सन्तोष
कुमार राय
‘निर्वासन’ उपन्यास वर्तमान कथा लेखन से अलग एक नई पृष्ठभूमि के साथ आया है। वैसे तो
हिन्दी कथा लेखन में यह परंपरा रही है कि अपने समय के हर कथाकार को अतीत के किसी न
किसी कथाकार के साथ जोड़ दिया जाता है और ऐसा
अखिलेश के बारे में भी लिखा जा सकता है। लेकिन यह ठीक नहीं है क्योंकि हर कथाकार
अपने समय मे समझ विकसित करता है। बहुत दिनों बाद हिन्दी में विमर्श की धारा से
बिलकुल अलग एक नई चेतना का उपन्यास आया है। इसके के माध्यम से अखिलेश ने तथाकथिक
विकसित भारत की अद्यतन विसंगतियों सुव्यवस्थित तरीके से अभिव्यक्त किया है। जिस
तरह से हम पूंजीवादी सभ्यता के पीछे आंधी दौड़ लगा रहे हैं उसके अनेक
दुष्परिणामोंकी ओर उपन्यासकार ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है।
निर्वासन एक ऐसा शब्द है जिसका भारतीय समाज से
बहुत ही गहरा और परंपरागत संबंध है। गुलामी के दिनों में जो मजदूर भारत से बाहर
गये उनसे लेकर वर्तमान समय के पूंजीवादी विकास के भागमभाग के हर पहलू को अखिलेश ने
छूने की कोशिश की है। विलुप्त होती भारतीय परंपरा और खोती हुई मानवीय पहचान को ‘निर्वासन’ में विशेष रूप से उभारा गया है। आज हम
आधुनिकता के आवरण में पश्चिमी संस्कृति का अंधाधुंध अनुसरण कर रहे हैं। भौतिकवाद
की गुलामी में भारतीय मध्यवर्ग बुरी तरह से जकड़ गया है। उसके अनेक पहलुओं को इस
उयपन्यास में देखा जा सकता है। ‘निर्वासन’ के संबंध में कथाकार काशीनाथ सिंह से लिखा है कि, ‘मन भर गया था एक अर्से से विमर्शों के सादे और सपाट निर्जीव यथार्थ से भरे
उपन्यासों को पढ़ते हुए। ऐसे ही में अखिलेश का यह उपन्यास- जैसे भीड़-भाड़ और गर्द-गुबार
से बाहर ताजी हवा का झोंका।’ इस वक्तव्य से उपन्यास और
विमर्श दोनों को लेकर कई सवाल हो सकते हैं। आज तक हिंदी के लेखकों को विमर्शों में
अनेक तरह की नई संभावनाएं और नई ऊर्जा दिखाई देती थी। लेकिन इस एक दशक के छोटे से
समय में ही उनसे ऐसा मोहभंग हो गया कि वे निर्जीव और सपाट हो गई। पता नहीं यह
विचार विमर्शों के प्रतिरोध में व्यक्त हुआ है या फिर ‘निर्वासन’ के समर्थन में।
अखिलेश ने निर्वासन की कथा को वर्तमान
से लेकर सुदूर अतीत के औपनिवेशिक काल तक जोड़ा है। वर्तमान समय की सत्ता का
प्रतिनिधि रूप उन्होंने संपूर्णानंद बृहस्पति के रूप में खड़ा किया है। पत्रकारों
की पत्रकारिता को बहुगुणा के रूप में। वहीं आधुनिकता से ऊबे और घबराए हुए
प्राध्यापक के रूप में सूर्यकांत के चाचा को दिखाया है। लेखक ने बड़ी कुशलता से एक
साथ परंपरा और आधुनिकता के जन उपयोगी पक्षों को उपन्यास में जगह दी है जो उनके
लेखन की विशेषता है। एक तरफ संपूर्णानंद बृहस्पति को बीभत्स परंपरागत व्यक्तित्व
के रूप में खड़ा किए हैं, वहीं दूसरी ओर सूर्यकांत के
पिता को सामंती मानसिकता के पोषक के रूप में। चाचा एक ओर पत्नी और बच्चों के जीवन
जीने के तौर तरीकों को स्वीकार नहीं करते लेकिन शराब पीते वक्त वे सारे परंपरागत
उसूलों को भूल जाते हैं। आधुनिकता विरोधी होने की बात पर चाचा ने कहा है, ‘ये कौन सा आधुनिकपन है रे। आधुनिकता वह है जिसके
सामने पुराना मिट जाने में बेहतरी समझे। वह अपने आप चली जाय। जो आधुनिकता पूराने
को जबरदस्ती मिटाती है, तबाह करती है- पुराने को बरबाद करके
काबिज होती है वह सच्ची आधुनिकता नहीं है।’ यह इस उयपन्यास
का अंतर्विरोध भी हो सकता है जो यह तय नहीं कर पाता है कि आधुनिकता और परंपरा के
बीच कैसे सामंजस्य बिठाया जाय। वर्तमान राजनीति की तुच्छता ऊपर से लेकर ग्राम
पंचायत तक, बहुत ही जीवंत रूप में सामने आयी है। इस उपन्यास
में राम अजोर पांडे भी कम महत्वपूर्ण पात्र नहीं हैं। उनके आने से इसकी कहानी
औपनिवेशिक काल से लेकर आधुनिक काल तक विस्तृत हो गई है। या यह कहा जाय कि एक मजदूर
के विकास की कहानी का विकसित रूप एक पूंजीपति राम अजोर पांडे हैं तो गलत नहीं होगा।
गोसाईगंज का हर आदमी भगेलू पांडे और राम अजोर पांडे से अपना संबंध जोड़ने में लगा
हुआ है, एक विचित्र दृश्य खड़ा हुआ है आज के समय और समाज का।
‘निर्वासन’ एक ओर वर्गीय चरित्रों के विकराल चेहरे को बेनकाब करता है तो वहीं वह
जातिगत चरित्रों की सर्जना भी करता है। आज का भारत किस तरह से भौतिकता के पीछे भाग
रहा है उसके अनेक उदाहरण इस उपन्यास में मौजूद हैं। झूठ और फरेब के कितने जाल बुने
जा सकते हैं इसे भी इस उपन्यास में बखूबी प्रस्तुत किया गया है। ‘निर्वासन’ भारत के विकास की दुखद गाथा है। लेखक ने
जिन प्रसंगों को के माध्यम से अपनी चिंता को जाहिर किया है वे वाकई हमें सोचने पर
मजबूर कर देते हैं। क्या आधुनिक बनने की आपाधापी हमने सचमुच अपना बहुत कुछ खो दिया
है? क्या अब हमारी परंपरागत जीवन पद्धति अप्रासंगिक हो गई है? क्या घर में बड़े बुजुर्ग सिर्फ पैसा कमाने की मशीन हो गए हैं? क्या उनकी सोच-समझ की कोई अर्थवत्ता नहीं है?
निर्वासन में अखिलेश ने अनेक ऐसे सवालों पर हमें सोचने के लिए मजबूर कर दिया है जो
हमारे आस-पास पैर जमा चुके हैं और हम निरंतर अमानवीय और संवेदनहीन होते जा रहे
हैं।
यह उपन्यास अनेक तरह के वैचारिक
टकरावों से भरा हुआ है। आज के लेखक को जितना जरूरी लगता है एक सार्थक रचना करने की
उससे ज्यादा जरूरी लगता है अपनी वैचारिक जमात में बने रहने की भी। अखिलेश भी उससे
बच नहीं पाये हैं। वे परंपरा को तो बचाने की वकालत करते हैं लेकिन परंपरागत होकर
नहीं। आधुनिकता को स्वीकार करते हैं लेकिन अतिवादी होकर नहीं। उसी प्रकार आज
सेकुलर होना भी एक खास वर्ग का फैशन बन गया है। कोई परंपरागत और धार्मिक होने का
आरोप न लगाए इसलिए जरूरी है कि राम मंदिर और अयोध्या की अपनी रचना में एक
नकारात्मक परिक्रमा करा दी जाय। इससे जाति और जमात दोनों बच जाती है। इस तरह के
अंतर्विरोध भी इस उपन्यास में हैं जो हमें अनायास ही खटकते हैं।
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