सन्तोष
कुमार राय
यथावत में प्रकाशित
‘उत्तराधिकार
बनाम पुत्राधिकार’ पुस्तक के माध्यम से
अधिवक्ता और लेखक अरविंद जैन ने भारतीय समाज का एकपक्षीय और विवादास्पद कानून तथा पुरुष
वर्चस्व की वास्तविक सच्चाई को सामने रख दिया है। समाज की निर्मिति दो को मिला के
ही होती है वह स्त्री और पुरुष हैं, लेकिन दोनों
के अधिकार में इतना भेद, वह भी सिर्फ सामाजिक या जुबानी नहीं
कानूनी भी। इस पुस्तक में अनेक उदाहरणों के साथ इसकी विस्तृत और आंखें खोलने वाली
पड़ताल की गई है। भारतीय समाज व्यवस्था एक पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था है जिसमें
महिलाओं के उत्तराधिकार या अधिकार को न तो ठीक से सामाजिक स्वीकृति मिली है और न
ही कानूनी। भूमिका में लेखक ने बहुत साफ-साफ लिखा है कि,
“गर्भपात के कानूनी आधिकार देने का मुख्य उद्देश्य औरत की कोख पर नियंत्रण करके
राष्ट्र की जनसंख्या का नियंत्रण भी था और स्त्री को पुरुष के ‘आनंद की वस्तु’ बनाना भी। स्त्री को देह का
स्वामित्व और उपभोग की आजादी का पाठ पढ़ाये बिना, यह सब कैसे
संभव हो सकता था?”
अभी तक हमारे समाज में स्त्री के जीवन
के सारे फैसले पुरुष ही करते आ रहे हैं, कुछ-एक
अपवादों को छोड़कर। कानून बन गये, न्यायालयों के अनेक फैसले
भी आ गये लेकिन क्या उन्हें उनके जीवन के निर्णय का अधिकार मिला? अभी भी पिता की संपत्ति में पुत्री की हिस्सेदारी नहीं बन पायी है। कानून
बन गये लेकिन जमीन पर कितने उतरे? धर्म-संप्रदाय को लेकर, धर्मांतरण को लेकर, पुत्र-पुत्री पर अधिकार को लेकर, संपत्ति को लेकर, जमीन-जायदाद को लेकर बाल विवाह को
लेकर, विधवाओं को लेकर, स्त्री
स्वामित्व आदि को लेकर भारतीय कानून व्यवस्था आज के समय में भी अस्पष्टता बोध की
शिकार है। जैसे—“हिन्दू विवाह अधिनियम में एक और विसंगति है कि 18 साल से कम उम्र
की लड़की के साथ विवाह वर्जित है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को 15 दिन की कैद या सजा
या 100 रुपये का जुर्माना हो सकता है। लेकिन जो मुकदमे आज तक निर्णित हुए हैं, उनमें देखा गया है कि इस तरह के विवाह भले ही दंडनीय अपराध हैं लेकिन अवैध
नहीं हैं।” यह एक विसंगति है जबकि लेखक ने बाल विवाह अधिनियम के तहत अनेक
विसंगतियों का जिक्र किया है।
उत्तराधिकार भारतीय समाज में अभी भी
बहुत ही पेचीदा मामला है। कहने को तो हम उत्तर-आधुनिक हो गये है लेकिन क्या वास्तव
में हमारी समझ भी उत्तर आधुनिक हुई है? शायद नहीं, क्योंकि जिन समजाइक मान्यताओं से सामाजिक विकृति का जन्म होता है, हम आज उनका पोषण करते हैं। संजय गांधी की मृत्यु के बाद इन्दिरा गांधी की
तानाशाही का विस्तार से जिक्र किया गया है। मेनका गांधी की कानूनी लड़ाई का भी
उल्लेख है। जैसे, ‘संजय गांधी की
मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकार को लेकर हुए ‘गृह-युद्ध’और अदालती लड़ाई को संक्षेप में जानना जरूरी है। .....मृत्यु के बाद 3
फरवरी 1982 को मेनका गांधी ने संजय गांधी द्वारा छोड़े 473058 रुपए के शेयरों को
अपने और बेटे के नाम करवाने के लिए भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत याचिका
दायर की क्योंकि उनका विवाह विशेष विवाह आधनियम के अधीन हुआ था।’ नोटिस के जवाब में इन्दिरा गांधी ने कहा था कि संजय गांधी की माँ होने के
नाते, उनका एक तिहाई हिस्सा बनता है,
जो वह वरुण के पक्ष में छोड़ना चाहती हैं।.... श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा अपना
हिस्सा अपने पोते वरुण के लिए छोड़ने के पीछे सही-सही क्या कारण और उद्देश्य रहे
होंगे, कहना मुश्किल है।........ ।
दरअसल मुखिया होने पर, औरत भी पितृसत्ता के रूप में ही व्यवहार करने लगती है।’ अब उत्तराधिकार के प्रश्न को ठीक से समझा जा सकता है। समाज और कानून
दोनों ने स्त्री को किस तरह से कमजोर, लाचार और निरीह बनाने
की कोशिश की है, यह पुस्तक इस बात का जीवंत दस्तावेज़ है।
अंत में यह पुस्तक एक ऐसी बहस के साथ
हमारे सामने है जिससे न सिर्फ पुरुष बल्कि पूरी भारतीय मानसिकता ही आँख चुराने की
कोशिश करती है। इसमें उत्तराधिकार, विशेषकर
स्त्री के उत्तराधिकार, और न सिर्फ उत्तराधिकार बल्कि
वास्तविक अधिकार की लड़ाई को बहुत ही संयत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। स्त्री का
जीवन विडंबनाओं से बाहर कब और कैसे होगा? अगर ये विडंबनाएं प्राकृतिक
होती तो कुछ हद तक स्वीकार भी किया जा सकता है लेकिन यहाँ तो कानूनी और सामाजिक
हैं, जिन्हें जबरन उनके ऊपर थोपा गया है। अब जरूरत है कि इस
बहस को किसी निर्णायक मोड़ तक पहुंचाया जाय।
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