संतोष
कुमार राय
प्रदूषण की समस्या दिल्ली
और आसपास के इलाकों में जिस तरह धुंध और धुएँ के रूप में फैली है, जिसे स्मोग के नाम से जाना जा रहा है, वह अनायास
नहीं है। यदि इसका उचित समाधान नहीं हुआ तो आने वाले समय में यह और खतरनाक रूप ले
सकती है। दरअसल इसका सबसे बड़ा और खतरनाक कारण पराली को खेतों में जलाना और उससे
निकलने वाला धुआँ है। जहाँ भी धान की खेती हो रही है, वहाँ
और उसके आस-पास के इलाकों के लिए यह एक विकट समस्या का रूप ले रहा है। अब चिंता की
बात यह है कि इसका समाधान क्या है? कैसे इससे निजात मिलेगी? सरकार और कृषक दोनों के स्तर पर इसका संयुक्त समाधान क्या हो सकता है? इस तरह के कई सवाल हैं जो इससे जुड़े हैं और हमारे जीवन से भी जुड़े हैं।
दिल्ली, हरियाणा
और पंजाब में फैली धुंध पर जैसा हो हल्ला हो रहा है वह वास्तविक समस्या की जड़ में
पहुँचने की बजाय बेमतलब शोर है। राज्यों की तू-तू मैं-मैं और दोषारोपण से सरकारी
तंत्र की संवेदनहीनता और गैर ज़िम्मेदारी को समझा जा सकता है। क्या यह पूरा सच है
कि शहरों में चलने वाले वाहनों और उनकी बेतहासा बढ़ती हुई संख्या ही केवल जिम्मेदार
है ? जिसे लेकर दिल्ली सरकार पिछले वर्ष के नाटक को इस वर्ष
भी दोहराना चाहती थी। असल में यह एक दिल्ली सरकार का नाटक और ढोंग है जो उसका
सरकारी स्वभाव बन गया है। किसी भी समस्या की गंभीरता को समझे बिना उस पर इवेंट
करना, उसे उत्सवी रूप देना एक तरह की नकारा मानसिकता की
पहचान है।
दिल्ली वालों के लिए साफ हवा, साफ पानी और साफ वातावरण की महती जरूरत है, क्योंकि
दिल्ली माननीयों का शहर है। अब समय ने यह संकेत दे दिया है कि माननीयों को भी
दिल्ली के बाहर देखना होगा और समय रहते बाहर वालों के विषय में सोचना होगा। दिल्ली
में अन्य जगहों की तरह खेती किसानी नहीं होती, लेकिन जहां
खेती होती है, वहाँ का धुआँ दिल्ली के जीवन को दमघोंटू बना
रहा है। इसके दो कारण हैं। पहला दिल्ली की सघनता, जिसमें
ऊंचे-ऊंचे भवनों के कारण हवा की गति अवरुद्ध हो जाती है। दूसरा सघन बसावट और
पेंड-पौधों की कमी की वजह से यह अधिक देर तक वातावरण में रुका रहता है। दिल्ली से
सटे अन्य क्षेत्रों में धुआँ ज्यादा देर तक नहीं टिकता क्योंकि वहाँ की हवा साफ है
और उसमें आक्सीजन की मात्रा अधिक है, पेड़-पौधे अधिक हैं तथा
ग्रामीण आबादी की सघनता कम है, जबकि दिल्ली-एनसीआर की सघनता
वहाँ की अपेक्षा कई गुना अधिक है, साथ ही यहाँ की हवा में
औद्योगिक और वाहनों से निकलने वाली अनेक जहरीली गैसों का प्रभाव भी बहुत अधिक है। दिल्ली
के लोगों को यह सोचना पड़ेगा कि बाहर का धुआँ जहां से पैदा होता है उसकी समुचित और स्थायी
व्यवस्था की जाय, जो आर्थिक दृष्टि से भी किसानों के लिए
लाभकारी हो। तभी इससे निजात मिलेगी।
अब इसका समाधान क्या हो सकता है? या तो किसानों पर पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाय, जो नितांत अस्वाभाविक और तानासाही आदेश होगा। दूसरी बात यह कि यदि सरकारी
तंत्र ने ऐसा कर भी दिया तो इसका सीधा असर कृषि उत्पाद पर पड़ेगा, जो इससे भी अधिक खतरनाक हो सकता है। वास्तव में समस्या की जड़ में किसानों
की स्थिति है। आज की खेती का अधिकांश मशीनों से हो रहा है। लिहाजा पराली जैसे अनेक
कृषि अपशिष्टों की जरूरत बहुत कम रह गई है। दूसरी ओर किसान को दूसरी फसल के लिए
खेत को जल्द से जल्द खाली करना होता है इसलिए उसके सामने जलाने के सिवा कोई दूसरा
आसान विकल्प नहीं ही। पहले पराली का उपयोग पशुओं के चारे के लिए होता था। कृषि
मजदूरों की उपलब्धता अधिक थी इसलिए यह बहुत आसान होता था। आज वैसी स्थिति नहीं है।
अब पराली को किसी नए उत्पाद के रूप में उपयोगी बनाना होगा जिससे कुछ धनोपार्जन भी
हो।
इसके दो रास्ते हैं—पहला सभी तरह के
कृषि उत्पादों से कोयला बनानाऔर दूसरा इससे प्लाई बनाना तथा इसके उपयोग को बढ़ाना।
इसका सबसे बड़ा लाभ पर्यावरण के लिहाज से है और यह दो तरह का है। उद्योगों को चलाने
के लिए जो कोयला उपयोग होता है उसके खनन में कमी आयेगी, जिससे हमारी खनिज सम्पदा लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी और यह पर्यावरण के
लिए बहुत अच्छा सिद्ध होगा। इसका दूसरा लाभ यह होगा कि जो धन खदानों से कोयला
निकालने में खर्च होता है उसका बेहतर उपयोग कृषि अपशिष्ट से कोयला बनाने में किया
जाय तो इसका सीधा-सीधा आर्थिक लाभ किसानों और खेतिहर मजदूरों को मिलेगा। शहरों और
औद्योगिक इकाइयों पर दिनोंदिन बढ़ने वाला बोझ भी कम होगा। उदाहरण के लिए नारियल के
अपशिष्ट से बनने वाले कोयले को देखा जा सकता है जो अफ्रीका और यूरोप के कई देशों
में निर्यात होता है। दूसरा धन की भूसी का कोई उपयोग नहीं होता था लेकिन आज धान की
भूसी से तेल निकलता है और उसकी अच्छी कीमत मिलती है। इस प्रकार पर्यावरण और कृषि
के अनुकूल सरकार को ध्यान देना होगा तभी मुकम्मल समाधान निकल सकता है। बिना किसी
व्यस्थित समाधान के इससे मुक्त होना लगभग असंभव है।
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