खेती न किसान को भिखारी को न भीख, बलि...


सन्तोष कुमार राय
            भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सर्वसम्मत भूमिका निभाने वाले लोगों में स्वतंत्रता के बाद अगर किसी को सर्वाधिक नजरंदाज किया गया है तो वे भारत के किसान हैं। किसी भी देश के विकास को तब तक विकास नहीं कहा जा सकता जब तक कि उस देश के अन्नदाताओं की समस्याओं का मुकम्मल समाधान न हो। यह दौर किसानों की हत्या बनाम आत्महत्या का है। यह दौर किसानों के स्वाभिमान को कुचलने का है। यह दौर ईमानदारी की निलामी का है। यह दौर मानवता के चरम क्षरण का है। आज किसानों की बड़े पैमाने पर हत्या हो रही है, या यूं कहें कि भारत का सत्ताधारी वर्ग पूँजीपतियों के साथ मिलकर ऐसी साजिश रच रहा है जिसमें फंसकर किसान तड़प-तड़प कर दम तोड़ दें। देश आजाद हुआ और किसानों ने इसमें उस हद तक सहयोग किया जहाँ वे लगभग बर्बाद हो गये। अपनी बर्बादी की परवाह किए बिना किसानों ने भारत के स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई लड़ी। लेकिन आजादी के बाद यह देश दलालों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चला गया। अब जरूरत है दूसरे स्वाधीनता की लड़ाई की जिससे किसानों के अधिकारों की रक्षा हो सके, उन्हें वह वाजिब अधिकार और सम्मान मिल सके जिसके वे हकदार हैं।
            यह देश कृषि प्रधान देश है। हमारी संस्कृति कृषि जीवन पर आधारित है। कृषि हमारे लिए सिर्फ पेट भरने का साधन मात्र नहीं है। वह हमारी संस्कृति है, हमारी सभ्यता है, हमारी जीवन शैली है, हमारी अस्मिता है, और हमारा स्वाभिमान है। हमें उस पर गर्व है। कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने अपना आम बजट संसद में पेश किया जिसमें उन्होने देश के विकास में आर्थिक मदद करने वाले क्षेत्रों की हिस्सेदारी का खाका प्रस्तुत किया और यह बताया कि हमारे वार्षिक विकास में कृषि क्षेत्र की भूमिका बहुत कम है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सहयोग में सर्वाधिक भूमिका औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले पूँजीपतियों की है। अगर यह पूछा जाय कि औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग खाते क्या हैं, तो क्या उनका जवाब क्या होगा? यह कितनी बड़ी अदूरदर्शी और मूर्खतापूर्ण नीति है जिसमें जीवन की प्रमुख जरूरत की तुलना औद्योगिक उत्पादों से होती है जिनके बिना भी जीवन संभव है। अगर तुलना की ही बात है तो वह तुलना सिर्फ एक, दो या पाँच-दस साल की नहीं होनी चाहिए। पिछले सौ-दो सौ सालों की तुलना करिये और फिर बताइये कि इस देश में कृषि क्षेत्र की क्या भूमिका रही है।
            किसानों के हितों की रक्षा के लिए जिस लड़ाई की शुरुआत स्वामी सहजानंद ने शुरू किया उसका अवसान भी उनके अवसान के साथ ही हो गया। स्वतंत्र भारत के नए शासक भी बहुत हद तक औपनिवेशिक शोषण की प्रणाली में ही दीक्षित हुए थे। इसलिए देश की कमान हाथ में आने के बाद उनके स्वभाव और कार्यशाली में भी वही मादकता आ गई जो मादकता उनके पूर्ववर्ती शासकों में थी। अपने समय की भयावहता को ध्यान में रखकर जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन होता है। वहीं भारतीय राजनीति और नेताओं को देखकर धूमिल ने लिखा कि, कुर्सियाँ वही हैं, बस टोपियाँ बादल गईं हैं। भारत का सत्ताभोगी वर्ग लगातार किसानों की परेशानियों से खुद को दूर करता चला जा रहा है। आजादी के बाद की पहली पीढ़ी का शासन काल कुछ-कुछ किसान चेतना से प्रभावित लगता है। उसका कारण यह है कि उस पीढ़ी में अनेक नेता ऐसे थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनमें से अधिकतर किसान परिवारों से थे। जैसे-जैसे इस देश का तथाकथित विकास (मैं आज के विकास को विकास नहीं मानता क्योंकि यह इस देश की नब्ज के साथ भेदभाव अधिक हुआ है विकास कम।) होता गया या यह कहा जाय कि जैसे-जैसे इस देश में दोयम दर्जे की राजनीतिक का विकास होता गया वैसे-वैसे आम लोगों का शोषण और अधिक बढ़ता गया।
            आज किसानों का भविष्य अंधकार में है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस अंधकार को और सघन किया जा रहा है जिससे किसी भी तरह का प्रतिरोध न हो। पिछले चौदह-पन्द्रह वर्षों से इस देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसानों की दशा बहुत अच्छी थी, बिलकुल भी नहीं। किसान इससे पहले भी शोषित था और आज भी शोषित है। दरअसल भारत में जब से नवपूंजीवाद का आगमन हुआ है तब से किसानों का जीवन और कठिन हो गया है। वैसे तो किसानों के उपर मुगल काल से लेकर अंग्रेजों तक सभी ने कड़ा रूख ही अख्तियार किया है और जिससे जितना बन पड़ा है शोषण किया है या जिसको जितनी जरूरत रही है उतना शोषण किया है। इसी तरह के शोषण की एक बानगी मध्यकालीन कवि तुलसीदास ने व्यक्त किया है। उन्होंने अपने समय की भयावहता को इन शब्दों में व्यक्त किया है “खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी, जीविकाविहीन लोग सद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों कहाँ जाई, का करी....।” यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी, और जब लोकतंत्र आया तब भी, किसान शोषण से मुक्त नहीं हुए। दरअसल किसान विश्व का एक ऐसा समाज है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असम्भव है, फिर भी हमारे यहाँ प्रकारांतर से किसान उपेक्षा के शिकार होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। इस उपेक्षा और अपमान का उदाहरण है हमारे देश के किसानों की आत्महत्या।
            किसानों की आत्महत्या के दस्तावेज़ जबसे उपलब्ध हैं, अगर आज के संदर्भ में उसे ही आधार बनाया जाय तो भी हमारी बात स्पष्ट हो जायेगी। उदाहरण के तौर पर विदर्भ, बुंदेलखंड, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु को देखा जा सकता है, जहां कुछ जागरूक लोगों के द्वारा किसानों की आत्महत्या को पहली बार 1997-98 में रिकार्ड में दर्ज करवाया गया। उसके बाद से आज तक किसानों की आत्महत्या में लगातार बढ़ोत्तरी ही हुई है और यह बद्स्तूर जारी है। ऐसा नहीं है कि इस ओर सरकार का ध्यान नहीं गया है, गया भी है और कई तरह के कर्जमाफी की राजनैतिक-अवसरवादी घोषणाएं भी हुई हैं, पर इसमें कोई अंतर नहीं आया है। आज देश के किसान जिस व्यवस्था में खड़े हैं उसमें आत्महत्या कोई बड़ी बात नहीं है। इसके सिवा और कोई रास्ता उनके पास अपनी अस्मिता की रक्षा का नहीं है। किसानों की आत्महत्या के जिन कारणों पर बात होती है उनमें गरीबी, महँगाई आदि तो है ही जिस पर बहुतों ने लिखा है। एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण और भी है जो आज के अति-गतिमान समय में बहुत से लोगों के लिए हास्यास्पद के सिवा और कुछ भी नहीं है, लेकिन किसान संस्कृति और जीवन के लिए उससे बड़ा कुछ भी नहीं है और वह है अपनी मर्यादा और अस्मिता की रक्षा। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनमें से एक बड़ा भाग ऐसा भी है जिसने अपनी मर्यादा की रक्षा न कर पाने की वजह से अपनी जान गवाई है। यहाँ हमें प्रेमचंद का गोदान याद आता है जिसमें एक किसान को किस तरह से मजदूर बना दिया जाता है और लगातार अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए जूझता हुआ मर जाता है। मैं गोदान में होरी की मृत्यु को इस व्यवस्था के द्वारा की गई हत्या मानता हूँ। उदाहरण के लिए विदर्भ की एक घटना को देखा जा सकता है। दरअसल, किसानों की आत्महत्या के जो प्रमुख कारण हैं उनमें कृषि से होने वाले पैदावार में लगातार आने वाली कमी भी है। उसके बाद किसानों की मूल समस्या कर्ज की है, जो फसल के नुकसान हो जाने पर वे ब्याज पर पैसा देने वालों से लेते हैं। इस देश में व्यक्तिगत तौर पर मिलने वाला कर्ज एक व्यवसाय का रूप धारण कर चुका है जो प्रशासन के अवैध संरक्षण में खूब फल फूल रहा है। इस तरह के कर्ज में फंसने के बाद फिर बाहर निकलना बहुत कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिनों पहले विदर्भ का एक किसान तीस हजार रुपये का कर्ज न देने के कारण आत्महत्या कर लिया। इस पर कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि इतने कम पैसे के लिए कोई आत्महत्या क्यों करेगा? जब इसका पता लगाया गया तो पता चला कि उसने कर्ज तीन साल पहले लिया था जब उसकी कपास की फसल बर्बाद हो गयी थी। वह खेती से होने वाली आमदनी से उसका ब्याज चुकाता रहा लेकिन सेठों का मूलधन वैसा ही बना रहा। कर्ज का ब्याज चुकाने की वजह से वह अपने परिवार का भरण-पोषण भी बड़ी मुश्किल से कर पा रहा था। ब्याज की एक किस्त न दे पाने की वजह से एक दिन सेठ पैसा मांगने उसके घर आ गया और गाँव के सभी लोगों के सामने उसकी पत्नी और बच्चों को भला-बुरा कहने लगा। उस किसान को जब इसका पता चला तो शर्म के मारे घर नहीं आया और अपने खेत पर ही आत्महत्या कर लिया। इसका कारण कर्ज तो था ही, साथ में वह अपमान भी था जो इस अनैतिक और मूल्यहीन समाज ने उसे दिया। दरअसल इसे बताने का उद्देश्य यह है कि भारत अगर अपनी नैतिकता के लिए जाना जाता है तो वह इन्हीं गांवों में बची हुई है। वैश्विक परिदृश्य में जिस भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है वह किसी पूंजीपति के घर नहीं पैदा हुई थी। उस संस्कृति का विकास इन्हीं किसानों के घर हुआ था। आज के समाज में थोड़ी बहुत मानवता और नैतिकता अगर बची हुई है तो वह इस किसानों के यहाँ ही है। लेकिन आज का आधुनिकतावादी समाज उस नैतिक मूल्यों को लगातार समाप्त करने पर तुला हुआ है और वह दिन दूर नहीं जब चारों ओर अनैतिकता और असभ्यता का बोल बाला होगा।
            आज यह किसी को भी नहीं पता है कि आने वाले घंटे में कितने किसान आत्महत्या कर लेंगे। यदि आत्महत्या के आंकडों पर नजर डाली जाय तो आज के किसानों की स्थिति समझ में आयेगी। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पहली बार 1997 में इसे रिकार्ड में दर्ज किया गया। उसके अनुसार 1997-98 में छ: हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। यह सिलसिला 2006 से 2008 के बीच भयानक बढ़ गया और पूर्व की तुलना में पचास प्रतिशत से भी ज्यादा की बृद्धि हुई। 2008 में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विदर्भ दौरा भी हुआ और किसानों के हित में कई घोषणाएं भी हुई लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उस समय के लोकसभा चुनाव में यूपीए के नेताओं ने इन घोषणाओं को पानी पी-पीकर गिनाया और भुनाया, लेकिन किसानों की यह दरूण दशा लगातार बढ़ती रही और आज तक उसे रोका नहीं जा सका। इसका प्रभाव घटने के बजाय अन्य प्रांतों के किसानों पर भी पड़ा, मसलन बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी छिटपुट खबरें आयीं। इन आत्महत्याओं के रिकार्ड के संदर्भ में सरकार के अपने स्रोत हैं जो किसी वर्ष संख्या को बढ़ा देते हैं तो किसी वर्ष घटा देते हैं लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आज विदर्भ का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों के अनाथ बच्चों की चित्कार न गूंजती हो। इधर एक  चिंताजनक बात यह भी आयी है कि आज से दस साल पहले जिन किसानों ने आत्महत्या किया था अब उनकी नयी पीढ़ी भी उसी कार्य को करने के लिए अभिशप्त है।
       हमारे यहाँ आत्महत्या जैसे कृत्य को बहुत हेय माना गया है लेकिन पश्चिम में इसे कुछ लोगों ने बहादुरी का कार्य माना है और उनके यहाँ इसे विरोध के एक हथियार के रूप में भी देखा गया है। किसानों की स्थिति उपरोक्त में से कोई भी नहीं है, क्योंकि न तो वे कोई हेय कृत्य करना चाहते हैं और न ही वे बहादुरी का मरणोपरांत पुरस्कार चाहते हैं। असल में वे इस बर्बर व्यवस्था के हाथों मजबूर होकर आत्महत्या करते हैं। क्योंकि आदमी जीवन और समाज से जब हार जाता है तभी इस तरह का कार्य करता है। यहाँ सारी लड़ाई भूख की है। भूख मनुष्य को कितना निरीह, कमजोर और मूक बना सकती है इसका अदांजा सहज रूप से नहीं लगाया जा सकता। हम सोच सकते हैं कि पचीस हजार या पचास हजार जैसी छोटी रकम के कर्जदार आत्महत्या क्यों करेंगे? वे जिस देश में रहते हैं उसका अगर इतिहास लिखा जायेगा तो निश्चित तौर पर वह घोटालों और भ्रष्टाचार का अभी तक का सर्वोत्तम उदाहरण होगा। मूल्यहीनता के ऐसे परिवेश में यदि किसानों के पास कोई रास्ता नहीं रहेगा तो वे क्या करेंगे? आज किसानों के साथ खड़ा होने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा है। आज कोई स्वामी सहजानंद जैसा किसान हितैषी नहीं है। यह समस्या किसानों के सामने बहुत बड़ी है कि उनकी समस्या को कौन सुनेगा और उसे वे किसे सुनायेगे ?  समाज में प्रत्यक्ष रूप से काम करने वाला दो वर्ग है। पहला वर्ग राजनेताओं का है तथा दूसरा वर्ग कुछ उन पेशेवर समाज चिंतकों का है जो इस तरह के लोगों की मदद करने की बजाय उसे लगातार जिंदा रखना चाहते हैं जिससे उन्हें सेवा करने का कोई भारी भरकम पुरस्कार मिले और उनकी दुकान चलती रहे। अभी तक जो आंकड़े कुछ समाज कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सरकारी दस्तावेज के रूप में मौजूद है उनके अनुसार पिछले 14 वर्षों में सिर्फ विदर्भ में यह संख्या पचास हजार से अधिक है।
            उपर्युक्त दोनों कारणों के अतिरिक्त तीसरा कारण है लगातार बढ़ती हुई महँगाई। आज से दस साल पहले तक वही किसान खेती बारी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर लेते थे लेकिन आज वे असमर्थ हैं। इसका कारण सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही नहीं है। इसका कारण उनके ऊपर लगातार लादी जाने वाली मंहगाई भी है जो उन्हें आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर कर रही है। क्योंकि यह इसी देश में हो सकता है कि जब प्याज किसान के पास नहीं होता है तो अस्सी रुपये किलो के भाव से बिकता है और जब किसान के पास होता है तो कोई आठ रुपये भी नहीं पूछता है। किसानों के लिए इस देश में कोई भी वेतन आयोग की सिफारिस नहीं की जाती ऐसे में क्या उन्हें अपने पैदावार का उचित मूल्य नहीं मिलना चाहिए, यह सवाल खुद को किसानों का हितैषी बताने वाली सरकार के लिए भी है। यह गिनाने से कुछ नहीं होने वाला है कि हमने यह किया और वह किया। सरकार का काम ही है देश को सुरक्षा देना। असल में सरकार जो कुछ भी करती है वह भी अपनी संपूर्णता में लोगों को नहीं मिलता है। आज यह भी जरुरत है कि सरकार द्वारा की गयी सहायता को जरुरतमंद लोगों तक पहुँचाया जाय। हमारा देश चाहे जितना आधुनिक हो जाय अगर हमारे देश के किसान आत्महत्या करते रहेंगे तो ऐसी आधुनिकता और विकास कम से कम हमारे देश के उन लोगों के लिए व्यर्थ ही सिद्ध होगा जिनका जीवन कृषि आधारित है, क्योंकि हमारे यहाँ आज भी आधे से अधिक आबादी कृषि से अपना गुजारा करती है। इसलिए आज हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारे किसान बचें और कृषि संस्कृति भी को भी बचाया जाय तभी विकास की असली अर्थवत्ता सिद्ध होगी। किसी भी देश का विकास सिर्फ देश के मुट्ठी भर लोगों के विकास से तय नहीं होता, उसके लिए जरूरी है कि देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखा जाय। भारत में भी विकास का कुछ ऐसा ही पैमाना दिखाया जा रहा है जो एक खास वर्ग के विकास को दर्शाता है। आज भी भारत के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। पिछले दस वर्षों से इस देश में किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। देश के विभिन्न हिस्सों के हजारों किसान आत्महत्या कर लिए लेकिन सरकार की ओर से कोई भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया गया जो किसानों तक पहुंचे और उन्हें राहत पहुंचा सके। दरअसल हमारे देश में इस तरह की समस्याओं को लगातार दबाने की कोशिश की जाती है जिससे सरकार और प्रशासन पर किसी तरह के आरोप न लगे।

            पिछले बजट में सरकार की ओर से किसानों के लिए कई राहत पैकेज की घोषणा की गई लेकिन अभी तक उसका असर किसानों के आम जन जीवन पर दिखाई नहीं दे रही है। केंद्र और राज्य के बीच में आखिर ये किसान क्यों पीस रहे हैं? अगर केंद्र सरकार की ओर से इस तरह के बजट की घोषणा होती है तो उसे किसानों तक पहुँचाने की व्यवस्था भी केंद्र को करना चाहिए। इस तरह के विवादों में उलझने के बाद आम आदमी क्या कर सकता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की बदहाली कैसी है इससे केंद्र अंजान नहीं है। महाराष्ट्र के विदर्भ की क्या हालत है इससे पूरा विश्व वाकिफ है कि यहाँ के कितने किसानों ने इस दुर्व्यवस्था के चलते जान दे दी और अभी भी यह सिलसिला थमा नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या विश्व के किसी भी क्षेत्र से अधिक है। आखिरकार इस आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? किसानों की इस दुर्दशा के लिए सरकार की कोई ज़िम्मेदारी बनती है या नहीं? हमारी व्यवस्था अपने नैतिक दायित्वों से कब तक पीछे हटती रहेगी? क्या इस देश में आत्महत्या करने वाले किसान अधिकार विहीन हैं? क्या उनकी समस्या इस देश की समस्या नहीं है? क्या वे सिर्फ वोट देने तक सीमित हैं? अब यह समय आ गया है कि किसानों को स्पष्ट किया जाय। सरकार को अब किसानों की समस्याओं को देश की मुख्य समस्या में शामिल करना होगा। किसानों की रक्षा सरकार का कर्तव्य है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। किसान इस देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हैं,साथ ही किसानों की रक्षा के द्वारा ही इस देश की कृषि संस्कृति की रक्षा हो सकती है। किसानों के विकास को अनदेखा करके देश के विकास की परिकल्पना अधूरी है। देश के विकास को प्रतिशत में बताने से देश की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जनता पर तभी प्रभाव पड़ेगा जब उनका जीवन आसान होता है। सरकार की नीतियों में शामिल राहत योजनाओं का संपूर्ण लाभ किसानों को मिले इसका ध्यान प्रशासन को रखना होगा, अन्यथा किसी भी कागजी योजना का कोई मतलब नहीं है। 

भारतीय श्रम की अनवरत उपेक्षा

सन्तोष कुमार राय
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित 
          यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जहां हर छोटी बड़ी घटनाओं में लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, वहाँ का श्रमिक वर्ग लगातार उपेक्षा का शिकार होता रहा है। आज यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि श्रमिकों के जीवन का आधार क्या है? कहने के लिए जब देश विकास के न जाने कितने पायदान ऊपर चढ़ चुका है ऐसे में इस देश का श्रमिक वर्ग उपेक्षित क्यों है? उन लोगों की पूंजी क्या है? उनके पास किस प्रकार की पूंजी है? और जो है उसे किस कोटि में रखा जाय? चल या अचल? असल में श्रमिकों के पास श्रम के अलावा कोई भी चल-अचल संपत्ति नहीं होती है। लेकिन जब उसकी उचित कीमत नहीं मिलती है तब गरीब मजदूर या तो भूख से तड़फड़ा कर मर जाता है या फिर आत्महत्या कर लेता है।  आज भारत के श्रमिक वर्ग की हालत पर किस तरह से बात की जाय यह बहुत ही कठिन है। दरअसल स्वतन्त्रता के बाद से लेकर आज तक भारत में श्रमिकों के लिए न तो कोई उपयुक्त कानून बना और न ही कोई ऐसा कदम उठाया गया, जिससे उन्हें उनके किए का उचित मूल्य सही समय पर मिले। पिछले दिनों भारत में श्रम मंत्रालय का 44वां श्रम सम्मेलन हुआ जिसका समापन भाषण प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने दिया था। पिछले सात-आठ वर्षों से प्रधानमंत्री भारत के विकास दर को बढ़ाने की बात करते आ रहे हैं। इस सम्मेलन में भी उन्होंने इसे बढ़ाकर नौ प्रतिशत तक ले जाने की बात की। आज एक मौजू सवाल है कि यह बढ़ी हुई विकास दर का जो पैमाना लगातार दिखाया जा रहा है उससे इस देश के श्रमिकों को क्या लाभ होगा? दूसरा यह कि अगर नौ की जगह अठारह प्रतिशत ही विकास दर हासिल कर ले तो क्या वे अपने शोषण और जहालत भरी जिंदगी से बाहर निकल जाएँगे? उस सम्मेलन के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि सरकार की चिंता श्रमिकों के हित में लगातार बनी हुई है और यह उम्मीद की जा सकती है कि आगे भी बनी रहेगी, लेकिन इसका परिणाम क्या होगा यह अभी तक अंधकार में है और आगे भी अंधकार में ही रहने की संभावना है।
          मजदूरों के अधिकारों को लेकर विश्व में कई बार आंदोलन हुए हैं और मार्क्स जैसे बड़े चिंतकों का लेखन ही इसी पर केन्द्रित और इसे ही समर्पित रहा है। लेकिन आज इस विकास की दौड़ में उन्हें लगभग उपेक्षित कर दिया गया है जिनके लिए कभी सर्वाधिक चिंता व्यक्त की जाती थी। भारत जैसे बड़े देश में जहाँ श्रमिकों की बड़ी तादात है, ऐसे देश में भी उनके हक की बात करने से सत्ताधारी वर्ग कतराता है, बावजूद इसके आज का शासक वर्ग लगातार दंभ भर रहा है कि वह पहले से अधिक मानव रक्षक और मनवातावादी है। इस तरह के जुमले अक्सर राजनीतिक सभाओं में सुनने को मिलते रहते हैं, लेकिन भारत में श्रमिकों की स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। सरकार भारतीय श्रम को किस रूप में देख रही है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है।
          किसी भी देश और समाज का विकास मुट्ठीभर लोगों के विकास और जीवन शैली पर आधारित नहीं होता, वह संपूर्ण समाज के विकास का हिमायती होता है। आज का भारतीय समाज गैर सरकारी क्षेत्रों में काम कर रहे श्रमिकों के प्रति बहुत ही संकीर्ण और दोहरा बर्ताव कर रहा है। सरकार भी उनके लिए उदासीन ही है। अभी तक कोई ऐसा प्रवाधान नहीं है जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि नीजी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर अधिकतम कितने घंटे काम करेंगे। घरेलू मजदूर, भारी काम करने वाले मजदूर, और विभिन्न कार्यालयों में काम करने वाले मजदूरों के लिए किसी भी तरह का प्रावधान नहीं है। ऐसे में हम सरकार की नियत और कर्म पर कैसे विश्वास करें कि वह आम लोगों की हितैषी है। समाज के विकास की जैसी दलील दी जा रही है वह कहीं से भी स्पष्ट नहीं है कि यह विकास किस वर्ग को आधार बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। जहां तक मैं समझता हूँ किसी भी देश या समाज के विकास का पैमाना उस देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखकर ही गढ़ा जाता है लेकिन यहाँ तो बिलकुल उल्टा है। यहाँ मुट्ठीभर लोगों की विकसित हैसियत के आधार पर इसका निर्धारण किया जाता है और उसे सभी के ऊपर थोप दिया जाता है। आज सरकार और विपक्ष दोनों को इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस देश की श्रमिक जनता का भी समुचित विकास हो सके। 


सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...