भारत का विकास लेकिन पिछड़े किसान


सन्तोष कुमार राय
2 जुलाई के राष्ट्रीय सहारा मे प्रकाशित....
 
किसी भी देश का विकास सिर्फ देश के मुट्ठी भर लोगों के विकास से तय नहीं होता, उसके लिए जरूरी है कि देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखा जाय। भारत में भी विकास का कुछ ऐसा ही पैमाना दिखाया जा रहा है जो एक खास वर्ग के विकास को दर्शाता है। आज भी भारत के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं।
पिछले दस वर्षों से इस देश में किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। देश के विभिन्न हिस्सों के हजारों किसान आत्महत्या कर लिए लेकिन सरकार की ओर से कोई भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया गया जो किसानों तक पहुंचे और उन्हें राहत पहुंचा सके। दरअसल हमारे देश में इस तरह की समस्याओं को लगातार दबाने की कोशिश की जाती है जिससे सरकार और प्रशासन पर किसी तरह के आरोप न लगे।
पिछले बजट में सरकार की ओर से किसानों के लिए कई राहत पैकेज की घोषणा की गई लेकिन अभी तक उसका असर किसानों के आम जन जीवन पर दिखाई नहीं दे रहा है। केंद्र और राज्य के बीच में आखिर ये किसान क्यों पीस रहे हैं? अगर केंद्र सरकार की ओर से इस तरह के बजट की घोषणा होती है तो उसे किसानों तक पहुँचाने की व्यवस्था भी केंद्र को करनी चाहिए। इस तरह के विवादों मे उलझने के बाद आम आदमी क्या कर सकता है। देश के कई राज्यों में अभी विधान सभा चुनाव हुए हैं जिनमे उत्तर प्रदेश भी है। उत्तर प्रदेश में किसानों की बदहाली कैसी है इससे केंद्र अंजान नहीं है। महाराष्ट्र के विदर्भ की क्या हालत है इससे पूरा विश्व वाकिफ है कि यहाँ के कितने किसानों ने इस दुर्व्यवस्था के चलते जान दे दी और अभी भी यह सिलसिला थमा नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या विश्व के किसी भी क्षेत्र से अधिक है। आखिरकार इस आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? किसानों की इस दुर्दशा के लिए सरकार की कोई ज़िम्मेदारी बनती है या नहीं? हम अपने नैतिक दायित्वों से कब तक पीछे हटते रहेंगे? क्या इस देश में आत्महत्या करने वाले किसान अधिकार विहिन हैं? क्या उनकी समस्या इस देश की समस्या नहीं है? क्या वे सिर्फ वोट देने तक सीमित हैं? पिछले तीन-चार महीने से उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार चल रहा था लेकिन किसी भी पार्टी ने खुलकर किसानों की समस्याओं को आधार नहीं बनाया। एकदूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप से बाहर निकलने की कोशिश किसी ने नहीं की। वही पुराने जुमले जाति और धर्म को इस बार भी भुनाने की कोशिश की गई।
उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने किसानों और मजदूरों के लिए क्या किया यह सारा देश जनता है। नोयडा में भूमि अधिग्रहण के समय सरकार के सुलूक को देखा गया कि वह कितनी किसान हितैषी है। केंद्र सरकार ने उस समय हस्तक्षेप जरूर किया था और राहुल गांधी ने अनेक तरह के जल्दबाज़ी में बयान भी दे डाले थे लेकिन चुनावी मुद्दों से वे किसान गायब थे, जिनके घर जाकर खाने का नाटक राहुल गांधी अनेक बार कर चुके हैं।
सरकार को अब किसानों की समस्याओं को देश की मुख्य समस्या में शामिल करना चाहिए। किसानों की रक्षा सरकार का कर्तव्य है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। किसान इस देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हैं,साथ ही किसानों की रक्षा के द्वारा ही इस देश की कृषि संस्कृति की रक्षा हो सकती है। किसानों के विकास को अनदेखा करके देश के विकास की परिकल्पना अधूरी है। देश के विकास को प्रतिशत में बताने देश की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जनता पर तभी प्रभाव पड़ता है जब उसका जीवन आसान होता है। सरकार की नीतियों में शामिल राहत योजनाओं का सम्पूर्ण लाभ किसानों को मिले इसका ध्यान प्रशासन को रखना होगा, अन्यथा किसी भी कागजी योजना का कोई मतलब नहीं है।

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