संतोष
कुमार राय
यथावत में प्रकाशित
अपने समय के लोकप्रिय उपन्यासकार
गोपालराम गहमरी का उन चुनिंदा कथाकारों में हैं जिन्होंने हिंदी उपन्यास को न
सिर्फ लोकप्रिय बनाया बल्कि उनके लेखन को पढ़ने के लिए अनेक गैर हिंदी भाषी लोगों
ने हिंदी सीखा । ‘गोपालराम गहमरी के संस्मरण’ नाम से उनके संस्मरणों का बेहतरीन संपादन संजय कृष्ण ने किया है । यह
संकलन कई मायनों में हमारे लिए उपयोगी है । सबसे पहले तो इस संकलन के आ जाने से
गोपालराम गहमरी फिर से हमारे सामने आ गए अन्यथा पुराने साहित्य में ज़्यादातर नाम
अब सिर्फ इतिहास में दर्ज रहने की कगार पर पहुँच गये हैं । इसके लिए संपादक संजय
कृष्ण को धन्यवाद के पात्र हैं । गहमरी जी के समय और समाज को समझने का यह
विश्वसनीय दस्तावेज है । हिंदी साहित्य और समाज के इतिहास को भी इसके माध्यम से
बहुत कुछ समझा जा सकता है । हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों की परंपरा को थोड़ा
अलगाकर अगर देखा जाय तो गहमरी जी का नाम हिंदी के पहले जासूसी उपन्यासकार के रूप
में आता है । जासूसी उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ और भारतीय सांस्कृतिक चेतना को
जिस सूक्ष्मता से गहमरी जी ने समाहित किया है वह अतुलनीय है । भारतीय समाज में
फैली सामाजिक-धार्मिक बुराइयों को लेकर जो सामाजिक आंदोलन चल रहे थे उनकी
प्रत्यक्ष छाया गहमरी जी के लेखन में दिखाई देती है ।
‘गोपालराम
गहमरी के संस्मरण’ पुस्तक हिंदी उपन्यास से अलग नई विधा के
रूप में भी अपनी जगह बनती है । जहाँ तक संस्मरणों के लेखन का सवाल है तो उस दौर के
लेखन में कुछ-एक आत्मकथाएँ जरूर प्रकाशित हुई है लेकिन कोई ऐसा संस्मरण नहीं दिखाई
देता जिसे इस विधा की प्रारंभिक कृति माना जाय । बहुत बाद में संस्मरण को साहित्य
की एक विधा के रूप में स्वीकृति मिली है । इस लिहाज से इसकी महत्ता और अधिक बढ़
जाती है ।
प्रस्तुत संकलन में जिन संस्मरणों को
शामिल किया गया है उनमें— मेरा बचपन, मेरे
संस्मरण, साहित्यिक संसमरण, भारतेन्दु
बाबू हरिश्चंद्र का भाषण, आँखों देखि घटना, कुंभ यात्रा आदि 21 संस्मरण संकलित हैं । इसमें उस समय के व्यक्तियों पर
कुछ रोचक और महत्वपूर्ण संस्मरण हैं जिनमें भारतेन्दु,
रामपाल सिंह, प्रथम नारायण मिश्र, बाल
मुकुन्द गुप्त, तिलक आदि महत्वपूर्ण हैं । भारतेन्दु को याद
करते हुए लिखते हैं कि, “भारतेन्दु हरिश्चंद्र वहाँ आमंत्रित
हुए । उनकी मंडली सब समान से लैस वहाँ पहुंची । मैं उनदिनों बाबू राधाकृष्ण दास से
ही परिचित था । वह बच्चा बाबू कहलाते थे । उन्होने दुःखिनीबाला नामक एक छोटा सा
ग्रंथ लिखा था । मैं उन दिनों 18 वर्ष का था, हिंदी लिखने की
रुचि थी, सामर्थ्य कम । भारतेन्दु की मंडली भरके दर्शन मुझे
वहीं बलिया में हुए थे और भारतेन्दु के दर्शन पाकर अपने तई कृतार्थ हुआ । बड़ी
श्रद्धा भक्ति से वहाँ भारतेन्दु के नाटक लोगों ने देखे । भारतेन्दु ने स्वयं
हरिश्चंद्र बनकर सत्य हरिश्चंद्र का नाटक स्टेज पर खेला था ।” इसी तरह अन्य
साहित्यकारों को संस्मरणों में याद किया है ।
साहित्यिक संस्मरण बहुत ही रोचक हैं । प्रताप
नारायण मिश्र को याद करते हुए लिखते हैं कि “सबेरे ही मैं चौतरे पर बैठा नीम की
दातुन कर रहा था कि सामने से एक देवता मस्त चाल से झूमते हुए चौतरे पर चढ़कर बोले—“तुमहूं
बल मकुनवा की नाई सबेरे सबेरे लकड़ी चबत हौ ।..... आप तो मुझे पहचानते न होंगे । मेरा
एक बौड़म कागज ‘ब्राह्मण’ नाम का है, जो आपके
यहाँ भी जाता है ।” इन संस्मरणों में एक ओर साहित्यकारों को अपनी नजर से देख रहे
हैं वहीं उस समय की कुछ समस्याओं पर भी व्यंग्य कर रहे हैं । हिन्दी भाषा और
साहित्यकारों की चुप्पी को याद कराते हुए ‘हिन्दी की चिंदी’ में लिखते हैं कि, “हिन्दी में अब अशुद्धियों की
नाव दिनों-दिन बोझिल होती जा रही है । ऐसे अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ सुलेखकों की
चुप्पी और आफत ढा रही है । बड़े दुख की बात है कि हिन्दी के वर्तमान महारथी नए
हिन्दी लेखकों के अनर्थ चुपचाप देख रहे हैं ।”
गहमरी जी के संस्मरणों में पर्याप्त
विविधता है । साहित्यकारों के अलावा लोकमान्य तिलक की जमानत पर भी लिखा है, “तैयब जी ने पचास-पचास हजार की दो ज़मानतें और पचास हजार का तिलक महाराज
का जाती मुचलका लेकर छोड़ देने की आज्ञा सुना दी । यह बंगवासी केस से दसगुना थी ।
उस समय अदालत में खड़ी जनता ने जो ताली बजाकर हर्ष ध्वनि की उसकी पूर्ति अदालत के
बाहर खड़ी पाँच छह हजार जनता ने उसी सुर में कर दी ।” इस तरह के कई विषयों को गहमरी
जी ने उठाया है जो हमारे इतिहास का हिस्सा हैं । यहाँ सबकुछ लिखना संभव नहीं है ।
यह संकलन साहित्य, समय और समाज के अनेक पक्षों को पाने भीतर
समेटे हुए है जिसे जानने के लिए पढ़ना आवश्यक है ।
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