादी समय की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और दूसरी ओर उनसे टक्कर लेते हुए असहाय छोटे किसानों का वित्त विहीन समुदाय। मजे की बात है कि देश के कोने कोने तक इन बीज कंपनियों की पहुँच हो गई है। इस क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर कंपनियों का जाल बिछ चुका है। मोनसेंटो इंडिया लिमिटेड, सिंजैंटा इंडिया लिमिटेड, पायनियर हाईब्रिड इंटरनेशनल इंक और बायर क्राप साइंस जैसी बड़ी वैश्विक कंपनियां बीज कारोबार में पूरी तरह जड़ जमा चुकी हैं। बेल्जियम, अमेरिका और उत्तरी कोरिया समेत कई देशों की कंपनियों ने बीज क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। एक आंकड़े के मुताबिक हाल के वर्षों में बीजों के आयात में भरी वृद्धि हुई है। 2014-15 में 22,292 टन, 2015-16 में 23,477 टन और 2016-17 में 21,064 टन बीजों का आयात किया गया। इसमें से अधिकतर फल, फूल, सब्जियों आदि के साथ अनाज के बीज शामिल हैं।

इसके दुष्परिणाम को समझने के लिए विदर्भ की वर्तमान हालत सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। विदर्भ पारंपरिक ज्वार के लिए अनुकूल क्षेत्र रहा है जबकि पिछले कुछ समय से बीटी कपास और सोयाबीन की खेती सर्वाधिक हो रही है। इसी तरह मोटे अनाज, दलहन और तिलहन पर भी इसका असर हुआ है लिहाजा स्वावलंबी खेती लगभग मिटने के कगार पर पहुँच गई है। इसका कारण यह है कि विदर्भ में 56 प्रतिशत उथली मिट्टी है जो देशी कपास के लिए सर्वोत्तम है। देशी बीजों से ये फसलें कम पानी में भी पैदा हो जाती थीं। सूखे की स्थिति में भी कुछ उपज हो ही जाता था। लेकिन बीटी कपास और सोयाबीन ने इस संतुलन को बिगाड़ दिया। बीटी कपास के महंगे बीजों से किसानों पर आर्थिक संकट का बोझ बढ़ गया। पहले सफेद सोना नाम से खूब बढ़ावा दिया गया जिसमें यह दावा भी था कि इससे इतना कपास पैदा होगा कि किसानों की आय में कईगुना वृद्धि हो जायेगी, साथ ही यह भी कहा गया कि इसमें कीट-पतंगों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन परिणाम सारे दावों के विपरीत आये। सैकड़ों सालों से संरक्षित देशी बीज लगभग समाप्त हो गये हैं और 95 प्रतिशत की हिस्सेदारी मोनसेंटों के बीजों का हो गया है। अपने बीजों को बचाने की दिशा में सरकार बहुत देर से सजग हुई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तहत राष्ट्रीय पौध आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो ने राष्ट्रीय जीन बैंक बनाया है, जिसके पास 1584 पौध प्रजातियों की 3,88,210 किस्में संरक्षित हैं। इन संरक्षित बीजों का उपयोग नए संकर किस्मों के विकास में हो रहा है। दुखद पहलू यह है कि इसकी गति बहुत धीमी है और इसकी चपेट में सिर्फ विदर्भ ही नहीं पूरा देश आ गया है, जिसके चंगुल से देश के किसानों को बाहर निकलना आसान नहीं है।

(19 अगस्त, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित)


पतंजलि फूड पार्क पर मेगा ड्रामा

 संतोष कुमार राय 

उत्तर प्रदेश का सरकारी तंत्र अपनी लचर कार्यशैली के लिए सुप्रसिद्ध है। इसबार इसका कोपभाजन बना पतंजलि फूड पार्क। पिछले मंगलवार को बाबा रामदेव के सहयोगी और पतंजलि एमडी आचार्य बालकृष्ण द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार से नाराजगी व्यक्त करते हुए मीडिया को यह सूचना दी गई कि नोएडा में बनने वाले फूड पार्क को कहीं और स्थानांतरित किया जायेगा। यह सूचना उन्होने केंद्र सरकार के उस आदेश के परिप्रेक्ष्य में दिया जिसमें केंद्र सरकार ने मेगा फूड पार्क के लिए जून तक का समय दिया था। उन्होने ट्वीट से यह जानकारी साझा करते हुए लिखा, “आज ग्रेटर नोएडा में केंद्रीय सरकार से स्वीकृत मेगा फूड पार्क को निरस्त करने की सूचना मिली। श्रीराम व कृष्ण की पवित्र भूमि के किसानों के जीवन में समृद्धि लाने का संकल्प प्रांतीय सरकार की उदासीनता के चलते अधूरा ही रह गया। पतंजलि ने प्रोजेक्ट को अन्यत्र शिफ्ट करने का निर्णय लिया। आचार्य बालकृष्ण ने ट्विटर पर इसकी एक प्रतिकात्मक तस्वीर भी साझा किया।

दरअसल पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क का शिलान्यास यूपी की समाजवादी पार्टी की सरकार में नवंबर 2016 में किया था। इसे 1666.8 करोड़ रुपए के निवेश से तैयार किया जाना था। ये फूड पार्क 455 एकड़ में बनना है और ऐसा दावा किया गया था कि इसके शुरू होने के बाद 8 हजार से ज्यादा लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिलेगा। अब ग्रेटर नोएडा में बाबा रामदेव का समूह केंद्र की खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की महत्वाकांक्षी योजना के तहत मेगा फूड पार्क लगाना चाहता है। उसके लिए समूह के पास अलग से कोई 50 एकड़ जमीन नहीं है। वह उस 455 एकड़ जमीन में से करीब 50 एकड़ पर मेगा फूड पार्क बनाना चाहती है। जरूरी शर्तें पूरा करने वाले समूह को केंद्र की ओर से मेगा फूड पार्क के लिए 150 करोड़ रुपए की सब्सिडी भी देने की योजना है। पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क को यूपी सरकार की ओर से 455 एकड़ जमीन देने का फैसला कैबिनेट की बैठक में लिया गया था और संबंधित आदेश के मुताबिक जमीन पर पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क बनना है। ऐसे में उसी जमीन के एक हिस्से पर मेगा फूड पार्क बनाने के लिए केंद्र से जरूरी मंजूरी और सब्सिडी हासिल करने के लिए पतंजलि को यूपी सरकार से इस बाबत आदेश और स्वीकृति की जरूरत है। यानी यूपी सरकार को कैबिनट से नया प्रस्ताव पास कराना होगा कि पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क के 455 एकड़ में से करीब 50 एकड़ मेगा फूड पार्क के लिए दिए जाते हैं। पतंजलि समूह बीते सवा साल से इसी आदेश को पाने की कोशिश कर रहा था। 

(फोटो- आचार्य बालकृष्ण के ट्विटर से)

मंगलवार की देर रात पतंजलि आयुर्वेद के एमडी आचार्य बालकृष्ण के एक कड़े ट्वीट ने उसकी राह महज कुछ ही घंटों बना दी। हुआ यूं कि आचार्य बालकृष्ण के ट्वीट को मीडिया की सुर्खिया बनते देर नहीं लगी। उसके बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने खुद इसे सुलझाने की घोषणा किया, साथही उन्होने बाबा रामदेव से बात कर इसे तत्काल हल करने के लिए आश्वस्त भी किया। उसके बाद से ही यूपी के सरकारी तंत्र में अविश्वसनीय तेजी आयी। मेगा फूड पार्क के लिए अलग से जमीन दिए जाने का प्रस्ताव कैबिनेट की बैठक के लिए बनाया जा रहा है जिसे 12 जून की कैबिनेट बैठक में पास कराने की तैयारी है। जिसमें यमुना औद्योगिक प्राधिकरण क्षेत्र में यूपी सरकार की ओर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड को पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क के लिए आवंटित जमीन में से करीब 86 एकड़ जमीन को पतंजलि समूह की ही एक और कंपनी पतंजलि फूड प्रोडक्ट्स को मेगा फूड पार्क बनाने के लिए स्थानांतरित किया जायेगा, बसर्ते कोई नया कानूनी पेंच नहीं फंसा तो।

इस पूरे प्रकरण ने उत्तर प्रदेश को उद्यमियों के लिए आकर्षक स्थान बनाने और औद्योगीकरण के लिए हर मुमकिन सहूलियतें देने के योगी सरकार के दावों को मजबूत कर दिया है। योगी सरकार ने कुछ महीने पहले इन्वेस्टर्स समिट के जरिए यह माहौल बनाने में कामयाबी पाई थी कि यूपी की छवि बदलेगी। पतंजलि प्रकरण से उत्तर प्रदेश की कार्यसंस्कृति अभूतपूर्व बदलाव और तेजी देखने को मिली है। प्रदेश के विकास और औद्योगीकरण के लिए इसे एक सकारात्मक कदम माना जाना चाहिए।

(17 जून, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित) 

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...