परंपरागत कृषि पर औपनिवेशिक मार

संतोष कुमार राय

 





एक जमाने में भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि होती थी। जिसकी अपनी वैश्विक पहचान यह थी कि वह बिना किसी बाहरी सहयोग के अपने भीतर से ही भरपूर, सात्विक और पौष्टिक उत्पादन का स्रोत पैदा करती थी। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेज भारत से जाने के बाद भी यहाँ की अर्थव्यवस्था पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए थे। यही कारण था कि भारतीय सरकारों को सहयोग की आड़ में साजिश परोसते रहे। मजे कि बात यह है कि उन सरकारों और अब उनके अनुयायियों की जमात इसे अपने गौरवपूर्ण कार्य के रूप में प्रस्तुत करती रही है। 

इसे समझने की आवश्यकता है कि इसमें औपनिवेशिक साजिश कहाँ और कैसे हुई? इसके मूल में हरित क्रांति ही है। आज जिस गैर रासायनिक खेती की वकालत की जा रही है इसकी सबसे उन्नत तकनीक भारत में विकसित थी। हरित क्रांति का भारत में आगमन जिन कारकों को आधार बनाकर हुआ उसमें उत्पादन क्षमता और बीज अहम कारक थे। लेकिन आज बड़े पैमाने पर हरित क्रांति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि हरित क्रांति ही आज के कृषि संकट का मूल आधार है।

यहाँ इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि आज के कृषि संकट के मूल में हरित क्रांति भूमिका कैसे रही? इस संदर्भ में इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत में पायी जाने वाली मिट्टी की पोषण क्षमता किस तरह के अनाजों के उत्पादन के अनुकूल रही है। मिट्टी की सेहत बढ़ाने के पारंपरिक उपाय किस तरह से पर्यावरण अनुकूल थे, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। यह औपनिवेशिक चाल ही थी कि अनेक विदेशी कंपनियों के द्वारा भारत के विरुद्ध सर्वे रिपोर्ट तैयार करवाकर लगातार भारत को पिछड़ा, भूखा, अविकसित और तकनीक विहीन घोषित करने की साजिश चलती रही, जिसे भारत कि सरकारें समझने में नाकाम रहीं हैं। परिणाम स्वरूप उन्हीं विदेशी संस्थानों से निकले हुए लोगों ने सबसे पहले भारतीय समाज पर अपने ज्ञान की धौंस को स्थापित किया तथा परंपरागत ज्ञान और तकनीक को पिछड़ा और गँवारू घोषित करने में लगे रहे। सरकारें और सरकारों में शामिल लोग बिना सोचे-समझे उनके सुझाओं को लागू करते रहे। उसी का परिणाम है रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाइयों और विदेशी बीजों का बड़े पैमाने पर प्रयोग। इसका बेतहासा प्रयोग उदारीकरण के बाद देखने को मिला। उदारीकरण के बाद की भागमभाग में भारत में कृषि क्षेत्र में निजी पूंजी का बड़े पैमाने पर निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के बाद हाईब्रिड प्रजातियों ने भारतीय बीजों को धीरे-धीरे नष्ट करते रहे। दुर्भाग्य है कि अभी तक इस दिशा में किसी भी तरह की स्थायी सरकारी योजना नहीं बनी है, जबकि आम जनमानस में जागरूकता आयी है लेकिन इस जनजागरुकता की सीधी टक्कर दुनिया की सबसे ताकतवर बीज कंपनियों से है। एक ओर पूंजीवादी समय की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और दूसरी ओर उनसे टक्कर लेते हुए असहाय छोटे किसानों का वित्त विहीन समुदाय। मजे की बात है कि देश के कोने कोने तक इन बीज कंपनियों की पहुँच हो गई है। इस क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर कंपनियों का जाल बिछ चुका है। मोनसेंटो इंडिया लिमिटेड, सिंजैंटा इंडिया लिमिटेड, पायनियर हाईब्रिड इंटरनेशनल इंक और बायर क्राप साइंस जैसी बड़ी वैश्विक कंपनियां बीज कारोबार में पूरी तरह जड़ जमा चुकी हैं। बेल्जियम, अमेरिका और उत्तरी कोरिया समेत कई देशों की कंपनियों ने बीज क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। एक आंकड़े के मुताबिक हाल के वर्षों में बीजों के आयात में भरी वृद्धि हुई है। 2014-15 में 22,292 टन, 2015-16 में 23,477 टन और 2016-17 में 21,064 टन बीजों का आयात किया गया। इसमें से अधिकतर फल, फूल, सब्जियों आदि के साथ अनाज के बीज शामिल हैं।

इसके दुष्परिणाम को समझने के लिए विदर्भ की वर्तमान हालत सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। विदर्भ पारंपरिक ज्वार के लिए अनुकूल क्षेत्र रहा है जबकि पिछले कुछ समय से बीटी कपास और सोयाबीन की खेती सर्वाधिक हो रही है। इसी तरह मोटे अनाज, दलहन और तिलहन पर भी इसका असर हुआ है लिहाजा स्वावलंबी खेती लगभग मिटने के कगार पर पहुँच गई है। इसका कारण यह है कि विदर्भ में 56 प्रतिशत उथली मिट्टी है जो देशी कपास के लिए सर्वोत्तम है। देशी बीजों से ये फसलें कम पानी में भी पैदा हो जाती थीं। सूखे की स्थिति में भी कुछ उपज हो ही जाता था। लेकिन बीटी कपास और सोयाबीन ने इस संतुलन को बिगाड़ दिया। बीटी कपास के महंगे बीजों से किसानों पर आर्थिक संकट का बोझ बढ़ गया। पहले सफेद सोना नाम से खूब बढ़ावा दिया गया जिसमें यह दावा भी था कि इससे इतना कपास पैदा होगा कि किसानों की आय में कईगुना वृद्धि हो जायेगी, साथ ही यह भी कहा गया कि इसमें कीट-पतंगों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन परिणाम सारे दावों के विपरीत आये। सैकड़ों सालों से संरक्षित देशी बीज लगभग समाप्त हो गये हैं और 95 प्रतिशत की हिस्सेदारी मोनसेंटों के बीजों का हो गया है। अपने बीजों को बचाने की दिशा में सरकार बहुत देर से सजग हुई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तहत राष्ट्रीय पौध आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो ने राष्ट्रीय जीन बैंक बनाया है, जिसके पास 1584 पौध प्रजातियों की 3,88,210 किस्में संरक्षित हैं। इन संरक्षित बीजों का उपयोग नए संकर किस्मों के विकास में हो रहा है। दुखद पहलू यह है कि इसकी गति बहुत धीमी है और इसकी चपेट में सिर्फ विदर्भ ही नहीं पूरा देश आ गया है, जिसके चंगुल से देश के किसानों को बाहर निकलना आसान नहीं है।

(19 अगस्त, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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