ग्रामीण नयन में राम... (मर्यादा पुरुषोत्तम का मर्यादित समाधान)

संतोष कुमार राय

 


महाकवि तुलसीदास ने लिखा है कि ‘रामहि केवल प्रेम पियारा’. यह प्रेम ही है जो भगवान राम के भक्तों का उनके प्रति गहरी आस्था और अगाध श्रद्धा का परिचायक है. भारत का ग्रामीण समुदाय गोस्वामी तुलसीदास की आँखों से भगवान राम को देखता है. रामचरितमानस वह ग्रन्थ है जिसने भगवान राम को आम जनमानस के हृदय में कई सदियों से स्थापित किया है. दरअसल पिछले पांच शतक से भगवान राम की जन्मभूमि के प्रति अगाध और अटूट श्रद्धा का केंद्र भी यह ग्रन्थ ही है. वैसे तो भारत में भगवान राम को लेकर तीन सौ से अधिक रामायण लिखे गए हैं लेकिन रामचरितमानस की लोकप्रियता अद्भुत है. सामान्यतः इन सभी का विषय एक ही है. वह यह कि भगवान राम के मर्यादित जीवन का चित्रण. आज जब राम मंदिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के कर-कमलों से हुआ तो अपने इष्ट के प्रति वह असाधारण प्रेम ग्रामीण समुदाय की आँखों में ढाल के पानी की तरह उतर आया. एक ओर शिलापूजन करते हुए भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री और उनका साथ देते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को गदगद हृदय से आशीर्वाद देते ग्रामीण समुदाय को अलौकिक एहसास हो रहा था तो दूसरी ओर बहुप्रतीक्षित राम मंदिर का शिलान्यास ग्रामीण आँखों के लिए किसी सपने के पूरा होने जैसा ही था.

यह शिलान्यास कोई साधारण शिलान्यास नहीं था, बल्कि यह भारतीयों के लिए असाधारण और अलौकिक अनुभूति का समय था. भगवान राम के मंदिर तो हजारों हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. जिस तरह दुनिया में कैथोलिक ईसाईयों के लाखों चर्च और मुसलमानों की लाखों मस्जिदें हैं,लेकिन ईसाईयों के लिए वेटिकन सिटी और मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना एक ही है. उसी तरह दुनिया में भगवान श्रीराम के मंदिर अनेक हो सकते हैं लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. राम मंदिर का महत्व समस्त भारतीयों के लिए है. यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक धरोहर है. यही कारण है इस ऐतिहासिक दिन पर समस्त भारतीयों से खुले मन से प्रसन्नता व्यक्त की.

वैसे तो राम जन्मभूमि का आंदोलन बहुत लम्बा चला है लेकिन इस संदर्भ में जब हमने ग्रामीण समुदाय से बात की तो उनका कहना था कि हमें यह उम्मीद थी कि एक दिन हमारे भगवान अपने भव्य मंदिर में जरुर जायेंगे. उसका कारण यह है कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो देर से ही सही जाएंगे मर्यादित तरीके से ही. हुआ भी बिलकुल वैसा ही. राम मंदिर के दर्शन की ललक हृदय में समाये कई पीढियां गुजर गईं. रामभक्तों की वह पीढ़ी, जो अब अपने जीवन के अंतिम दिन की ओर बढ़ रही है, उसने 1980 के बाद के सभी आन्दोलनों को इसी आस में बहुत करीब से देखा और जिया है कि एक दिन रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होंगे. शिलान्यास को देखते हुए उन सभी की आँखों से झर-झर अश्रु वर्षा हो रही थी और हृदय में अद्भुत आह्लाद उठ रहा था, ठीक वैसे ही जैसे भगवान राम वनवास से लौटकर जब अयोध्या आये थे तो अयोध्यावासियों में जैसी खुशी थी वैसी ही खुशी आम जनमानस में देखने को मिली. उन लोगों को ऐसा लग रहा था जैसे उनका जीवन धन्य हो गया और उनकी सांसें बस इसी दिन के लिए रुकी हुई थीं. ऐसे अनेक लोग मिले जिन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर किया.

जन्मभूमि आंदोलन आस्था का आंदोलन था. उसमें शामिल ओगों से जब हमने इस सन्दर्भ में बात की तो उनका कहना था कि हम अपनी आस्था के लिए गए थे, वहाँ कोई लड़ाई लड़ने नहीं गए थे. लड़ाई तो अंग्रेजों से लड़ ही चुके थे. हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और अपनी वैश्विक पहचान को स्थापित करने के लिए गए थे. आज जब हम अपनी आस्था को स्थापित होते हुए देखेते हैं तो हमें अपने नेतृत्व पर अटूट विश्वास पैदा होता है. ठीक है इसका समाधान न्यायलय द्वारा हुआ लेकिन उसके लिए जिन लोगों ने प्रयास किया, जिन लोगों ने इसका समाधान निकालने का संकल्प किया, निश्चित तौर पर वे कोरोड़ों आस्थावान लोगों के आशीर्वाद के पात्र हैं. स्वाधीनता के बाद ही इसका त्वरित समाधान होना चाहिए था लेकिन लोगों ने इसका खूब राजनीतिकरण किया. जबकि ऐसे मामले किसी एक धर्म, संप्रदाय या विचारधारा के नहीं होते. ये मामले सांस्कृतिक प्रतिष्ठा के होते हैं. वर्तमान नेतृत्व को धन्यवाद देते हुए  लोगों ने एक स्वर में कहा कि यह वह नेतृत्व है जिसने दबाई हुई सांस्कृतिक पहचान और प्रतिष्ठा को उसकी वास्तविक जगह दिलाई.

इस सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण सवाल ग्रामीण समुदाय के सामने रखा तो उसका जैसा सकारात्मक उत्तर मिला वह वास्तव में संतोष देने वाला था. जब मैंने पूछा कि कई लोगों का मानना है कि इस शिलान्यास में संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों को शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि यह शुद्ध रूप से धार्मिक मामला था. ग्रामीण मानस से जो हमें उत्तर मिला वह वास्तव में दृष्टि विस्तार करने वाला था. वह यह कि यह सांस्कृतिक कार्य है और सांस्कृतिक कार्य राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं करेगा तो कौन करेगा. विश्व के सामने हम कैसा उदहारण प्रस्तुत करेंगे. क्या हमारा चरित्र क्षद्म और ढोंगी हो गया है? क्या हम अपने सांस्कृतिक आस्था के प्रतीक को विश्व जन समक्ष हमारा प्रधानमंत्री नहीं रखेगा तो, रखेगा कौन? इसी डरपोकपन की वजह से तो अभी तक इसे रोका गया था. हम न्याय के मंदिर में किसकी शपथ लेते हैं. क्या उसका संबंध धर्म और संस्कृति से नहीं है. लोकतंत्र में नेतृत्वकर्ता की आस्था का केंद्र जनता होती है. जनता के द्वारा चुना गया प्रतिनिधि यदि जनता के मनोभावों के अनुकूल कार्य नहीं करेगा तो उसको पद पर बने रहने का कोई भी नैतिक अधिकार नहीं है. यह कार्य राष्ट्रीय अस्मिता और प्रतिष्ठा का कार्य था इसलिए राष्ट्रीय नेतृत्व के हाथों संपन्न हुआ. इस पर जो लोग सवाल खड़े करेंगे उन्हें राष्ट्रीयता और संस्कृति की समझ नहीं है.

ये सारी बातें ऐसी बातें थीं जिनका संबंध किसी तरह के व्यक्तिगत लाभ हानि से नहीं था. ग्रामीण समाज भारतीय संस्कृति का संरक्षक और पोषक समाज है. भारत की सांस्कृतिक चेतना गाँवों में ही विकसित हुई है. सभ्यता के जितने भी चरण विकसित हुए हैं उनका संबंध गाँवों से ही है. इसीलिए इस मुद्दे पर ग्रामीणों की राय का अलग महत्त्व है. शहर की एक निर्धारित गति होती है. वह उससे नीचे नहीं चल सकती लेकिन गाँव अपने ठहराव के लिए जाने जाते हैं. यही ठहराव भारत की वैश्विक पहचान का परिचायक है. विश्व के शहरों का रहन-सहन एक जैसा हो सकता है, शहरों की बनावट एक जैसी हो सकती है. क्योंकि हमेशा विकसित शहरों की तर्ज पर ही अविकसित शहरों का विकास किया जाता है.  लेकिन हर गाँव की अपनी व्यक्तिगत पहचान होती है. उसके अपनी जीवन शैली होती है. इसलिये विश्व के गाँव कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते. यही कारण है कि भाषा, संस्कृति और समाज को देखने-समझने का नजरिया बिल्कुल अलग होता है. इसीलिए भगवान राम के मंदिर के शिलान्यास को ग्रामीण समुदाय ने बहुत अलग तरह से लिए. उसके लिए यह धर्म का नहीं पहचान और प्रतिष्ठा का विषय था.

इस तरह से ग्रामीण समुदाय ने शिलान्यास को लेकर खुशी व्यक्त किया. अब उसे अपनी पहचान को दिखने-बताने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा. भारतीय समाज के संस्कृति पुरुष भगवान श्रीराम अब मंदिर में होंगे जहाँ से विश्व समुदाय प्रेरणा ग्रहण करेगा. साथ ही इससे समानता, सहृदयता और विश्व बंधुत्व का सन्देश भी विश्व समुदाय में गया है. धर्म, संस्कृति और समाज दबाने के नहीं उसे स्थापित करने के विषय हैं. इसलिए यह स्थापना नए भारत के नए युग की स्थापना है.

(16 अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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