भारतीय श्रम की अनवरत उपेक्षा

सन्तोष कुमार राय
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित 
          यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जहां हर छोटी बड़ी घटनाओं में लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, वहाँ का श्रमिक वर्ग लगातार उपेक्षा का शिकार होता रहा है। आज यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि श्रमिकों के जीवन का आधार क्या है? कहने के लिए जब देश विकास के न जाने कितने पायदान ऊपर चढ़ चुका है ऐसे में इस देश का श्रमिक वर्ग उपेक्षित क्यों है? उन लोगों की पूंजी क्या है? उनके पास किस प्रकार की पूंजी है? और जो है उसे किस कोटि में रखा जाय? चल या अचल? असल में श्रमिकों के पास श्रम के अलावा कोई भी चल-अचल संपत्ति नहीं होती है। लेकिन जब उसकी उचित कीमत नहीं मिलती है तब गरीब मजदूर या तो भूख से तड़फड़ा कर मर जाता है या फिर आत्महत्या कर लेता है।  आज भारत के श्रमिक वर्ग की हालत पर किस तरह से बात की जाय यह बहुत ही कठिन है। दरअसल स्वतन्त्रता के बाद से लेकर आज तक भारत में श्रमिकों के लिए न तो कोई उपयुक्त कानून बना और न ही कोई ऐसा कदम उठाया गया, जिससे उन्हें उनके किए का उचित मूल्य सही समय पर मिले। पिछले दिनों भारत में श्रम मंत्रालय का 44वां श्रम सम्मेलन हुआ जिसका समापन भाषण प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने दिया था। पिछले सात-आठ वर्षों से प्रधानमंत्री भारत के विकास दर को बढ़ाने की बात करते आ रहे हैं। इस सम्मेलन में भी उन्होंने इसे बढ़ाकर नौ प्रतिशत तक ले जाने की बात की। आज एक मौजू सवाल है कि यह बढ़ी हुई विकास दर का जो पैमाना लगातार दिखाया जा रहा है उससे इस देश के श्रमिकों को क्या लाभ होगा? दूसरा यह कि अगर नौ की जगह अठारह प्रतिशत ही विकास दर हासिल कर ले तो क्या वे अपने शोषण और जहालत भरी जिंदगी से बाहर निकल जाएँगे? उस सम्मेलन के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि सरकार की चिंता श्रमिकों के हित में लगातार बनी हुई है और यह उम्मीद की जा सकती है कि आगे भी बनी रहेगी, लेकिन इसका परिणाम क्या होगा यह अभी तक अंधकार में है और आगे भी अंधकार में ही रहने की संभावना है।
          मजदूरों के अधिकारों को लेकर विश्व में कई बार आंदोलन हुए हैं और मार्क्स जैसे बड़े चिंतकों का लेखन ही इसी पर केन्द्रित और इसे ही समर्पित रहा है। लेकिन आज इस विकास की दौड़ में उन्हें लगभग उपेक्षित कर दिया गया है जिनके लिए कभी सर्वाधिक चिंता व्यक्त की जाती थी। भारत जैसे बड़े देश में जहाँ श्रमिकों की बड़ी तादात है, ऐसे देश में भी उनके हक की बात करने से सत्ताधारी वर्ग कतराता है, बावजूद इसके आज का शासक वर्ग लगातार दंभ भर रहा है कि वह पहले से अधिक मानव रक्षक और मनवातावादी है। इस तरह के जुमले अक्सर राजनीतिक सभाओं में सुनने को मिलते रहते हैं, लेकिन भारत में श्रमिकों की स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। सरकार भारतीय श्रम को किस रूप में देख रही है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है।
          किसी भी देश और समाज का विकास मुट्ठीभर लोगों के विकास और जीवन शैली पर आधारित नहीं होता, वह संपूर्ण समाज के विकास का हिमायती होता है। आज का भारतीय समाज गैर सरकारी क्षेत्रों में काम कर रहे श्रमिकों के प्रति बहुत ही संकीर्ण और दोहरा बर्ताव कर रहा है। सरकार भी उनके लिए उदासीन ही है। अभी तक कोई ऐसा प्रवाधान नहीं है जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि नीजी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर अधिकतम कितने घंटे काम करेंगे। घरेलू मजदूर, भारी काम करने वाले मजदूर, और विभिन्न कार्यालयों में काम करने वाले मजदूरों के लिए किसी भी तरह का प्रावधान नहीं है। ऐसे में हम सरकार की नियत और कर्म पर कैसे विश्वास करें कि वह आम लोगों की हितैषी है। समाज के विकास की जैसी दलील दी जा रही है वह कहीं से भी स्पष्ट नहीं है कि यह विकास किस वर्ग को आधार बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। जहां तक मैं समझता हूँ किसी भी देश या समाज के विकास का पैमाना उस देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखकर ही गढ़ा जाता है लेकिन यहाँ तो बिलकुल उल्टा है। यहाँ मुट्ठीभर लोगों की विकसित हैसियत के आधार पर इसका निर्धारण किया जाता है और उसे सभी के ऊपर थोप दिया जाता है। आज सरकार और विपक्ष दोनों को इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस देश की श्रमिक जनता का भी समुचित विकास हो सके। 


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