सन्तोष कुमार राय
यथावत में प्रकाशित
राजेश
माहेश्वरी हमारे समय के उन चुनिन्दा कथाकारों में से हैं जो अपने कार्यक्षेत्र की
अनेकानेक व्यस्तताओं के बावजूद साहित्य सृजन करते हैं। व्यवसाय और शौक दोनों
अलग-अलग हैं। लेकिन आज का समय इसके विपरीत सिद्धांत गढ़ रहा है। आज शौक को ही
व्यवसाय बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है जिससे अनेक तरह के सामाजिक अंतर्विरोध पैदा
हो रहे हैं। राजेश माहेश्वरी का साहित्य सृजन उनका शौक है। उनका जीवन जैसा
बहुआयामी है उसी तरह उनका लेखन भी विविधताओं से भरा हुआ है। यहाँ राजेश माहेश्वरी की तीन रचनाएँ हैं जो
साहित्य की तीन विधाओं में लिखी गई हैं। ‘रात
के ग्यारह बजे’ उपन्यास है, ‘वे बहत्तर घंटे’ कहानी संग्रह है तथा ‘पथ’ आत्मकथा है।
रात
के ग्यारह बजे
‘रात के ग्यारह बजे’ एक उपन्यास है। उपन्यास की कहानी
के मूल में हमारे संबंध हैं। प्रेम, त्याग, नैतिकता, मानवीयता आदि अनेक बातें है जो उपन्यासकर
के मन मस्तिष्क में हैं जिन्हे प्रसंगानुकूल उपन्यास में उतारा गया है। आधुनिक
उपन्यासों में अक्सर सामाजिक बुराइयों की भरमार होती है जबकि समाज में सिर्फ
बुराइयाँ ही नहीं होती। इस उपन्यास में लेखक ने राकेश के रूप में जिस पात्र को खड़ा
किया है वह हर तरह की मानवीय कमजोरियों के बाद भी एक सकारात्मक व्यक्तित्व के रूप
में खड़ा हुआ है। अनीता, मानसी, पल्लवी, गौरव, आनंद आदि हमारे समाज की और हमारे आस-पास की
अच्छाइयों और बुराइयों के रूप हैं। उपन्यास के संदर्भ में लेखक ने लिखा है, “ मानव के संदर्भ में जब हम नारी को देखते हैं तो उसके दोनों रूप हमारे
सामने आते हैं—एक सृजनकर्ता के रूप में और दूसरा संहारक के
रूप में ।” वर्तमान समय के स्त्री विमर्श की धारा से हटकर लेखक ने एक नया विचार दिया
है । उनके इस लेखन को विमर्श के खेवनहार किस रूप में देखेंगे यह अलग विषय है लेकिन
जिस बेबाकी से राजेश माहेश्वरी ने अपनी बात रखी है वह गौर करने योग्य है। इस
उपन्यास के मूल में सकारात्मक दृष्टिकोण है । यथा, “यदि
हमारे कर्म सकारात्मक हों तो हमारा भाग्य भी हमारा साथ देता है ।” इस उपन्यास में
आज के समय की सच्चाई है जो आधुनिक युवाओं के संबंधों के खोखलेपन को बयां करती है।
भावनाओं के प्रवाह की गति में जीवन को छोड़ देने को लेखक ने बेसहारा बनने जैसा ही
माना है। कुलमिलकर यह उपन्यास हमारे समाज का सच्चा चित्र प्रस्तुत करता है।
वे
बहत्तर घंटे
‘वे बहत्तर
घंटे’ कहानी संग्रह है। इसमें छोटी-छोटी 26 कहानियाँ संकलित
हैं। इन कहानियों के विषय में विविधता है। ज़्यादातर कहानियाँ उपदेश प्रधान हैं।
लेखक ने समाज को नैतिकता और आदर्श में कुछ इस तरह पिरोने की कोशिश किया है जैसे
हार का मोती। लेकिन समाज तो मोतियों के बिखरने से भी बनाता है। यहाँ लेखक की
दृष्टि प्रायः सभी कहानियों में कुछ न कुछ आदर्शमूलक उपदेश देने की है। लेखक का
अनुभव औद्योगिक दुनिया की खूबियों और खामियों से भरा पड़ा है । वह उसी तर्ज पर समाज
को एकरैखिक चलाने का प्रयास कर रहा है लेकिन समाज की गति तो चक्रिय होती है। उसका
यथार्थ आदर्श से बहुत अलग होता है। ‘वे बहत्तर घंटे’ की कहानियाँ माँ, हृदय परिवर्तन, जिद, बुद्धिमान और बुद्धिहीन आदि के माध्यम से लेखक
ने कोई न कोई उपदेश देने की कोशिश की है। राजेश माहेश्वरी की कहानियों को पढ़कर
लगता है जैसे हम भारतेन्दु युग के उपदेश प्रधान उपन्यास पढ़ रहें हों। वास्तव में
अब साहित्य उपदेश प्रधान शैली से बहुत आगे निकाल चुका। इस तरह की कहानियों का
औचित्य व्यक्तिगत जीवन में चाहे जो भी हो सामाजिक यथार्थ से इनका कोई खास लगाव
नहीं बन पाता। इस तरह की कहानियाँ लेखकीय संतुष्टि के लिए छप जाएँ तो अलग बात है
नहीं तो आम लेखक का लिखा हुआ होता शायद ही पुस्तक का आकार ले पाता।
पथ
‘पथ’ कहने को तो आत्मकथा है लेकिन आत्मकथा जैसा कुछ
इसमें दिखाई नहीं देता। पढ़ने पर ऐसा लगता है कि कुछ अपनी बात कहने के बाद लेखक
लगातार उद्योग-धंधों के पुष्पित-पल्लवित होने के गुर सिखा रहा है। आत्मकथा सिर्फ
अपनी बात या अपनी समस्याएँ नहीं होता है। उसमें अपने समय और समाज का सच भी होता है
। अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के अतिरिक्त भी समाज में कुछ है । इसमें ऐसा लगता है
जैसे लेखक ने मान लिया है कि हम अगर असफल हैं तो दुनिया असफल है, हम यदि सफल हैं तो दुनिया सफल है। लेखक एक बड़े औद्योगिक घराने से आते हैं
इसलिए उनका वास्तविक लगाव भी जमीन के लोगों से नहीं हो सकता और उनसे उस तरह का
लिखने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। लेकिन इतनी उम्मीद तो जरूर की जा सकती है कि
कुछ भी लिखते समय लेखक की आँख खुली रहे और वह भारत को देखने की कोशिश करे। उनकी
दृष्टि का पता चलता है जब वे लिखते हैं कि,, ‘चैंबर आफ कामर्स का अपना कोई आय का स्रोत नहीं होता है। सरकार को चाहिए कि
वह व्यापारी अथवा उद्योगपति द्वारा यदि कोई राशि चैंबर को दी जाती है तो उस राशि
पर उसे आयकर में छूट प्रदान करनी चाहिए ।” मुख्य समस्या यह है ।
कुल मिलकर यदि तीनों पुस्तकों का अगर
सम्मिलित मूल्यांकन किया जाय तो जो बात निकलकर आती है वह यह कि लेखक ने अपने जीवन
क्षेत्र की आदर्शमूलक बातों को ही अलग-अलग विधाओं में अभिव्यक्त करने की कोशिश की
है। लेखक खुद उद्योगपति हैं इसलिए वे चाहते हैं कि इस देश में उद्योग साफ-सुथरे
हों, जिनमें निरंतर विकास हो। उद्योगपति भी नैतिकता सम्पन्न हों। समाज में
किसी तरह की कोई बुराई न हो। इसे लेखक की भली मानसिकता कहा जा सकता है । लेकिन आज
हमारे समाज में नैतिकता और आदर्श कितना बचा है या उसका कितना पालन हो रहा है उससे
हम सभी परिचित हैं। इसलिए इस तरह के आदर्श सिर्फ लिखने के लिए ही अच्छे होते हैं ।
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