संतोष कुमार राय
‘इंडियापा’ लोकप्रिय कथा लेखन की अच्छी रचना है। वैसे तो लेखकीय घोषणा में इसे उपन्यास कहा गया है लेकिन यह सिर्फ उपन्यास नहीं है। यह आत्मकथा भी हो सकता है, संस्मरण भी हो सकता है। वर्तमान दौर कथा लेखन के लोकप्रिय शैली का दौर है और अँग्रेजी भाषा में यह आज के भारत में खूब पढ़ा जा रहा है। ‘इंडियापा’ भी हिंदी में इसी शैली का एक बेहतरीन प्रयास है, जिसमें रूमानियत भी है, उत्साह भी है, बचपना भी है, लगाव भी है, सम्मान भी है दुख भी है, उदासी भी है, निराशा भी है, आरोप-प्रत्यारोप भी है और भारतीय युवाओं के प्रेम की पारंपरिक परिणति प्रेम और विवाह का द्वंद्व भी है।
लेखक विनोद दूबे खुद
मर्चेंट नेवी में कैप्टन हैं और रचना का मुख्य पात्र सागर भी। ऐसा लगता है कि इस
रचना का ज्यादातर हिस्सा लेखक के जीवन के इर्द-गिर्द ही घूमता दिखाई दे रहा है।
सागर और भक्ति की प्रेम कथा की मोबाईल शुरुआत और वैवाहिक अंत ऐसी कोई नायाब चीज
नहीं है, जिस पर इससे पहले या इससे अलग कुछ नहीं लिखा गया है। लेकिन लेखक की यह
कोशिश सराहनीय है कि अच्छी हिंदी जानने समझने के बावजूद लेखक ने इसे आज की पीढ़ी की
मानसिकता के अनुरूप हिंगलिशिया आकार दिया है। बीच-बीच अँग्रेजी के शब्दों को रोमन
में लिखा गया है। हिंदी के अनेक प्रयोग जो व्याकरणिक दृष्टि से गलत हैं लेकिन आम
बोलचाल में प्रचलित हैं, उनका धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है, जैसे वो। इस उपन्यास की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उपन्यास बिलकुल पुराने, घिसा हुए
विषय पर आधुनिक शैली में लिखा गया है।
इसकी पृष्ठभूमि में
बनारस है, लेकिन इसमें बनरसीपन का पूर्णतः अभाव है। इसका कारण बहुत साफ है। वह यह
कि लेखकीय मानसिकता ठेठ बनारसी नहीं है, वह आयातीत है या
लेखक खाँटी बनारसी नहीं बन पाया है। क्योंकि उपन्यास में कचौरी-जलेबी की महक और
गंगा की घाटों और कुछ गलियों के सिवा वैसा कुछ उभरा नहीं है,
जिससे बनारस की भाषा और भूगोल को समझा जा सके। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह आज के
कनवेंट कल्चर के लिए एक उत्साही प्रयास है।
इसकी कथा शैली भी
वैसी ही है जैसे तुलसीदास ने राम कथा कहने सुनने की प्रक्रिया में ही पूरा रामचरित
मानस तैयार कर दिया। इसमें भी सागर और भक्ति के प्रेमकथा को गंगा के उस पार रेत पर
पूरे मनोयोग से सागर ने सारिका को सुनाया है। अन्य सहयोगी पात्र की भूमिका में
राजू हैं।
मुख्य बात यह है कि
इस उपन्यास की पूरी कथा का अधिकतम हिस्सा कृत्रिम (आर्टिफिसियल) और नितांत सतही
है। वह वास्तविकता से बहुत दूर है। माँ को इसमें बड़े आराम से लेखक ने सागर को एक
आज्ञाकारी-संस्कारी बालक बनाने की आड़ में नाहक ही खलनायक बना दिया है, जबकि वास्तव में बनारस जैसे शहर की मानसिकता इतनी संकीर्ण नहीं है, जैसा लेखक ने आदिम बना दिया है। समाज बहुत तेजी से बदला है लेकिन लेखक ने
सागर को जिस तरह से माँ के सामने बिना कुछ कहे नतमस्तक कर दिया है, इसे हजम करना थोड़ा कठिन है। पिता के सामने ऐसा हो सकता था लेकिन माँ तो
माँ होती है। अधिकतर जगहों पर तो ऐसे मामलों में माँ ही खेवनहार बनती है। सागर को
लेखक ने जैसा भोला-भाला दिखाया है वह आज के युवाओं के लिए संदेहास्पद है, वह भी बनारसी युवा के लिए। मजे कि बात यह है कि पूरे उपन्यास में कहीं भी
सागर और भक्ति का प्रेम सामाजिक संघर्ष का शिकार नहीं होता है और न ही परिवार के
लोगों को इसकी खबर मिल पाती है और भक्ति-सागर घंटों बनारस की घाटों और शहरों में
घूमते रहते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात है कि बनारस में इतनी सुंदर लड़की, जिसका लेखक ने पूरे मनोयोग से वर्णन किया है, उसके
सौंदर्य को इत्मीनान से गढ़ा है, उसका कोई और प्रेमी न हो, सागर का उन प्रेम पुजारियों से सामना न हो, वे सागर
और भक्ति के घर तक इस प्रेमकथा को पहुंचाए न—
इसे हजम करना बड़ा मुश्किल है।
लेखक ने पूरी कथा को एकरैखिक
और व्यक्तिगत कथा बना दिया है, जबकि यह बहुआयामी (मल्टी
डाइमेन्सनल) होने की भरपूर जगह थी। चूंकि विनोद दूबे युवा और उत्साही लेखक हैं, इसलिए अगली रचनाओं में इन कमियों को जरूर पूरा करेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कुलमिलाकर इस रचना में भरपूर सरसता है और नयी
पीढ़ी इसे खूब पसंद भी करेगी। इसमें ज्यादातर युवाओं के जीवन का कुछ न कुछ हिस्सा
उन्हें मिल ही जाएगा। इसलिए इसका पठनीय होना स्वाभाविक है।
(30 सितंबर, 2018 के
युगवार्ता में प्रकाशित)
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