संतोष कुमार राय
नई
शिक्षा नीति स्वागत योग्य है. भारतीय शिक्षा व्यवस्था में यह बहुप्रतीक्षित बदलाव
हुआ है. वैसे तो यह बदलाव आज से बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन देर से ही सही
यह सही दिशा में बदलाव हुआ है. इससे पहले 1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति आयी थी जिसका
1992 में विस्तार हुआ. लेकिन यह शिक्षा नीति ऐसी नहीं बन पायी जिससे शिक्षा के
समग्र विकास का स्वरूप परिलक्षित हो सके. इस शिक्षा नीति में शिक्षा का उद्देश्य
सिर्फ साक्षर बनाना नहीं बल्कि शिक्षित व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास है. एक ओर
प्राथमिक शिक्षा को विद्यार्थी की बुनियाद से जोड़ना और उसकी विशिष्ट क्षमताओं का
विकास करना है, वहीँ उच्च शिक्षा में कुछ नए मानकों को शमिल करके विषय विशेषज्ञता
और आधुनिक शिक्षा के वैश्विक रूप को अंगीकार करते हुए शिक्षा प्रक्रिया को
जनोन्मुख बनाने पर जोर दिया गया है. यहाँ सवाल उच्च शिक्षा से जुड़े हुए कुछ
मुद्दों का ही है जन्हें लेकर संदेह की स्थिति बनी हुआ है.
उच्च
शिक्षा में सबसे बड़ा सवाल भाषा का है. भाषा को लेकर नई शिक्षा नीति में भी बहुत
ढुलमुल रास्ता अपनाया गया है. वास्तव में यहाँ कठोर रास्ता अपनाते हुए एक
व्यवस्थित दिशा निर्देश जारी करना चाहिए था. लेकिन ऐसा न करते हुए और शिक्षा नीति
में भाषा के सवाल को लेकर होने वाले विवादों से पीछा छुड़ाते हुए इस मुद्दे पर
संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेद का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि जबरन किसी
पर कोई भी भाषा थोपी नहीं जा सकती. फिर सवाल जस का तस बना हुआ है कि आखिरकार भारत
में उच्च शिक्षा की वास्तविक भाषा का दर्जा किसे दिया जाएगा? और भाषा के बिना
शिक्षा का कोई महत्त्व भी है क्या? भाषा का सवाल स्वाधीन भारत के सबसे पुराने और विवादित
सवालों में से एक है जबकि यह सबसे बड़ा सवाल है जिसका निपटारा करने में सरकार चूक
गई. यह बहुत अच्छा अवसर था जिसे शिक्षा के साथ जोड़कर बहुत आसानी से हल किया जा
सकता था. लेकिन इसी के साथ भाषा को लेकर जिस संवैधानिक पक्ष को इसमे शामिल किया
गया है क्या वाही उच्च शिक्षा पर भी लागू होगा? क्या उच्च शिक्षा में हिंदी को
बढ़ावा दिया जायेगा? क्या सामाजिक विषयों तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हिंदी
में अध्ययन, अध्यापन और शोध को भारतीय संस्थानों में सहज अनुमति मिलेगी? अभी तक की
स्थिति को देखते हुए यह कहना बहुत गलत नहीं होगा कि कभी नहीं. फिर प्रारंभिक
शिक्षा में मातृभाषा पर जिस तरह से जोर देने और मातृभाषा को प्रारंभिक शिक्षा की
भाषा के रूप में स्वीकृत करने का क्या अर्थ रह जायेगा.
इस
शिक्षा नीति का उद्देश्य भारतीय शिक्षा व्यवस्था को वैश्विक शिक्षा व्यवस्था के
सामानांतर खड़ा करने की है. लेकिन कोई भी देश जिसने शिक्षा में ऊंचाई हासिल की है उसकी
अपनी भाषा का बहुत बड़ा योगदान है. फिर भारतीय शिक्षाविदों को यह समझ में क्यों
नहीं आया कि जिस तरह से प्रारंभिक शिक्षा में भाषा के बुनियादी रूप को तरजीह देने
की कोशिश हुई वैसे ही उच्च शिक्षा और शोध की भाषा को भी एक व्यवस्थित रास्ता दे
दिया जाय. दरअसल यह शिक्षा नीति अभी भी अधजल गगरी के छलकाव जैसी ही है. और इसकी
पूर्णता अभी ताका के मौसौदे आधार पर संदिग्ध है.
इस
शिक्षा नीति में सबसे अच्छा बदलाव मंत्रालय के नाम का हुआ है. पिछले तीन-चार दशकों
से शिक्षा और मनुष्य दोनों को जिस तरह से संसाधन बनाया गया था उससे बनाने वाले की
मुर्खता का अंदाजा लगाया जा सकता है. यहाँ यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होना
चाहिए कि पिछले सात दशकों में जिन दो बुनियादी क्षेत्रों को नजरंदाज किया गया है
उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य है. शिक्षा में सर्वाधिक उपेक्षित पक्ष भाषा ही रही है.
इस नीति में भी जिन पक्षों का कहीं उलेख नहीं है उनमें उच्च शिक्षा की भाषा, सामाजिक
शिक्षा, नैतिक शिक्षा और शारीरिक और व्यावहारिक शिक्षा. पुस्तकीय और विषयी अवधारणा
पर भरपूर जोर होने का बाद भी बहुत कुछ है जो खाली लग रहा है. वैश्विक स्वरूप को
अपनाना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपनी बुनियाद को खोने की शर्त पर अपनाना ठीक नहीं
है. इसका यह मतलब कत्तई नहीं निकाला जाना
चाहिए कि नई शिक्षा नीति में कुछ भी नया ठीक नहीं है। बहुत कुछ है जिससे शिक्षा की
स्थिति में बहुत बड़े और सार्थक बदलाव की उम्मीद छिपी है. स्कूली स्तर पर मातृभाषा
को महत्त्व देना इस नीति की बहुत बड़ी पहल है. इसमें मातृभाषा को महत्व मिला है।
उच्च
शिक्षा में दूसरी बड़ी व्यवस्था विषय चयन के बदलाव और क्रेडिट सिस्टम का है. यह बहुत
पहले हो जाना चाहिए था. लेकिन देर से ही सही यह दुरुस्त बदलाव है. लेकिन इसके साथ
जो संकट है वह भी कम नहीं है. एक ओर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में बहुत सरलता से
इसे लागू कराया जा सकता है तो वहीं राज्यों के कम संसाधन या लगभग संसाधन विहीन
विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इसे कैसे लागू कराया जाएगा, यह बहुत बड़ा
प्रश्न है. जहाँ तक अध्यापक- विद्यार्थी का अनुपात एक-तीस रखा गया है ऐसे में उन
ग्रामीण महाविद्यालयों का क्या होगा जहाँ पांच सौ से एक हजार विद्यार्थियों पर एक
ही अध्यापक हैं.
दूसरी
ओर अनेक ऐसे महाविद्यालय हैं जहाँ बहुत कम विषयों की मान्यता ही मिली हुई है
अर्थात वहां रूचि के अनुसार विषय चुनने का विकल्प ही मौजूद नहीं है, ऐसे में इस
शिक्षा नीति को लागू करा पाना बहुत आसन नहीं दिखता. अध्यापक न्युक्तियों में जिस
तरह का भ्रष्टाचार पूरे देश स्तर पर पांव पसारे हुए है, उसमें योग्य अध्यापक चुनना
किस्त सहज और सरल होगा. इस पूरी नीति में कहीं भी प्रशासनिक अकर्मण्यता के लिए
कहीं एक शब्द भी नहीं लिखा गया है. कहीं भी इसका भी उल्लेख नहीं है कि सरकार इसे
लागू कराने का प्राथमिक स्रोत होगा लेकिन द्वितीयक और अन्य इसके स्रोत
विश्वविद्यालय और महाविद्यालय ही होंगे. इससे पहले जैसी कार्यशैली विश्वविद्यालयों
में देखने को मिली है क्या उसे देखते हुए इसके लागू होने पर आशंका नहीं व्यक्त की
जा सकती. इस शिक्षा नीति का धरातल पर न उतरने की स्थिति में जिम्मेदारी कैसे तय
होगी, होगी भी या नहीं इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है. ऐसा लगता है जैसे नीति
नियंताओं ने पूर्व के नाकारेपन से आंखे चुराते हुए यह नीति बनाई है. किसी भी नीति
को लागू करने में उसके निर्धारकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है.
कुल
मिलाकर यह शिक्षा नीति ऊपर से देखने में तो बहुत अच्छी और साफ-सुथरी दिख रही है
लेकिन इसकी सफलता और असफलता फिलहाल भविष्य की गोद में है. साथ ही इसे लागू करने
में आने वाली अड़चनों का भी पिटारा अभी खुल नहीं पाया है. इसलिए हमें बिना निराश
हुए इसकी सफलता की उम्मीद करनी चाहिए, साथही यह भी सोचना चाहिए कि इसमें जो आवश्यक
चीजें छूट गई हैं, उन्हें भी इसमें शामिल किया जायेगा. अंत यह कि यदि यह मुकम्मल
लागू हो जाती है तो भारत की शिक्षा व्यवस्था किसी भी देश को टक्कर दे सकती है.
(9
अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)
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