सन्तोष कुमार राय
यथावत में प्रकाशित 
          ‘उठ जाग मुसाफिर प्रख्यात साहित्यकार विवेकी राय द्वारा विरचित ललित निबंध संग्रह है। इस संग्रह में कुल दस निबंध संकलित हैं जो अपने कलेवर में जीवन और जगत के अनेक अनुभवों से परिपूर्ण हैं। विवेकी राय हिंदी जगत के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने ग्रामीण जीवन के यथार्थ को अपने साहित्य का आधार बनाया। वे जिस अंचल में रहते हैं वह अंचल ही उनके साहित्य का प्रेरणा स्रोत है, वही शब्द है, वही छंद है, वही राग है और वही साज और आवाज है। वहाँ की बोली-बानी, तीज-त्योहार, रहन-सहन, दुख-दर्द, आशा-निराशा, छल-छद्म को वहाँ की सामाजिक पहचान के साथ, उसकी तह तक जाकर अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। यह निबंध संग्रह उनके रचनात्मक विकास का बहुत ही महत्वपूर्ण चरण है। जिस तरह से उन्होंने अपने अनुभवों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति अपने कथा-साहित्य में की है उसी तरह से अनुभव के लालित्य को इन निबंधों में अत्यंत रोचक तरीके से व्यक्त किया है। ग्रामीण जीवन का लालित्य यहाँ चिंता के रूप में भी आया है।
          विवेकी राय उम्र के 88वें वर्ष में भी साहित्य-सर्जना को उसी लगन के साथ पुष्पित-पल्लवित कर रहे हैं जिस लगन के साथ उन्होने साहित्य की दुनिया में पहला कदम रखा था। इस निबंध-संग्रह को समझने के लिए विवेकी राय के साहित्यिक सफर को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस संग्रह के निबंध अनेक जगहों पर इनके पूर्ववर्ती साहित्य की ओर झाँकने के लिए विवश कर देते हैं। हिंदी उपन्यास लेखन में विवेकी राय का आविर्भाव बबूल (1967) के साथ होता है। उसके बाद पुरुषपुराण’, लोकऋण’, श्वेतपत्र’, सोना माटी’, समर शेष है’, मंगल भवन और अमंगलहारी के रूप में उनके कथा लेखन का विस्तृत परिक्षेत्र विकसित हुआ है। इन सभी उपन्यासों का यहाँ उल्लेख करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उठ जाग मुसाफिर के निबंध भी किसी न किसी रूप में इन उपन्यासों से जुड़ते हैं और यही एक सुचिंतित साहित्यकार की संवेदनात्मक गहराई होती है। ऐसा लगता है जैसे यह निबंध संग्रह उनके कथा लेखन के बृहद अनुभव का निचोड़ है। जिस तरह की सरसता इन निबंधो में है वह बिरले देखने को मिलती है। विवेकी राय मूलतः ग्रामीण जीवन से अभिप्रेरित साहित्यकार हैं। उनका संपूर्ण साहित्य ग्रामीण अनुभूतियों में रचा-बसा है। बबुल से लेकर उठ जाग मुसाफिर तक विवेकी राय की समर्थ और यथार्थवादी रचनात्मक दुनिया ही उनकी पहचान है। उठ जाग मुसाफिर में दस निबंध हैं जो लगभग समाप्त होती हुई इस साहित्यिक विधा के लिए पुनर्जीवन की तरह हैं।

          उठ जाग मुसाफिर का पहला निबंध मेरी दिनचर्या : कुछ आयाम है। यह निबंध किसी भी उस मनुष्य के जीवन के अनुभव का हिस्सा हो सकता है जिसके मन में अपनी जमीन के लिए अगाध सम्मान और प्रेम का भाव होगा। पाठक इसके हर हिस्से में खुद को, परिवार के किसी बुजुर्ग को, उसके मनोभावों को, उसकी सोच को देख सकता है। जिस तरह से नई पीढ़ी आधुनिकता के भागमभाग में बेचैन है और बुजुर्ग लगभग एकल और उपेक्षित जीवन की निराशा से जूझ रहे हैं, ऐसे में यह संग्रह हमें नए सिरे से अपने परिवेश को, अपने कर्तव्य को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। लेखक की ऊर्जा देखते बनती है, वे लिखते हैं, “मैं मुंह बिराती सी जर्जर दीवार नहीं हूँ। चिन्मय सत्य हूँ, रचनाकार हूँ, बाहर नहीं भीतर हूँ। और आत्मविश्वास का तो कहना ही क्या, मसलन--  “मेरा यह पड़ाव समय का जबर्दस्त सत्य है। यह समस्त भ्रम-तमस को फाड़कर आँखें खोल देता है।” इसके अनेक हिस्से ऐसे हैं जो पाठक की संवेदना को अनुभूति की उस गहराई तक ले जाते हैं जहां वह रचना में खुद के जीवन से एकाकार हो जाता है। दूसरा निबंध नमो वृक्षेभ्यः आंखे खोलने वाला है। एक वृक्ष को आधार बनाकर लिखा गया यह लेख उनके अध्ययन के विस्तार का से अवगत कराता है। इस निबंध को पढ़ते समय प्रसिद्ध ललित निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कुटज याद आता है।  एक वृक्ष आज की आवाज का अद्भुत मानवीकरण किया है। लिखते हैं, “ऐसा लग रहा है, यह पर्यावरण-विध्वंसकों की चुनौती को स्वीकार करता है, उनके विरुद्ध शंखनाद करता नया रुद्रावतार है, साक्षात रुद्र प्रतीक, जिसको यजुर्वेद के ऋषि ने बहुत पहले ठीक से जाना था और सम्मानित किया था, नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः।” उसके बाद उठ जाग मुसाफिर है। इस निबंध में एक अद्भुत कथात्मक लय दिखाई देती है। ऐसा लगता है अपने जीवन की इस लंबी यात्रा के अनुभव के हर क्षेत्र को इस निबंध में रचनाकार ने निचोड़कर रख दिया है। इसे पढ़ते हुए स्वानुभूति और सहानुभूति का सवाल भी सामने आ जाता है। साहित्य में सहानुभूति को प्रथम श्रेणी का नहीं माना जा रहा है। स्वानुभूति ही यथार्थ की अभिव्यक्ति का मानक बनती जा रही है। यह निबंध स्वानुभूति की अभिव्यक्ति का मानक हो सकता है। बानगी के लिए हम देखा सकते हैं। लिखते हैं, “कुसमय की साफ-सुथरी, सात्विक और सुवासित अभिव्यक्तियाँ व्यक्ति के जीवनव्यापी ऊंचे सोच और उत्कृष्ट चिंतनाभ्यास की फलश्रुति होती है। ऐसे जीवन-संबल वाला व्यक्ति राग रहित हो, तो मुक्त हास बिखेर सकता है। जिसको दुनिया जीवन की सांझ कहती है वह उसका प्रभात होता है। उस प्रभात शिखर से आवाज देता है उठ जाग मुसाफिर।” आगे के निबंधों में केना, ग्रीष्म बहार, ततः किम और तीनडँड़िया चोट से उभरा समय और सवाल हैं। तीनों के विषय अलग-अलग हैं लेकिन अभिव्यक्ति का विस्तार वही है। ज्ञान के अनेक छोर इस तरह से हिलोरे ले रहे है मानों हजारों नदियो का जल एक साथ एक जगह एकरूप हो रहा हो। उसके बाद के तीन निबंध---चिंता भारत के उजड़ते गाँवों की, गाँव पर बनाम गाँव में और सवाल जीवन का है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ये तीनों निबंध इस संग्रह के हृदय हैं। गाँव विवेकी राय के लेखन का केंद्र रहे हैं। यहाँ भी उन्होने इसके उजड़ने की चिंता को उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश की है। उनकी चिंता कुछ इस तरह व्यक्त हुई है—“लगता है, गाँव भीतर से उठकर सड़क पर आता जा रहा है। किसान दुकान बनाता जा रहा है। खेत में खड़ा है तो उसका चेहरा कुछ और तरह का है तथा सड़क पर कुछ और तरह का।” और वहीं जो सबसे बड़ी समस्या है कि, “किसानी मरी तो किसान कहाँ बचेगा?” इस तरह अनेक सवाल इस संग्रह में हैं जो हमें झकझोरने के लिए, हमें अंदर से हिला देने के लिए काफी हैं। उपन्यासकार के रूप में अपने रचनात्मक जीवन की शुरुआत करने वाले इस प्रतिभाशाली साहित्यकार ने ललित निबंध की विधा को भी अपेक्षित ऊंचाई दी है, लेकिन हिंदी की एकपक्षीय नगरीय बोध की आलोचना ने ग्रामीण बोध को स्वीकार नहीं किया। आज जिस तरह से गाँव उपेक्षित है उसी तरह से ग्रामीण लेखन भी। दोनों की अपनी सांस्कृतिक पहचान है। हिंदी की शास्त्रीय परंपरा में आचार्य अभिनव गुप्त ने लोक को साहित्य के आधार के रूप में परिभाषित किया है लेकिन आधुनिक आलोचकों के लिए लोक में रचा-बसा गाँव महत्वपूर्ण नहीं रहा। उन्होने भी पश्चिम को ही विचार का आधार समझा। फणीश्वरनाथ रेणु और विवेकी राय को छोड़कर अभी तक किसी भी कथाकार के पास ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि गाँव को उसकी संपूर्णता में अभिव्यक्त कर सके। इतिहास, लोक और साहित्य में  भी किसी न किसी रूप में जिंदा रहता है। जहां पुस्तकीय इतिहास मौन या असमर्थ हो जाता है वहाँ साहित्य में प्रकट तथ्य ही इतिहास ही प्रतिपूर्ति करते हैं। विवेकी राय जैसे साहित्यकार को अगर जीवित इतिहास कहा जाय तो यह उनके लिए बहुत ही सार्थक होगा।

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