संतोष कुमार राय
‘पद्मावती’ पर बनी फिल्म को लेकर जैसा विवाद चल रहा है यह किसी भी समाज, देश, कला, कलाकार और उद्योग
के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है। फिर भी विवाद है तो उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता, बल्कि उसकी वास्तविकता और विवाद में आने वाले लोगों की अपेक्षाओं को
समझना चाहिए। ऐसा क्यों है कि एक सामान्य सी फिल्म को लेकर आम जनमानस का एक बड़ा
हिस्सा नाराज है? यदि ठीक से इसे समझा जाये तो ये वही लोग
हैं जिनके प्रेम, लगाव और आकर्षण से भारतीय फिल्म उद्योग आज
बुलंदियों पर है। क्या उस समाज की बातों को नजरंदाज करना और अपनी बातों को जबरन
थोपना किसी भी कलाकार और फिल्मकार के लिए ठीक है? कला और
कलाकार का सम्मान ईश्वरीय तत्त्व के समकक्ष होता है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में
आज ढाई हजार वर्ष पूर्व इसकी सम्यक और समृद्ध व्याख्या हुई है। फिर ऐसा क्या है
जिसको लेकर आम जनमानस के मन में फिल्मों के प्रति इस तरह का क्षोभ और आक्रोश पैदा
हो रहा है? यह अनायास तो बिलकुल नहीं है। यदि सिनेमा को
सिर्फ उद्योग और मनोरंजन की दृष्टि से देखें तो इस तरह का विरोध किसी भी उद्योग के
लिए शत-प्रतिशत गलत है। लेकिन जैसे ही सिनेमा की सामाजिक और राष्ट्रीय पक्षधरता पर
ध्यान जाता है इस तरह का विरोध एकदम सही लगने लगता है।
दरअसल आज
सिनेमा, और न सिर्फ सिनेमा बल्कि धारावाहिक भी जहाँ खड़ा है,
अब वह सिर्फ उद्योग नहीं है। उसका दायरा बढ़ा है और बहुत अधिक बढ़ा है। अब भारतीय
सिनेमा सिर्फ क्षेत्रीय नहीं, वैश्विक हो गया है। जब किसी भी
सार्वजनिक प्रभाव के माध्यम का दायरा बड़ा हो जाता है तो उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी
भी बड़ी हो जाती है। सिनेमा देखने वाले सभी लोगों को मध्यकालीन इतिहास का ज्ञान
नहीं है। उन्हें वे तथ्य मालूम नहीं हैं जिनके साथ भारत की अस्मिता जुड़ी हुई है।
उन्हें मुसलमान शासकों की क्रूरता का एहसास नहीं है। उन्हें यह पता नहीं है कि
भारतीय मध्यकाल में भारत के लोगों को किस तरह के अपमान के घूंट पीने पड़े थे। ऐतिहासिक
फिल्में बनाना बहुत अच्छी बात है लेकिन फिल्मों के अनुसार इतिहास को बना लेना थोड़ा
असंगत है। अनेक फिल्में इतिहास की कथाओं को लेकर बनीं हैं और अनेक धारावाहिक भी
बने हैं लेकिन उसके समझदार लेखकों ने अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार कथाओं को
ले लिए बाकी सारे पात्रों और दृश्यों को फिल्म की आवश्यकता के अनुसार काल्पनिक बना
लिया। कई ऐसी भी फिल्में और अनेक धारावाहिक भी बने हैं जो इतिहास और मिथकों के
वास्तविक स्वरूप को ही स्थापित किए हैं और उनका बहुत सम्मान हुआ है। महाभारत और
रामायण इसके प्रमुख उदाहरण हैं। फिल्मों में 1857 को लेकर कई
फिल्में बनी, इतिहास के एक समय के आधार पर उमराव जान बनी, मुगले आजम, भगत सिंह और भी अनेक नाम हैं।
वास्तविक
मुद्दा फिल्म उद्योग की जवाबदेही से जुड़ा है, जिसे फ़िल्मकारों और फिल्म
लेखकों को गंभीरता से समझना होगा।उसका प्रमुख कारण है कि आज की पीढ़ी इन फिल्मों
में दिखाये गए स्रोतों को वास्तविक मानती है और उसी के आधार पर अपनी धारणा बनाती
है। एक समय में सामाजिक विश्वास का सबसे
बड़ा स्रोत वेद हुआ करता था। यदि वेद में
किसी बात का उल्लेख किया गया है तो वह अकाट्य और अतर्क्य है। इसके पीछे कोई
प्रतिबंध नहीं बल्कि आस्था और विश्वास था। आधुनिक काल में समाचार पत्रों ने आम
जनमानस के विचारों में ऐसी ही जगह बनाई। कोई भी सूचना यदि समाचार पत्र में
प्रकाशित हो गई तो वह सही मानी जाती थी। आम आदमी के लिए वह विचारों के निर्माण और
पक्षधरता का प्रमुख स्रोत होता था। लेकिन आज ऐसा नहीं है। क्योंकि समाचार माध्यमों
और स्रोतों की बेतहासा वृद्धि और आपसी होड़ ने उसकी विश्वसनीयता को बुरी तरह
प्रभावित किया है।
इसी तरह
फिल्में आज सिर्फ संदेश तक सीमित नहीं हैं बल्कि आज की पीढ़ी पर उनका प्रभाव बहुत
गहरा पड़ रहा है। खासकर जब भारत के इतिहास, मिथक,
संस्कृति और सभ्यता को केंद्र में रखकर फिल्में बनती हैं तो फ़िल्मकारों की
ज़िम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि फिल्म देखने वाली
पीढ़ी की धारणा और उसको प्राप्त होने वाले तथ्य और संदेश का दूरगामी परिणाम हो सकता
है। फिल्म जगत की आज बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वे आम जनमानस को भारत के गौरव से परिचित
कराएं, उन्हें दिखाएँ कि हमारा गौरवशाली इतिहास क्या रह है।
इठस के प्रेरक प्रसंगों को उनकी सकारात्मकता में जनता के सामने लाएँ। अपनी
संस्कृति और सभ्यता को छिन्न-भिन्न करना कहीं से भी फिल्मों के लिए और उसके दर्शक
वर्ग के लिए उचित नहीं होगा। फिल्में अब सिर्फ व्यवसाय और मनोरंजन नहीं हैं। इसकी
गंभीरता को फिल्म बनाने वाले और उसका विरोध करने वाले दोनों को समझना होगा।
पद्मावती में कहीं न कहीं बड़ी चूक हुई है। जिसे यदि सुधार लिया गया होता तो शायद
यह बखेड़ा ऐसा नहीं होता बल्कि संजय लीला भंसाली की सकारात्मक लोकप्रियता और बढ़
जाती।
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