भारतीय चिकित्सा प्रणाली को पुनर्जीवन


सन्तोष कुमार राय


          ‘आजादी के बाद जरूरत थी जो था उसे संरक्षित किया जाय, जहां जरूरी हो परिवर्तन किया जाय यह वक्तव्य पिछले 17 अक्टूबर को अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने दिया। यह वाक्य आज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक और अनुकरणीय है जितना आजादी के बाद था। फिर इसका निहितार्थ क्या था? प्रधानमंत्री द्वारा कही हुई इस बात का अतीत से कोई जुड़ाव था क्या ? वास्तव में यह पड़ताल का विषय है। आयुर्वेद भारतीय समाज के लिए सिर्फ एक चिकित्सा पद्यति मात्र नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और भारतीय मेधा का अहम हिस्सा है। फिर भी उसके विकास और उत्थान में अभी तक कांग्रेसी सरकारें हिला-हवाली क्यों करती रहीं हैं, यह समझ से परे है। यही वह चिकित्सा पद्यति है जो भारतीय प्रकृति, पर्यावरण, परिवेश और जीवन के अनुकूल विकसित हुई थी, लेकिन दुर्भाग्य की छाया में इसका बहुत कुछ विलीन हो गया, बावजूद इसके अभी भी बहुत कुछ है जिसे संरक्षित और संवर्धित करने का एक सराहनीय प्रयास अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान के रूप में हुआ है।
          जैसा कि किसी भी नये संस्थान की स्थापना के उद्देश्यों में राजनैतिक मंशा का बहुमूल्य योगदान होता है, अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान की स्थापना में भी इसकी कमतर भूमिका नहीं है। अक्सर सरकारें बदलती हैं तो पिछली सरकार की योजनाओं का विकास या तो अवरुद्ध हो जाता है या फिर उसकी गति धीमी हो जाती है, जिससे स्थापना की लंबी अवधि की कहानी तैयार होती है। कुल मिलाकर अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान भी इन अग्नि परीक्षाओं से गुजरने के बाद अब अपने संपूर्णता और व्यवस्थित स्वरूप में आम जन की सेवा के लिए शुरू हो गया है।
परिकल्पना से स्थापना तक
          अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान से पहले इसका स्वरूप एक आयुर्वेद अस्पताल बनाने का था, जिसका प्रस्ताव 2002 में एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी द्वारा लाया गया था। इसकी परिकल्पना आधुनिक सुविधाओं से संपन्न अस्पताल खोलने की थी, लेकिन बीएचयू जयपुर और जामनगर आयुर्वेद चिकित्सालयों को ध्यान में रखते हुए सहमति नहीं बन पायी। उसके बाद एक ऐसे संस्थान की परिकल्पना प्रस्तुत की गई जो अस्पताल के साथ-साथ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं से संपन्न अकादमिक और शोध संस्थान के रूप में विकसित हो। इस पर आम सहमति के बाद निर्माण का स्वरूप तैयार हुआ, जिसके कुछ दिन बाद ही सरकार बदल गई और सत्ता एनडीए से यूपीए के हाथों में आ गई। इस संस्थान के संबंध में यह सिर मुड़ते ओले जैसी स्थिति बन गई जिसे किसी भी सरकार के शासन काल में नहीं होना चाहिए था, क्योंकि इसका सीधा संबंध जनता से था। ऐसा भी नहीं था कि यूपीए के शासन में नई संस्थाओं का निर्माण नहीं हुआ या यह एकलौती संस्था थी जिसका खर्च वहन कर पाना सरकार के लिए बहुत भारी पड़ सकता था। अनेक संस्थाएं बनीं लेकिन अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान लंबे समय तक परिकल्पना के गर्भ में ही पड़ा रहा। ऐसी स्थिति में यूपीए सरकार की मंशा पर, उसकी कार्यशैली पर और उसके भेदभाव पूर्ण नीतियों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आखिर वह कौन सी मजबूरी थी जिसके कारण यूपीए-1 के पाँच वर्ष के शासन काल में इस संस्थान को खड़ा नहीं किया जा सका? इसका सीधा मतलब यह भी हो सकता है कि कहीं न कहीं यूपीए और कांग्रेस सरकार को अँग्रेजी की विदेशी कंपनियों को लगातार लाभ पहुँचाते रहने की प्रतिबद्धता रही होगी। इसका यह भी मतलब हो सकता है कि इस संस्थान के बनने से भारतीय चिकित्सा प्रणाली पुनर्जीवित हो सकती थी जिसे कुछ समय के लिए ही सही रोक कर रखा जाय। लेकिन यूपीए-2 के शासनकाल में सरकार का सुस्त ही सही एक सकारात्मक कदम आगे बढ़ा। 2012 में डॉ अभिमन्यु कुमार को इसका निदेशक नियुक्त किया गया। जहाँ से इसके निर्माण की वास्तविक और जमीनी शुरुआत हुई। क्योंकि वास्तविकता यही है कि इसके लिए 2004 से पहले जो कार्य हुआ उसमें 2012 तक कोई विशेष प्रगति नहीं हुई और न ही इसे स्थापित करने में किसी ने विशेष रुचि दिखाई। 2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद इसे और गति मिली जिसके परिणाम के रूप यह संस्थान आज हमारे सामने है।
आयुर्वेद की आवश्यकता क्यों ?
          आयुर्वेद का सीधा संबंध पर्यावरण और प्रकृति से है। इस पद्यति की औषधियों का मूल आधार प्रकृति और वनस्पतियाँ हैं। भारत की बनावट और प्रकृति निर्भरता के अनुकूल इसका विकास हुआ है। प्रदूषण के भयावहता के बीच में शरीर को बिना किसी आंतरिक और अतिरिक्त क्षति पहुंचाए यह अनेक असाध्य और सामान्य बीमारियों से स्थायी रूप से मुक्त करता है। ऐसी उपचार विधि किसी भी अन्य चिकित्सा पद्यति में अभी तक उपलब्ध नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह है कि उयाह पूरी तरह भारतीय जमीन पर आसानी से उपलब्ध और निर्मित औषधि है। यही कारण है कि इसकी कीमत अन्य की अपेक्षा बहुत कम है।
अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान का स्वरूप और चिकित्सा सुविधाएं
          इस संस्थान के संबंध में निदेशक डॉ अभिमन्यु कुमार ने इसका विस्तृत और अखिल भारतीय स्वरूप का खाका सामने रखा जो वाकई भारत को नवजीवन देने जैसा है। अखिल भारतीय स्वरूप से पहले यह संस्थान लिटमास टेस्ट साबित होगा कि वास्तव में सरकार इसका किस रूप में विस्तार करे। वैसे प्रधानमंत्री ने अपनी इच्छा जरूर व्यक्त किया कि आयुर्वेद का हास्पिटल प्रत्येक जिले मे होना चाहिए। डॉ कुमार ने दिल्ली के सरिता विहार स्थित इस संस्थान के निर्माण पहले चरण के कार्यों का विस्तृत विवरण दिया, जिसमें परिसर का स्वरूप, मुख्य रूप से पंचकर्म और प्रतिदिन की नैदानिक सुविधाएं (ओपीडी) हैं। इसके साथ ही इसमें अकादमिक और शोध का एक विस्तृत और व्यवस्थित पक्ष शामिल है जो न सिर्फ अखिल भारतीय है बल्कि इसका ढांचा अंतरराष्ट्रीय रखा गया है, जो आयुर्वेद में रुचि रखने वाले दूसरे देशों के लिए भारत के प्रति बड़े आकर्षण का केंद्र बन रहा है।
          यह संस्थान 10 एकड़ के परिसर में अवस्थित है जिसमें से पाँच एकड़ में पहले चरण का कार्य पूरा हो गया है शेष पाँच एकड़ के भवन निर्माण की प्रक्रिया में हैं। इसके स्वरूप को अन्य संस्थानों से अलग रखा गया है जिसके मुख्यतः तीन पहलू हैं। पहला अकादमिक, दूसरा पेसेंट केयर और तीसरा रिसर्च है। अकादमिक के अंतर्गत देश के विभिन्न लगभग तीन सौ से अधिक अंडरग्रेजुएट आयुर्वेद कालेजों के विद्यार्थियों को ध्यान में रखते हुए यह पोस्ट ग्रेजुएट और रिसर्च को तरजीह दी गई है। पोस्टग्रेजुएट में कुल 13 विशेषज्ञता विभाग हैं जिनमें अभी कुलमिलकर 56 विद्यार्थियों के प्रवेश की जगह बनाई गई। वहीं रिसर्च यानी पीएच.डी. में अभी 26 सीटों दाखिला की प्रक्रिया चल रही है जिसका निकट भविष्य में विस्तार किया जाना है। 200 बेड का यह हास्पिटल तमाम सरकारी हास्पिटलों की अवधारणों से कहीं अलग अपनी नयी पहचान और आमजनमानस में विश्वास जगाने की ओर तेजी से बढ़ रहा है। 18 ओपीडी हैं, जिनमें कुछ स्पेशल और कुछ सुपर स्पेशल सुविधाओं से संपन्न हैं। जैसे डाईबीटीज़, न्यूरोमेटोलोगी, चाइल्डमेंटल, कंप्यूटर विजन सिंड्रोम जैसी आधुनिक बीमारियों पर विशेष ध्यान दिया गया है। फिलहाल ओपीडी में प्रतिदिन एक हजार से अधिक मरीज आ रहे हैं जो किसी भी नये संस्थान के लिए शुभ संकेत है। शोध और गुणवत्ता पूर्ण सुविधाओं की दृष्टि से आयुर्वेद में अनेक संभावनाएं हैं, जिसके लिए यह संस्थान न सिर्फ भारत के भीतर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। अभी तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ आयुर्वेद और योग को लेकर सहमति बनी है, जैसे यूरोपियन एकेडमी फॉर आयुर्वेद जर्मनी, मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान दिल्ली, एम्स दिल्ली तथा आईसीएमआर प्रमुख हैं। 

          इस संस्थान के अखिल भारतीय स्वरूप के स्थापित होने में कुछ बाधाएँ भी हैं। स्वाभाविक है कि किसी भी संस्थान की स्थापना और विस्तार में होती ही हैं। लेकिन यदि सरकार इसके स्वरूप को विस्तार देने की ओर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर रही है तो इसमें संदेह नहीं कि आने वाले समय में आयुर्वेद भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना के रूप में दिखाई देगा। इसके लिए आवश्यक है कि इसकी स्वायत्तता को और बढ़ाया जाय, क्योंकि अभी तक यह संस्थान आयुष मंत्रालय के अधीन है। साथ ही इससे सरकारी हस्तक्षेप से जितना हो सके बचाया जाय जिससे यह अपनी वांछित प्रगति कर सके और इसका उपयोग व्यापक जन समुदाय को स्वस्थ रखने में हो सके। 

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