आज
का समय और साहित्य
सन्तोष
कुमार राय
एक समय में साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ कहा गया था और यह उस समय के साथ-साथ
किसी भी काल-खंड के लिए सच है। आज जिस तरह से समय बदला है, साहित्य में वैसा न तो बदलाव हुआ है और न ही आज
के साहित्य में अपने समय को समेट लेने की कोई चाहत दिखाई देती है। आखिर ऐसा क्यों
हो रहा है? साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी अपने समय के यथार्थ
को क्यों नहीं देख पा रहे हैं? क्या कारण है कि हमारा समाज
दिनोंदिन पतन के गर्त में समा जाने को आतुर है और इससे सचेत करने वाले देख नहीं प
रहे हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हम जिस दौर से गुजर रहे
हैं वह अपने हर रूप में संक्रमण काल है। हम दिशाहीन विकास की बुनियाद पर आगे बढ़
रहे हैं। हमारे पास कोई भी ऐसा प्रारूप नहीं है जिसे विकास की सही दिशा कहा जाय।
असल में जिसे विकास कहा जा रहा है वही आज समय के समय के संक्रमण का जन्मदाता है।
जीवन के भागदौड़ में ठहराव के लिए कहीं कोई जगह नहीं बची है।
दरअसल ऐसी स्थिति में साहित्य
दिशा-निर्माता या युग-निर्माता की भूमिका अदा करता रहा है। लेकिन आज वह खुद
दिग्भ्रमित और दिशाहीन है। कुछ इसी तरह के ऊहापोह का समय 1857 के बाद का था, जब साहित्यकारों के लिए धार्मिक रूढ़ियों के नाम पर चलाये जा रहे सामाजिक
बंधनों के विरुद्ध बोलना शुरू किया। उस समय सामाजिक रूढ़ियों पर बोलना आसान नहीं था।
लेकिन उस समय के साहित्य निर्माताओं ने इसकी पहचान की और इसके खिलाफ एकजुट होकर
लिखना-बोलना शुरू किया। जिसका परिणाम हमें आधुनिक राष्ट्र के रूप में मिला। वह समय
एक बनती हुई भाषा और बनते हुए राष्ट्र का समय था। उस समय के साहित्यकारों ने जितनी
मजबूती के साथ भाषा का पक्ष लिया उतनी ही मजबूती के साथ वे राष्ट्र के साथ भी खड़े
हुए। इसके अनेक उदाहरण हमें उस दौर के साहित्य में मिल जाएंगे। भारतेन्दु
हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर
प्रसाद आदि अनेक रचनाकर ऐसे हैं जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष किया। उन
साहित्यकारों ने भारत के अतीत को बार-बार उद्धृत किया और ज़ोर देकर बताया कि हमारा
समाज कैसा था और आज हम कैसे हो गए हैं। जिसका सीधा-सीधा असर उस दौर के समाज पर
पड़ा।
आज के साहित्यकारों-रचनाकारों के लिए
भी अपने समय की समस्याओं को पहचानने की जरूरत है। हम जिस समय में जी रहे हैं वह
वास्तव में विसृंखल मान्यताओं के जबरन स्थापित होने का समय है। पारिवारिक-सामाजिक
बंधन हमारी वैश्विक पहचान थी जो आज छिन्न-भिन्न हो गई है। व्यक्तिवाद इस कदर आगे
बढ़ गया है कि हमारे पीछे क्या है और कैसा है इसे देखना तो बहुत दूर की बात है उस
पर रुककर सोचना भी दुरूह हो गया है। ऐसी स्थिति में रचनाकारों का दायित्व बढ़ जाता
है। इस समय की सचाई से आम जनमानस को रूबरू करना आज उनका नैतिक कर्तव्य है। समाज की
विकृतियों की पहचान जितनी बारीकी से वे कर सकते हैं आम लोग नहीं कर सकते। फिर से
एकबार उन्हे भारतीय संस्कृति के उन पहलुओं पर समाज का ध्यान आकर्षित करना होगा जिनसे
हमारे समाज को सही दिशा मिल सकती है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि आज का साहित्यकार
अपने समय की सच्चाई को नजरंदाज कर रहा है। वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की तरह
समय और समाज से जुड़ नहीं पा रहा। सामाजिक मान्यताओं और जीवन शैली में लगातार आ रही
गिरावट को वह गंभीरता से नहीं ले रहा है। कोई भी रचना तभी दीर्घायु होती है जब
उसमें अपने समय के व्यापक जनसमुदाय का यथार्थ अभिव्यक्त हुआ हो। जिन रचनाओं में
व्यापक जनसमुदाय का यथार्थ निहित होता है वे अनायास ही उस समाज से जुड़ जाती हैं और
उसका हिस्सा बन जाती हैं। आज इसका भाव खटकता है जबकि आज जितनी अधिक मात्र में
रचनाएँ हो रहीं है शायद ही कभी हुई हो। आज रचनाकारों के लिए छपने का संकट नहीं है
फिर भी हमारे अपने रचनाकार से उस तरह से नहीं जुड़ पा रहे हैं जैसा जुड़ना चाहिए।
कुलमिलाकर यह कहना चाहिए कि आज के
रचनाकारों पर हमरे समय का बहुत बड़ा दायित्व है। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी निभानी
होगी। आज जिस तरह से मनुष्य के जीवन को सुरक्षा देने वाली प्रकृति का दोहन हो रहा
है, पर्यावरण में जतनी तेजी से बदलाव आ रहा है, जल, जंगल, पहाड़ आदि जिस तरह से खत्म किए जा रहे हैं
उसके दुष्परिणामों की चेतावनी कौन देगा। आज के साहित्य को भी समाज का दर्पण बनाना
पड़ेगा, समाज की प्रतिछाया को साहित्य में जगह देनी होगी, आम जनमानस को उसके यथार्थ से न सिर्फ अवगत कराना होगा बल्कि उसे आज की
भयावहता के दुष्परिणामों से सचेत भी करना होगा तभी साहित्यकारों के दायित्व सही
मायने में पूरे होंगे।
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