प्रेमचंद और दलित प्रश्न : जेकरे खातिर चोरी कईली उहे कहे चोरवा--नामवर सिंह


          सन्तोष कुमार राय
इसका कुछ हिस्सा रिपोर्ट के रूप मे यथावत के इस अंक में प्रकाशित हुआ है....
          दलित चिंतकों और साहित्यकारों ने प्रेमचंद के लेखन पर एकबारगी प्रश्नचिन्ह लगाया है। उन्हें दलित विरोधी घोषित किया है। सामंती और वर्ण-व्यवस्था का पोषक कहा है। ब्राह्मणवादी कहा है और न जाने क्या-क्या कहा है। यह किसी भी संवेदनशील साहित्य प्रेमी के लिए ग्राह्य नहीं है। इन्हीं बातों से आहत होकर नामवर सिंह ने प्रेमचंद के लेखन में अभिव्यक्त दलित संदर्भ को दलित आलोचकों द्वारा नकारने और उन्हें खारिज करने पर कहा कि जेकरे खातिर चोरी कईली उहे कहे चोरवा। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रेमचंद के अध्ययन की नई दिशाएँ विषय पर एक संगोष्ठी हुई जिसके वक्ता हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह, दलित साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम, मृदुला गर्ग और रोहिणी अग्रवाल थीं। इसका संचालन और संयोजन डॉ.ओमप्रकाश सिंह ने किया। हिंदी साहित्य में दलित विमर्श को लेकर पिछले दो दशकों से जद्दोजहद चल रही है। इतने दिनों बाद भी इस क्षेत्र में कोई सम्यक दिशा नहीं बन पायी है, जिसे लेकर दलित और गैर दलित बातचीत कर सकें। हिंदी के सभी बड़े आलोचक इस विषय पर बहुत साफ-साफ बोलने से बचते रहे हैं, खासकर वामपंथी आलोचक। इस कड़ी में नामवर सिंह का भी नाम आता है। नामवर सिंह ने पिछले दस वर्षों में दलित साहित्य को लेकर कम से कम दो दर्जन से अधिक संगोष्ठियों में तमाम अंतर्विरोधी बातें कही हैं। कई जगह वे दलित साहित्य की वैचारिकी, साहित्यकारों की ऊर्जा संपन्न दृष्टि और उसके विकास की उर्वर जमीन की गाहे-बगाहे तारीफ करते रहे हैं, लेकिन उसकी रचनात्मकता की दिशा को लेकर आलोचना भी किया है। इस बार नामवर जी दलित वैचारिकी की आलोचना की जगह हमलावर के रूप में दिखे।
          हिंदी की अन्य संगोष्ठियों की तरह यह भी अपने विषय के एक पक्ष पर ही अंत तक चलती रही। जहां प्रेमचंद के साहित्य के अध्ययन के अनेक पहलुओं पर चर्चा परिचर्चा होनी चाहिए थी वहाँ प्रेमचंद बनाम दलित बनाकर पूरी बातचीत हुई। संगोष्ठी की शुरुवात जयप्रकाश कर्दम के वक्तव्य से हुई। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद साहित्य के गांधी हैं। उनके लेखन में दलितों के लिए करुणा का भाव है। दलित जीवन के प्रति उनकी मुखरता अस्पष्ट है। उनमें दलित पक्षधरता का अभाव है। वे उनकी आवाज नहीं बन पाते। सामंती समाज की आलोचना वे दबी जुबान से करते हैं। वर्ण-व्यवस्था को नकार नहीं पाते। उदाहरण के रूप में उन्होंने रंगभूमि, ठाकुर का कुआं, सद्गति और कफन को लिया। जयप्रकाश कर्दम का इशारा उसी अनसुलझे सवाल की ओर था जो पिछले कई वर्षों से हिंदी की संगोष्ठियों में छाया हुआ है। दलित लेखकों को गैरदलित में सहानुभूति नजर आती है और गैर दलित खुद को दलितों का हितैषी सिद्ध करने के लिए बेताब हैं। सहानुभूति और स्वानुभूति के झगड़े में पूर्वाग्रह और दुराग्रह को फैलने को पूरा अवकाश मिला है। दलित लेखकों का मानना है कि गैरदलित दलित साहित्य कैसे लिखा सकता है? और अगर प्रेमचंद को दलित हितैषी कह देंगे तो फिर आज के रचनाकारों को कैसे खारिज कर सकते हैं, जो गैरदलित होते हुए भी घोषित तौर पर दलित जीवन के पक्ष में लिख रहे हैं। यही कारण है कि अन्य दलित आलोचकों की तरह जयप्रकाश कर्दम ने भी गैर दलित की लेखकीय सहानुभूति को खारिज किया।
          दूसरे वक्ता के रूप में नामवर जी ने प्रेमचंद के विषय में दलित चिंतकों के विचारों से सहमति व्यक्त की और प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी कहने प्रख्यात दलित आलोचक डॉ.धर्मवीर को आड़े हाथों लिया। प्रेमचंद के चिंतन की भूमि को उन्होंने गांधी से जोड़ा और कहा कि इन्हें क्या कहा जाय ये लोग तो गांधी को भी नहीं  छोड़ते। जिस तरह से ये लोग गांधी और प्रेमचंद का कुपाठ करते हैं मुझे भय है कि किसी दिन ये लोग अंबेडकर का भी कुपाठ न कर दे। अगर गांधी को हिन्दी उपन्यासों में देखना हो तो रंगभूमि के सूरदास को देखना चाहिए। उन्होंने दलित लेखकों की रचनात्मकता को कटघरे में खड़ा किया। रचनात्मकता और साहित्य की विमर्शात्मक राजनीति को अलगाते हुए कहा कि दलित लेखकों ने प्रेमचंद का कुपाठ किया है। उन्होंने सद्गति के हवाले से कहा कि सद्गति कहानी में दुखी चमार द्वारा काटी जा रही लकड़ी की गांठ ही वर्ण व्यवस्था का प्रतीक है जिसे प्रेमचंद कटवा रहे हैं। लेकिन यह दलित लेखकों को समझ में नहीं  आता। डॉ.धर्मवीर की कफन संबंधी टिप्पणी, ‘जिसमें उन्होंने कहा है कि बुधिया के पेट में पल रहा बच्चा जमींदार का है। इसके संबंध में उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि उनको कैसे पता कि वह बच्चा किसी जमीदार का है। उनकी आत्मकथा के प्रसंग में कहा कि अगर उनकी पत्नी के साथ उनके संबंध खराब है इसका मतलब यह नहीं कि पूरे देश की स्त्रियों को वे खराब कहेंगे। यह कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। धर्मवीर की आलोचनात्मक समझ को उन्होंने सभी दलित लेखकों के ऊपर रखते हुए उनका विरोध किया। साथ ही उन्होंने दलित लेखको को नसीहत देते हुए कहा कि अच्छा यह होता कि दलित लेखक प्रेमचंद की साहित्यिक समझ को आगे बढ़ाए होते और अगर ऐसा हुआ होता तो आज दलित साहित्य की स्थिति कुछ और होती। आगे उन्होंने कहा कि दलित लेखकों ने अपने लेखन को प्रेमचंद जैसा बनाने के बजाय अपनी ऊर्जा को आरोप-प्रत्यारोप में जाया किया है। उन्होंने दो टूक कहा कि मैं दलित लेखकों को चुनौती देता हूँ कि वे अपने लेखन में प्रेमचंद की बराबरी करके दिखाएँ। दृढ़ आराधन का उत्तर आराधन से दें। उन्होंने चुटकी के अंदाज में कहा की कपोल से कपोल रगड़े जाते हैं, पैरों से मर्दित नहीं किए जाते। लेकिन इस आरोप और प्रत्यारोप में नामवर जी भी उन लेखकों को भी नजरंदाज कर जाते हैं जो वास्तव में दलित लेखन की गहराई को अभिव्यक्त कर रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसी राम सरीखे संवेदनशील और संतुलित लेखकों पर प्रश्नचिन्ह लगाना या नजरंदाज करना वैसा ही है जैसे डॉ.धर्मवीर का प्रेमचंद संबंधी दृष्टिकोण।

          संगोष्ठी के अगली वक्ता के रूप में रोहिणी अग्रवाल थी। उन्होंने प्रेमचंद के करुण भाव को दलितों और स्त्रियों के लिए नाकाफी बताया। उनका कहना था कि दलित और स्त्री किसी की करुणा जनित सहानुभूति के भूखे नहीं  हैं, वे इसका प्रातिकार करते हैं। लेकिन उनकी बातों से असहमति व्यक्त करते हुए वरिष्ठ महिला कथाकार और स्त्री विमर्शकार मृदुला गर्ग ने कहा कि करुणा को इतना छोटा करके नहीं देखा जा सकता। प्रेमचंद एक ऐसे कथाकार हैं जो करुणा के माध्यम से मानवीय संवेदना की गहराई तक जाते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद एक ईमानदार कथाकार हैं उन्होंने अपने लेखन में करुणा का भाव जगाया है, टिप्पणी नहीं  की है। क्योंकि टिप्पणी करना लेखक का काम नहीं  है, यह आलोचक या पाठक का काम है। आगे उन्होंने कहा कि आज भी दलित और स्त्री विमर्श वहीं खड़ा है जहाँ प्रेमचंद ने छोड़ा था। आज इसकी बहुत अधिक जरूरत है कि अपनी राजनीतिक सौदेबाजी को छोड़कर उसकी वास्तविक भाव भूमि पर विचार किया जाय और उसे अभिव्यक्ति प्रदान की जाय। लेकिन इसके बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि वास्तव में प्रेमचंद को हम किस दृष्टि और वैचारिक आग्रह के साथ नए संदर्भों में देखें। दरअसल आज का साहित्य लेखन इस तरह की राजनीतिक बहसों में फंस गया है कि उसे हमारे आलोचक स्पष्ट करने के बजाय और उलझा रहे हैं। यह विमर्श कम पूर्वाग्रह अधिक होता जा रहा है। साहित्य में जिस तरह की उदारता की जरूरत होती है उसका आज सर्वथा अभाव है।

खेती न किसान को भिखारी को न भीख, बलि...


सन्तोष कुमार राय
            भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सर्वसम्मत भूमिका निभाने वाले लोगों में स्वतंत्रता के बाद अगर किसी को सर्वाधिक नजरंदाज किया गया है तो वे भारत के किसान हैं। किसी भी देश के विकास को तब तक विकास नहीं कहा जा सकता जब तक कि उस देश के अन्नदाताओं की समस्याओं का मुकम्मल समाधान न हो। यह दौर किसानों की हत्या बनाम आत्महत्या का है। यह दौर किसानों के स्वाभिमान को कुचलने का है। यह दौर ईमानदारी की निलामी का है। यह दौर मानवता के चरम क्षरण का है। आज किसानों की बड़े पैमाने पर हत्या हो रही है, या यूं कहें कि भारत का सत्ताधारी वर्ग पूँजीपतियों के साथ मिलकर ऐसी साजिश रच रहा है जिसमें फंसकर किसान तड़प-तड़प कर दम तोड़ दें। देश आजाद हुआ और किसानों ने इसमें उस हद तक सहयोग किया जहाँ वे लगभग बर्बाद हो गये। अपनी बर्बादी की परवाह किए बिना किसानों ने भारत के स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई लड़ी। लेकिन आजादी के बाद यह देश दलालों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चला गया। अब जरूरत है दूसरे स्वाधीनता की लड़ाई की जिससे किसानों के अधिकारों की रक्षा हो सके, उन्हें वह वाजिब अधिकार और सम्मान मिल सके जिसके वे हकदार हैं।
            यह देश कृषि प्रधान देश है। हमारी संस्कृति कृषि जीवन पर आधारित है। कृषि हमारे लिए सिर्फ पेट भरने का साधन मात्र नहीं है। वह हमारी संस्कृति है, हमारी सभ्यता है, हमारी जीवन शैली है, हमारी अस्मिता है, और हमारा स्वाभिमान है। हमें उस पर गर्व है। कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने अपना आम बजट संसद में पेश किया जिसमें उन्होने देश के विकास में आर्थिक मदद करने वाले क्षेत्रों की हिस्सेदारी का खाका प्रस्तुत किया और यह बताया कि हमारे वार्षिक विकास में कृषि क्षेत्र की भूमिका बहुत कम है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सहयोग में सर्वाधिक भूमिका औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले पूँजीपतियों की है। अगर यह पूछा जाय कि औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग खाते क्या हैं, तो क्या उनका जवाब क्या होगा? यह कितनी बड़ी अदूरदर्शी और मूर्खतापूर्ण नीति है जिसमें जीवन की प्रमुख जरूरत की तुलना औद्योगिक उत्पादों से होती है जिनके बिना भी जीवन संभव है। अगर तुलना की ही बात है तो वह तुलना सिर्फ एक, दो या पाँच-दस साल की नहीं होनी चाहिए। पिछले सौ-दो सौ सालों की तुलना करिये और फिर बताइये कि इस देश में कृषि क्षेत्र की क्या भूमिका रही है।
            किसानों के हितों की रक्षा के लिए जिस लड़ाई की शुरुआत स्वामी सहजानंद ने शुरू किया उसका अवसान भी उनके अवसान के साथ ही हो गया। स्वतंत्र भारत के नए शासक भी बहुत हद तक औपनिवेशिक शोषण की प्रणाली में ही दीक्षित हुए थे। इसलिए देश की कमान हाथ में आने के बाद उनके स्वभाव और कार्यशाली में भी वही मादकता आ गई जो मादकता उनके पूर्ववर्ती शासकों में थी। अपने समय की भयावहता को ध्यान में रखकर जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन होता है। वहीं भारतीय राजनीति और नेताओं को देखकर धूमिल ने लिखा कि, कुर्सियाँ वही हैं, बस टोपियाँ बादल गईं हैं। भारत का सत्ताभोगी वर्ग लगातार किसानों की परेशानियों से खुद को दूर करता चला जा रहा है। आजादी के बाद की पहली पीढ़ी का शासन काल कुछ-कुछ किसान चेतना से प्रभावित लगता है। उसका कारण यह है कि उस पीढ़ी में अनेक नेता ऐसे थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनमें से अधिकतर किसान परिवारों से थे। जैसे-जैसे इस देश का तथाकथित विकास (मैं आज के विकास को विकास नहीं मानता क्योंकि यह इस देश की नब्ज के साथ भेदभाव अधिक हुआ है विकास कम।) होता गया या यह कहा जाय कि जैसे-जैसे इस देश में दोयम दर्जे की राजनीतिक का विकास होता गया वैसे-वैसे आम लोगों का शोषण और अधिक बढ़ता गया।
            आज किसानों का भविष्य अंधकार में है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस अंधकार को और सघन किया जा रहा है जिससे किसी भी तरह का प्रतिरोध न हो। पिछले चौदह-पन्द्रह वर्षों से इस देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसानों की दशा बहुत अच्छी थी, बिलकुल भी नहीं। किसान इससे पहले भी शोषित था और आज भी शोषित है। दरअसल भारत में जब से नवपूंजीवाद का आगमन हुआ है तब से किसानों का जीवन और कठिन हो गया है। वैसे तो किसानों के उपर मुगल काल से लेकर अंग्रेजों तक सभी ने कड़ा रूख ही अख्तियार किया है और जिससे जितना बन पड़ा है शोषण किया है या जिसको जितनी जरूरत रही है उतना शोषण किया है। इसी तरह के शोषण की एक बानगी मध्यकालीन कवि तुलसीदास ने व्यक्त किया है। उन्होंने अपने समय की भयावहता को इन शब्दों में व्यक्त किया है “खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी, जीविकाविहीन लोग सद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों कहाँ जाई, का करी....।” यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी, और जब लोकतंत्र आया तब भी, किसान शोषण से मुक्त नहीं हुए। दरअसल किसान विश्व का एक ऐसा समाज है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असम्भव है, फिर भी हमारे यहाँ प्रकारांतर से किसान उपेक्षा के शिकार होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। इस उपेक्षा और अपमान का उदाहरण है हमारे देश के किसानों की आत्महत्या।
            किसानों की आत्महत्या के दस्तावेज़ जबसे उपलब्ध हैं, अगर आज के संदर्भ में उसे ही आधार बनाया जाय तो भी हमारी बात स्पष्ट हो जायेगी। उदाहरण के तौर पर विदर्भ, बुंदेलखंड, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु को देखा जा सकता है, जहां कुछ जागरूक लोगों के द्वारा किसानों की आत्महत्या को पहली बार 1997-98 में रिकार्ड में दर्ज करवाया गया। उसके बाद से आज तक किसानों की आत्महत्या में लगातार बढ़ोत्तरी ही हुई है और यह बद्स्तूर जारी है। ऐसा नहीं है कि इस ओर सरकार का ध्यान नहीं गया है, गया भी है और कई तरह के कर्जमाफी की राजनैतिक-अवसरवादी घोषणाएं भी हुई हैं, पर इसमें कोई अंतर नहीं आया है। आज देश के किसान जिस व्यवस्था में खड़े हैं उसमें आत्महत्या कोई बड़ी बात नहीं है। इसके सिवा और कोई रास्ता उनके पास अपनी अस्मिता की रक्षा का नहीं है। किसानों की आत्महत्या के जिन कारणों पर बात होती है उनमें गरीबी, महँगाई आदि तो है ही जिस पर बहुतों ने लिखा है। एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण और भी है जो आज के अति-गतिमान समय में बहुत से लोगों के लिए हास्यास्पद के सिवा और कुछ भी नहीं है, लेकिन किसान संस्कृति और जीवन के लिए उससे बड़ा कुछ भी नहीं है और वह है अपनी मर्यादा और अस्मिता की रक्षा। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनमें से एक बड़ा भाग ऐसा भी है जिसने अपनी मर्यादा की रक्षा न कर पाने की वजह से अपनी जान गवाई है। यहाँ हमें प्रेमचंद का गोदान याद आता है जिसमें एक किसान को किस तरह से मजदूर बना दिया जाता है और लगातार अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए जूझता हुआ मर जाता है। मैं गोदान में होरी की मृत्यु को इस व्यवस्था के द्वारा की गई हत्या मानता हूँ। उदाहरण के लिए विदर्भ की एक घटना को देखा जा सकता है। दरअसल, किसानों की आत्महत्या के जो प्रमुख कारण हैं उनमें कृषि से होने वाले पैदावार में लगातार आने वाली कमी भी है। उसके बाद किसानों की मूल समस्या कर्ज की है, जो फसल के नुकसान हो जाने पर वे ब्याज पर पैसा देने वालों से लेते हैं। इस देश में व्यक्तिगत तौर पर मिलने वाला कर्ज एक व्यवसाय का रूप धारण कर चुका है जो प्रशासन के अवैध संरक्षण में खूब फल फूल रहा है। इस तरह के कर्ज में फंसने के बाद फिर बाहर निकलना बहुत कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिनों पहले विदर्भ का एक किसान तीस हजार रुपये का कर्ज न देने के कारण आत्महत्या कर लिया। इस पर कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि इतने कम पैसे के लिए कोई आत्महत्या क्यों करेगा? जब इसका पता लगाया गया तो पता चला कि उसने कर्ज तीन साल पहले लिया था जब उसकी कपास की फसल बर्बाद हो गयी थी। वह खेती से होने वाली आमदनी से उसका ब्याज चुकाता रहा लेकिन सेठों का मूलधन वैसा ही बना रहा। कर्ज का ब्याज चुकाने की वजह से वह अपने परिवार का भरण-पोषण भी बड़ी मुश्किल से कर पा रहा था। ब्याज की एक किस्त न दे पाने की वजह से एक दिन सेठ पैसा मांगने उसके घर आ गया और गाँव के सभी लोगों के सामने उसकी पत्नी और बच्चों को भला-बुरा कहने लगा। उस किसान को जब इसका पता चला तो शर्म के मारे घर नहीं आया और अपने खेत पर ही आत्महत्या कर लिया। इसका कारण कर्ज तो था ही, साथ में वह अपमान भी था जो इस अनैतिक और मूल्यहीन समाज ने उसे दिया। दरअसल इसे बताने का उद्देश्य यह है कि भारत अगर अपनी नैतिकता के लिए जाना जाता है तो वह इन्हीं गांवों में बची हुई है। वैश्विक परिदृश्य में जिस भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है वह किसी पूंजीपति के घर नहीं पैदा हुई थी। उस संस्कृति का विकास इन्हीं किसानों के घर हुआ था। आज के समाज में थोड़ी बहुत मानवता और नैतिकता अगर बची हुई है तो वह इस किसानों के यहाँ ही है। लेकिन आज का आधुनिकतावादी समाज उस नैतिक मूल्यों को लगातार समाप्त करने पर तुला हुआ है और वह दिन दूर नहीं जब चारों ओर अनैतिकता और असभ्यता का बोल बाला होगा।
            आज यह किसी को भी नहीं पता है कि आने वाले घंटे में कितने किसान आत्महत्या कर लेंगे। यदि आत्महत्या के आंकडों पर नजर डाली जाय तो आज के किसानों की स्थिति समझ में आयेगी। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पहली बार 1997 में इसे रिकार्ड में दर्ज किया गया। उसके अनुसार 1997-98 में छ: हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। यह सिलसिला 2006 से 2008 के बीच भयानक बढ़ गया और पूर्व की तुलना में पचास प्रतिशत से भी ज्यादा की बृद्धि हुई। 2008 में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विदर्भ दौरा भी हुआ और किसानों के हित में कई घोषणाएं भी हुई लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उस समय के लोकसभा चुनाव में यूपीए के नेताओं ने इन घोषणाओं को पानी पी-पीकर गिनाया और भुनाया, लेकिन किसानों की यह दरूण दशा लगातार बढ़ती रही और आज तक उसे रोका नहीं जा सका। इसका प्रभाव घटने के बजाय अन्य प्रांतों के किसानों पर भी पड़ा, मसलन बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी छिटपुट खबरें आयीं। इन आत्महत्याओं के रिकार्ड के संदर्भ में सरकार के अपने स्रोत हैं जो किसी वर्ष संख्या को बढ़ा देते हैं तो किसी वर्ष घटा देते हैं लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आज विदर्भ का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों के अनाथ बच्चों की चित्कार न गूंजती हो। इधर एक  चिंताजनक बात यह भी आयी है कि आज से दस साल पहले जिन किसानों ने आत्महत्या किया था अब उनकी नयी पीढ़ी भी उसी कार्य को करने के लिए अभिशप्त है।
       हमारे यहाँ आत्महत्या जैसे कृत्य को बहुत हेय माना गया है लेकिन पश्चिम में इसे कुछ लोगों ने बहादुरी का कार्य माना है और उनके यहाँ इसे विरोध के एक हथियार के रूप में भी देखा गया है। किसानों की स्थिति उपरोक्त में से कोई भी नहीं है, क्योंकि न तो वे कोई हेय कृत्य करना चाहते हैं और न ही वे बहादुरी का मरणोपरांत पुरस्कार चाहते हैं। असल में वे इस बर्बर व्यवस्था के हाथों मजबूर होकर आत्महत्या करते हैं। क्योंकि आदमी जीवन और समाज से जब हार जाता है तभी इस तरह का कार्य करता है। यहाँ सारी लड़ाई भूख की है। भूख मनुष्य को कितना निरीह, कमजोर और मूक बना सकती है इसका अदांजा सहज रूप से नहीं लगाया जा सकता। हम सोच सकते हैं कि पचीस हजार या पचास हजार जैसी छोटी रकम के कर्जदार आत्महत्या क्यों करेंगे? वे जिस देश में रहते हैं उसका अगर इतिहास लिखा जायेगा तो निश्चित तौर पर वह घोटालों और भ्रष्टाचार का अभी तक का सर्वोत्तम उदाहरण होगा। मूल्यहीनता के ऐसे परिवेश में यदि किसानों के पास कोई रास्ता नहीं रहेगा तो वे क्या करेंगे? आज किसानों के साथ खड़ा होने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा है। आज कोई स्वामी सहजानंद जैसा किसान हितैषी नहीं है। यह समस्या किसानों के सामने बहुत बड़ी है कि उनकी समस्या को कौन सुनेगा और उसे वे किसे सुनायेगे ?  समाज में प्रत्यक्ष रूप से काम करने वाला दो वर्ग है। पहला वर्ग राजनेताओं का है तथा दूसरा वर्ग कुछ उन पेशेवर समाज चिंतकों का है जो इस तरह के लोगों की मदद करने की बजाय उसे लगातार जिंदा रखना चाहते हैं जिससे उन्हें सेवा करने का कोई भारी भरकम पुरस्कार मिले और उनकी दुकान चलती रहे। अभी तक जो आंकड़े कुछ समाज कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सरकारी दस्तावेज के रूप में मौजूद है उनके अनुसार पिछले 14 वर्षों में सिर्फ विदर्भ में यह संख्या पचास हजार से अधिक है।
            उपर्युक्त दोनों कारणों के अतिरिक्त तीसरा कारण है लगातार बढ़ती हुई महँगाई। आज से दस साल पहले तक वही किसान खेती बारी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर लेते थे लेकिन आज वे असमर्थ हैं। इसका कारण सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही नहीं है। इसका कारण उनके ऊपर लगातार लादी जाने वाली मंहगाई भी है जो उन्हें आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर कर रही है। क्योंकि यह इसी देश में हो सकता है कि जब प्याज किसान के पास नहीं होता है तो अस्सी रुपये किलो के भाव से बिकता है और जब किसान के पास होता है तो कोई आठ रुपये भी नहीं पूछता है। किसानों के लिए इस देश में कोई भी वेतन आयोग की सिफारिस नहीं की जाती ऐसे में क्या उन्हें अपने पैदावार का उचित मूल्य नहीं मिलना चाहिए, यह सवाल खुद को किसानों का हितैषी बताने वाली सरकार के लिए भी है। यह गिनाने से कुछ नहीं होने वाला है कि हमने यह किया और वह किया। सरकार का काम ही है देश को सुरक्षा देना। असल में सरकार जो कुछ भी करती है वह भी अपनी संपूर्णता में लोगों को नहीं मिलता है। आज यह भी जरुरत है कि सरकार द्वारा की गयी सहायता को जरुरतमंद लोगों तक पहुँचाया जाय। हमारा देश चाहे जितना आधुनिक हो जाय अगर हमारे देश के किसान आत्महत्या करते रहेंगे तो ऐसी आधुनिकता और विकास कम से कम हमारे देश के उन लोगों के लिए व्यर्थ ही सिद्ध होगा जिनका जीवन कृषि आधारित है, क्योंकि हमारे यहाँ आज भी आधे से अधिक आबादी कृषि से अपना गुजारा करती है। इसलिए आज हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारे किसान बचें और कृषि संस्कृति भी को भी बचाया जाय तभी विकास की असली अर्थवत्ता सिद्ध होगी। किसी भी देश का विकास सिर्फ देश के मुट्ठी भर लोगों के विकास से तय नहीं होता, उसके लिए जरूरी है कि देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखा जाय। भारत में भी विकास का कुछ ऐसा ही पैमाना दिखाया जा रहा है जो एक खास वर्ग के विकास को दर्शाता है। आज भी भारत के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। पिछले दस वर्षों से इस देश में किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। देश के विभिन्न हिस्सों के हजारों किसान आत्महत्या कर लिए लेकिन सरकार की ओर से कोई भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया गया जो किसानों तक पहुंचे और उन्हें राहत पहुंचा सके। दरअसल हमारे देश में इस तरह की समस्याओं को लगातार दबाने की कोशिश की जाती है जिससे सरकार और प्रशासन पर किसी तरह के आरोप न लगे।

            पिछले बजट में सरकार की ओर से किसानों के लिए कई राहत पैकेज की घोषणा की गई लेकिन अभी तक उसका असर किसानों के आम जन जीवन पर दिखाई नहीं दे रही है। केंद्र और राज्य के बीच में आखिर ये किसान क्यों पीस रहे हैं? अगर केंद्र सरकार की ओर से इस तरह के बजट की घोषणा होती है तो उसे किसानों तक पहुँचाने की व्यवस्था भी केंद्र को करना चाहिए। इस तरह के विवादों में उलझने के बाद आम आदमी क्या कर सकता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की बदहाली कैसी है इससे केंद्र अंजान नहीं है। महाराष्ट्र के विदर्भ की क्या हालत है इससे पूरा विश्व वाकिफ है कि यहाँ के कितने किसानों ने इस दुर्व्यवस्था के चलते जान दे दी और अभी भी यह सिलसिला थमा नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या विश्व के किसी भी क्षेत्र से अधिक है। आखिरकार इस आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? किसानों की इस दुर्दशा के लिए सरकार की कोई ज़िम्मेदारी बनती है या नहीं? हमारी व्यवस्था अपने नैतिक दायित्वों से कब तक पीछे हटती रहेगी? क्या इस देश में आत्महत्या करने वाले किसान अधिकार विहीन हैं? क्या उनकी समस्या इस देश की समस्या नहीं है? क्या वे सिर्फ वोट देने तक सीमित हैं? अब यह समय आ गया है कि किसानों को स्पष्ट किया जाय। सरकार को अब किसानों की समस्याओं को देश की मुख्य समस्या में शामिल करना होगा। किसानों की रक्षा सरकार का कर्तव्य है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। किसान इस देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हैं,साथ ही किसानों की रक्षा के द्वारा ही इस देश की कृषि संस्कृति की रक्षा हो सकती है। किसानों के विकास को अनदेखा करके देश के विकास की परिकल्पना अधूरी है। देश के विकास को प्रतिशत में बताने से देश की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जनता पर तभी प्रभाव पड़ेगा जब उनका जीवन आसान होता है। सरकार की नीतियों में शामिल राहत योजनाओं का संपूर्ण लाभ किसानों को मिले इसका ध्यान प्रशासन को रखना होगा, अन्यथा किसी भी कागजी योजना का कोई मतलब नहीं है। 

भारतीय श्रम की अनवरत उपेक्षा

सन्तोष कुमार राय
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित 
          यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जहां हर छोटी बड़ी घटनाओं में लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, वहाँ का श्रमिक वर्ग लगातार उपेक्षा का शिकार होता रहा है। आज यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि श्रमिकों के जीवन का आधार क्या है? कहने के लिए जब देश विकास के न जाने कितने पायदान ऊपर चढ़ चुका है ऐसे में इस देश का श्रमिक वर्ग उपेक्षित क्यों है? उन लोगों की पूंजी क्या है? उनके पास किस प्रकार की पूंजी है? और जो है उसे किस कोटि में रखा जाय? चल या अचल? असल में श्रमिकों के पास श्रम के अलावा कोई भी चल-अचल संपत्ति नहीं होती है। लेकिन जब उसकी उचित कीमत नहीं मिलती है तब गरीब मजदूर या तो भूख से तड़फड़ा कर मर जाता है या फिर आत्महत्या कर लेता है।  आज भारत के श्रमिक वर्ग की हालत पर किस तरह से बात की जाय यह बहुत ही कठिन है। दरअसल स्वतन्त्रता के बाद से लेकर आज तक भारत में श्रमिकों के लिए न तो कोई उपयुक्त कानून बना और न ही कोई ऐसा कदम उठाया गया, जिससे उन्हें उनके किए का उचित मूल्य सही समय पर मिले। पिछले दिनों भारत में श्रम मंत्रालय का 44वां श्रम सम्मेलन हुआ जिसका समापन भाषण प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने दिया था। पिछले सात-आठ वर्षों से प्रधानमंत्री भारत के विकास दर को बढ़ाने की बात करते आ रहे हैं। इस सम्मेलन में भी उन्होंने इसे बढ़ाकर नौ प्रतिशत तक ले जाने की बात की। आज एक मौजू सवाल है कि यह बढ़ी हुई विकास दर का जो पैमाना लगातार दिखाया जा रहा है उससे इस देश के श्रमिकों को क्या लाभ होगा? दूसरा यह कि अगर नौ की जगह अठारह प्रतिशत ही विकास दर हासिल कर ले तो क्या वे अपने शोषण और जहालत भरी जिंदगी से बाहर निकल जाएँगे? उस सम्मेलन के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि सरकार की चिंता श्रमिकों के हित में लगातार बनी हुई है और यह उम्मीद की जा सकती है कि आगे भी बनी रहेगी, लेकिन इसका परिणाम क्या होगा यह अभी तक अंधकार में है और आगे भी अंधकार में ही रहने की संभावना है।
          मजदूरों के अधिकारों को लेकर विश्व में कई बार आंदोलन हुए हैं और मार्क्स जैसे बड़े चिंतकों का लेखन ही इसी पर केन्द्रित और इसे ही समर्पित रहा है। लेकिन आज इस विकास की दौड़ में उन्हें लगभग उपेक्षित कर दिया गया है जिनके लिए कभी सर्वाधिक चिंता व्यक्त की जाती थी। भारत जैसे बड़े देश में जहाँ श्रमिकों की बड़ी तादात है, ऐसे देश में भी उनके हक की बात करने से सत्ताधारी वर्ग कतराता है, बावजूद इसके आज का शासक वर्ग लगातार दंभ भर रहा है कि वह पहले से अधिक मानव रक्षक और मनवातावादी है। इस तरह के जुमले अक्सर राजनीतिक सभाओं में सुनने को मिलते रहते हैं, लेकिन भारत में श्रमिकों की स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। सरकार भारतीय श्रम को किस रूप में देख रही है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है।
          किसी भी देश और समाज का विकास मुट्ठीभर लोगों के विकास और जीवन शैली पर आधारित नहीं होता, वह संपूर्ण समाज के विकास का हिमायती होता है। आज का भारतीय समाज गैर सरकारी क्षेत्रों में काम कर रहे श्रमिकों के प्रति बहुत ही संकीर्ण और दोहरा बर्ताव कर रहा है। सरकार भी उनके लिए उदासीन ही है। अभी तक कोई ऐसा प्रवाधान नहीं है जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि नीजी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर अधिकतम कितने घंटे काम करेंगे। घरेलू मजदूर, भारी काम करने वाले मजदूर, और विभिन्न कार्यालयों में काम करने वाले मजदूरों के लिए किसी भी तरह का प्रावधान नहीं है। ऐसे में हम सरकार की नियत और कर्म पर कैसे विश्वास करें कि वह आम लोगों की हितैषी है। समाज के विकास की जैसी दलील दी जा रही है वह कहीं से भी स्पष्ट नहीं है कि यह विकास किस वर्ग को आधार बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। जहां तक मैं समझता हूँ किसी भी देश या समाज के विकास का पैमाना उस देश की बहुतायत जनता के विकास को ध्यान में रखकर ही गढ़ा जाता है लेकिन यहाँ तो बिलकुल उल्टा है। यहाँ मुट्ठीभर लोगों की विकसित हैसियत के आधार पर इसका निर्धारण किया जाता है और उसे सभी के ऊपर थोप दिया जाता है। आज सरकार और विपक्ष दोनों को इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस देश की श्रमिक जनता का भी समुचित विकास हो सके। 


पहले जैसा दिखाई नहीं देता


सन्तोष कुमार राय
मेरे द्वारा रचित एक छोटी सी कविता है जिसे आज ब्लाग पर आप लोगों के लिए प्रकाशित कर रहा हूँ। अगर अच्छी लगे तो.....
अब मुझे पहले जैसा दिखाई नहीं देता,
लेकिन ये क्या? अभी तो शास्त्रों के अनुसार एक चौथाई ही कटी है जिंदगी।
पहले की तरह अब बहुत कुछ बुरा भी नहीं लगता।
पहले किसी की छोटी से छोटी गलती पर भी उलझ जाता था।
क्यों?
लेकिन आज! आज तो बड़े से बड़े अपराध को भी देखकर चुप हो जाता हूँ,
और न सिर्फ चुप हो जाता हूँ, बल्कि आगे बढ़ जाता हूँ।
थोड़ी देर रुककर कुछ सोचने की जहमत भी नहीं उठाता।
अब मेरे कानों को भ्रष्टाचार, लूट, बलात्कार जैसे शब्दों से पहले जैसी घबराहट नहीं होती।
मेरे कान इन्हें सुनने के आदी हो चुके हैं...
कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व खो चुका हूँ?
रात को सोते समय सोचता हूँ कि अब मुझे पहले जैसा दिखाई नहीं देता।
क्योंकि पहले दिल से देखता था अब आँख से देखता हूँ....

                         

फेसबुक पर ब्लाक करने के संदर्भ में...

सन्तोष कुमार राय

            मित्रों, आजकल फेसबुक पर अपने फ्रेंड्स को ब्लाक करने का मामला खूब चल रहा है। जैसे बचपन में हम अपने किसी दोस्त से नाराज हो जाते थे तो अक्सर कहा करते थे कि मैं तुमसे कट्टी हो गया और बातचीत उस दिन बंद हो जाती थी। उस समय अच्छी बात यह थी कि फिर हम जब अगले दिन मिलते थे तो हम उसी निश्छलता से मिलते थे जिससे हम पहले दिन मिले थे। कोई गिला-शिकवा नहीं रहता था। आज हम बहुत अधिक सिकुड़ गए हैं और व्यक्तिगत संवाद की नापसंदगी के आधार पर हम अपने दोस्तों से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। आज हम अपने आस-पास के लोगों की बुराइयों को पहले देखते हैं, अच्छाईयों को बाद में। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक आदमी में सिर्फ बुराई ही बुराई भरी पड़ी हो। बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे हम न तो देखने की इच्छा रखते हैं और न ही कोशिश करते है। कुछ दिन पहले ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। कई दिनों से मैं इस ऊहापोह में था कि इस बात को आप सभी से साझा करूँ या नहीं, लेकिन आज सोचा करना चाहिए। उस दिन ऐसा हुआ कि मैंने उस मित्र से आनलाईन बात कर रहा था जो कि खुद को प्रतिष्ठित साहित्यकार मानता है। असल में थोड़ी प्रतिष्ठा मिलने पर हम मनुष्यों के अंदर थोड़ा दंभ तो आ ही जाता है। हम लोग मर्यादापुरुषोत्तम तो हैं नहीं। वह अपनी आदत के अनुसार लगातार व्यंग्य करता जा रहा था (यह उसकी फितरत है। अपने से बड़े-बुजुर्गों पर व्यंग्य करके, उन्हें चिढ़ा करके खुद को श्रेष्ठ साबित करता रहता है।) बात आगे बढ़ती गई। मौका मिला मैंने भी उसी का व्यंग्य उठाकर उसी पर रख दिया, जिसका उसे अंदाजा नहीं था। वह तिलमिला गया, क्योंकि अभी तक मैं उससे बहुत ही आदर और सम्मान की भाषा में बात कर रहा था। उसके अंदर का वास्तविक मनुष्य जाग गया और फिर क्या मुझे मेरी औकात बताने से लेकर देख लेने तक पहुंचा दिया। जितना कह सकता था कहा। मुझे बहुत अच्छा लगा। अच्छा इसलिए लगा क्योंकि पहले तो यह पता चला कि वास्तव में इसकी व्यंग्य करने और बरदास्त करने की सीमा क्या है। दूसरा कि वास्तव में यह मी द्वारा दिये जाने वाले आदर और सम्मान का हकदार है या नहीं (वह यह भी कह सकता था कि वह मेरे पास आदर और सम्मान मांगने तो नहीं आया था)। उसने तुरंत मुझे ब्लाक कर अपने मानसिक छोटेपन का त्वरित परिचय दिया। मुझे अच्छा लगा जिसे आप सभी से साझा कर रहा हूँ...... 

कर्नाटक में कांग्रेस की नहीं, भाजपा के अंतर्कलह की जीत हुई है !


सन्तोष कुमार राय
          तुलसीदास की एक चौपाई है जहां सुमति तंह संपति नाना। जहां कुमति तंह बिपति निधाना। कर्नाटक के संदर्भ में भाजपा के लिए ये पंक्तियाँ बिलकुल सही और सटीक बैठती है। इसमें संदेह नहीं की भाजपा की चुनावी रणनीति में अनेक खामियाँ रही है, जिसे खत्म करने के वजाय वह ढोती रही है। यह कार्य भाजपा पिछले कई वर्षों से कर रही है और कुछ लोगों के मनमानेपैन के नतीजे को भुगत रही है।  क्या कारण है पार्टी हित जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी पार्टी देर से फैसले ले रही है? आखिर पार्टी पर किसका दबाव काम कर रहा है? क्या वास्तव में भाजपा में व्यक्तिगत हित पार्टी हित से ऊपर हो गया है? इस तरह के कई सवाल हैं जो कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद उठ रहे हैं। पार्टी का शिथिल रवैया येदियुरप्पा से लेकर गडकरी तक अनेक प्रमुख मुद्दों पर जारी रहा है जिससे भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। वह कौन सी राजनीति है जिसमें एक आदमी पार्टी के विरोध में इस हद तक चला जाता है कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। आखिर भाजपा का अनुशासन कहाँ गया। भाजपा को अपने जिस अनुशासन और राष्ट्रीयता पर गर्व था वह कहाँ गया। येदियुरप्पा को पार्टी ने कौन सा अनुशासन सिखाया था जिसने पूरी पार्टी को ही ललकार दिया और इसका लाभ विपक्षी पार्टी को मिल गया।
          भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त इस देश की जनता का जनाधार अगर कांग्रेस के साथ गया है तो यह ताज्जुब की ही बात है। मौजूदा भारतीय राजनीति को देखकर यह कहना कहीं से भी उचित नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत हुई है। यह भाजपा के अंतर्कलह की जीत है। कांग्रेस के नेता कर्नाटक की जीत पर कुछ ज्यादा ही इतरा रहे हैं। यह न तो राहुल गांधी की मेहनत का फल है और न ही कांग्रेस के विकास के मॉडल का। अच्छा तो यह रहता कि कांग्रेसी नेता अपनी पीठ थपथपाने के के वजाय येदियुरप्पा का शुक्रियादा कर आते। कांग्रेस के लिए येदियुरप्पा ने जो रास्ता तैयार किया वह बाधा-विहीन था, जिसका बखूबी लाभ कांग्रेस को मिला है।
          इस चुनाव के नतीजे को दो रूप में देखा जाना चाहिए। पहला, भाजपा की ढुलमुल और अदूरदर्शी राजनीति है। भाजपा ने येदियुरप्पा के साथ जो किया वह कहीं से भी उचित और सार्थक कदम नहीं था, लेकिन येदियुरप्पा ने भी जिस पार्टी की इतने दिनों तक सेवा की उसके लिए भी या अशोभनीय ही है। शायद यह पार्टी के बड़े नेताओं और येदियुरप्पा के बीच संवादहीनता का ही नतीजा है। इस विवाद को चुनाव से पहले मिलकर सुलझा लेना अधिक अच्छा रहा होता। यह भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कार्यप्रणाली की हार है। उनकी सोच की हार है। भाजपा भी कांग्रेस की तरह दिल्ली से ही फैसला सुनाने की आदत का शिकार हो रही है। यह पहली बार नहीं हुआ है, जब इस तरह के फैसलों के इतने घातक परिणाम आए हैं। इससे पहले भी इसका खामियाजा भाजपा को कई राज्यों में भुगतना पड़ा है।
          दूसरा, जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उभरकर सामने आया है वह है क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत का है। कर्नाटक चुनाव ने भाजपा को क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत का बोध करा दिया है। लगभग यही घटना कई साल पहले उत्तर प्रदेश में हुई थी। पार्टी ने कल्याण सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया और राजनाथ सिंह को अचनाक पार्टी का अगुवा बना दिया था। उस घटना ने भाजपा को प्रदेश और देश दोनों से बाहर कर दिया। उससे भी इन्होंने सीख लेने की जहमत नहीं उठाई और मीडिया की नजर में अपनी पाक-साफ छवि दिखाने के चक्कर में डूब गए। अगर इतना ही साफ दिखने की शौक था तो पार्टी ने नरेंद्र मोदी को क्यों नहीं निकाला? क्या उनके ऊपर आरोप नहीं लगे थे? क्या वे आरोप बेबुनियादी थे? यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा में भी व्यक्ति के अनुसार फैसले होते हैं। इस बार भाजपा को जो नुकसान हुआ है वह साधारण नहीं है। इसका प्रभाव लोकसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है।
          आगे के चुनावों में अगर भाजपा को अपने पक्ष में परिणाम चाहिए तो पहले उसे आंतरिक कलह पर जीत हासिल करनी होगी। यह राजनाथ सिंह के लिए आसान नहीं है। आज पूरा देश भ्रष्टाचार और मंहगाई से त्राहि-त्राहि कर रहा है। वर्तमान सरकार ने जिस तरह की स्थिति पैदा की है, वह आम आदमी को मारने के लिए काफी है। ऐसी स्थिति का अगर सही उपयोग भाजपा नहीं कर पा रही है, और अगर नहीं कर पाएगी तो इससे बुरा इस देश के लिए और भाजपा के लिए कुछ भी नहीं हो सकता है। पार्टी के बड़े नेता इस तरह के मुद्दों को सुलझाकर सही रणनीति के साथ काम करेंगे तभी कोई सार्थक परिणाम सामने आयेगा, अन्यथा कर्नाटक की ही तरह देश में अन्य चुनावों में भी वे हार का ही सामना करेंगे। 

यूपीए की नाकामी का नतीजा है कुपोषण


सन्तोष कुमार राय
          आज भारत के लिए कुपोषण शब्द किसी गाली से कम नहीं है। यह सत्ता के लोगों को सुनने में जरूर हल्का लगता होगा लेकिन देखने में यह बहुत ही भयावह है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया है। किया है, और कागज पर तो इसके लिए अनेक पेज भरे पड़े हैं। लेकिन वास्तविक जमीन पर यह बहुत ही खतरनाक रूप ले चुका है। कुपोषित बच्चों की स्थिति बहुत ही नाजुक होती जा रही है। कुपोषण में जी रहे बच्चे आपको हर जगह मिल जायेंगे जरूरत है आँख खोलकर देखने की। चौराहों पर या फिर रेलगाड़ियों में भीख मांगते बच्चे तो हर जगह दिखाई देते हैं वे क्या हैं? घरेलू नौकर के रूप में काम करने वाले बच्चे क्या हैं? चाय की दुकानों और ढाबों पर काम करने वाले बच्चे क्या हैं? आज का पढ़ा-लिखा समाज अपनी नैतिकता खो चुका है और वह अंधा होता जा रहा है। हमारे राजनेता भी इसी ओर अग्रसर हैं और इसे लगातार अनदेखा कर रहे हैं। अभी तक यह देश जाति के दंश से उबर नहीं पाया है, लेकिन उससे पहले ही इसे पूंजीवाद के दुष्परिणामों का सामना करना पद रहा है जो न चाहते हुए भी वर्ग विभाजन की विशाल खाई में जा रहा है।
          आखिर उन बच्चों का दोष क्या है? क्या यह दोष है कि उनका जन्म किसी सोनिया गांधी और किसी मनमोहन सिंह के घर नहीं हुआ है? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उचित पोषण मिले तो इस देश का हर बच्चा राहुल गांधी बन सकता है या फिर उनसे फ्रैंक और तेज। लोकतंत्र के नाम पर सत्ता वर्ग ने जो बंदरबाट मचाई है वह कहीं से भी लोकतंत्र की रक्षा का प्रयास नहीं है बल्कि एक ही आँचल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद का नया अवतार है। यह वही अवतार है जिससे हमारे देश के लोग सैकड़ों वर्षों तक लड़ते रहे। उस लड़ाई की कीमत को भूलकर सत्ता की मादकता में लोग अंधे हो रहे हैं और अपनी नाकामियों को लगातार छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
          दरअसल मनुष्य का स्वभाव जितना सरल होता है उतना ही जटिल भी, जितना नैतिक रूप से मजबूत होता है उतना ही कमजोर भी, जितना कर्मठी होता है उतना ही कामचोर भी, जितना बहादुर होता है उतना ही कायर भी। ये सारे गुण-अवगुण ही किसी मानव को महामानव और महाभ्रष्ट तथा किसी संस्था को उत्कृष्ठ और निकृष्ट बनाते हैं। लोकतन्त्र का विस्तार पहले मनुष्य से लेकर अंतिम मनुष्य तक होता है। लेकिन क्या भारतीय लोकतन्त्र इस पैमाने पर खरा उतरता है? भारतीय राजनीति आज जिस जगह पहुँच गई है उसमें किसी बाहरी या किसी मायावी या किसी अदृश्य सत्ता का योगदान नहीं है। हम इसे भगवान भरोसे नहीं छोड़ सकते। यूपीए गठबंधन को चलाने का जो कांग्रेस का सत्ता मोह है उसने भारत के विकास को हर पायदान पर आघात पहुंचाया है। चाहे आर्थिक स्तर पर हो या फिर विदेश, चाहे ग्रामीण विकास हो या फिर सुरक्षा। यह कहना गलत नहीं होगा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अपनी कमजोरियों और नाकामियों को स्वीकार करने के नैतिक साहस का नितांत अभाव है। अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए कांग्रेस राजनीति के जिस घटिया स्तर पर उतर आई है वह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है।
          अपनी ही बनाई हुई नीतियों में मनमोहन सरकार उलझती रही है और उसे भी सही सलामत लागू कराने में असफल रही है। उदाहरण के लिए हम सरकार द्वारा चलाये जा रहे खाद्यान्न सुरक्षा योजना को देख सकते हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों के लिए अनाज देने की जो योजना चल रही है क्या वह हर जगह पहुँच पाई है? क्या उसका सही सलामत वितरण हो रहा है? ऐसा नहीं है और इसकी जानकारी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को है। केंद्र सरकार की चुप्पी का कारण है गठबंधन, और राज्य सरकारें इसका नाजायज फाइदा उठा रही हैं। ग्राम पंचायतों में अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि गरीबी रेखा के दायरे में किसे और किस आधार पर शामिल किया जाय। पूरी तरह मनमानी हो रही है और जिसे मन किया उसे शामिल किया, नहीं मन है तो छोड़ दिया, चाहे वह कितने भी गरीब क्यों न हो। यह इस योजना की जमीनी हकीकत है। यह किसी एक गाँव या क्षेत्र या फिर प्रदेश की बात नहीं है हर जगह की ऐसी ही स्थिति है। नतीजा यह हो रहा है कि भारत के असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले ग्रामीण मजदूरों के बच्चे कुपोषण से लगातार मर रहे हैं।  
          हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुपोषण से मरने वाला विश्व का हर चौथा बच्चा भारत का होता है। भारत की ग्रामीण जनता का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो मजदूर है। मजदूरी के सहारे ही उनका जीवन चलता है। अगर मिल गई तो ठीक नहीं तो फाँका। ये सारे मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं जिनके पास महीनों तक कोई काम नहीं रहता है। इनके परिवार के स्वास्थ्य और शिक्षा किसके भरोसे है? यह कहना सरासर गलत होगा कि इसके लिए कोई नीति नहीं है, अनेक नियम कानून बनाए गए हैं लेकिन सबकी स्थिति ढाक के तीन पात ही है। सरकार इस बात की दुहाई देती रही है कि हमने ये कानून दिये हमने वो कानून दिये लेकिन उस कानून का क्या मतलब जो सिर्फ कागजों में सिमट कर रह गई हो। सरकार सैफ कानून बनाने से नहीं बच सकती जब तक वह कानून अपने पूरे रूप में लागू न हो।
          घोटालों के अर्थशास्त्र में फंसी मनमोहन सरकार के पास आरोप-प्रत्यारोप के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। पंडित होहिं जे गाल बजावा की स्थिति में सरकार के अनेक नेता लगे हुए हैं और पिछली वाजपेयी सरकार पर सारा दोष मढ़ रहे हैं। मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि इसमें वाजपेयी सरकार कहाँ से आ जाती है। अगर वाजपेयी सरकार से भारत की जनता इतनी ही खुश होती तो फिर यूपीए की सरकार नहीं बनती। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह देश सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी का नहीं है। कांग्रेस का काम सिर्फ बीजेपी के आरोपों का जवाब देना और बीजेपी पर आरोप लगाना नहीं है। यह देश आम जनता का है और कांग्रेस को इस देश के लोगों को जवाब देना है।
          स्वतंत्रता के बाद से आज तक इस देश ने विकास के अनेक चरण पार किया है। क्या कारण है कि इतने सालों बाद भी इस समस्या का मुकम्मल समाधान नहीं हो पाया है। इस तरह की समस्याओं के सामने सरकारी तंत्र लाचार क्यों हो जाता है। अगर सरकार इस समस्या पर गहराई से विचार नहीं करेगी तो आने वाले समय में यह और भयावह ही होगी और पता नहीं कितने बच्चे इस काल के गाल में समा जाएंगे।

वामपंथ की भारत में स्थिति

सन्तोष कुमार राय
          मुक्तिबोध की बहुचर्चित लंबी कविता अंधेरे में की एक पंक्ति है तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब......! यहाँ इस पंक्ति को उद्धृत करने का कारण साफ है कि भारतीय चिंतन परंपरा की मठाधीशी से कहीं न कहीं रचनाकार नाखुश है और इसे तोड़कर जनवादी विचारधारा को स्थापित करना चाहता है। लेकिन क्या यह चाहने भर से हो सकता है? क्या इस विचारधारा को भारत में लागू करना इतना आसान है? हम सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध किस विचारधारा के पक्षधर थे, और वे किस तरह के मठों को तोड़ने की बात कर रहे थे। लेकिन क्या इतना आसान है उन मठों को तोड़ना, जो परंपरा से पोषित हैं? वैचारिक धरातल पर जिस विचारधारा को स्थापित करने की कोशिश है क्या उसी में इस तरह के मठ नहीं बन सकते हैं या यह कहें कि बन गये हैं? मुक्तिबोध उसी दौर के रचनाकार हैं जब वामपंथ भारतीय राजनीति और भारतीय साहित्य में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था। एक विचारधारा के स्तर पर वामपंथ भारत के लिए नया था लेकिन अपने क्रिया-कलापों के लिए नया नहीं था। इसके आने से पहले भी भारत के अनेक साहित्य-चिंतकों ने अपनी जनपक्षधरता को अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त किया था। दरअसल वामपंथ का भारत में विकास न होने के कई पहलू हैं। इनमें प्रमुख हैं भारतीय मानसिकता, भारतीय लोगों की मानसिक बनावट, भारतीय परिवेश, भारतीय जीवन पद्धति तथा भारतीय संस्कृति और समाजिक संरचना। इसकी चिंता करने के भी अपने खतरे हैं। पहला यह कि आज तक जिसने भी भारतीय वामपंथ की कमियों या उसके अविकसित होने पर चिंतन करने की कोशिश की, उसकी स्थिति और उपस्थिति से असहमत हुआ, उसे एक स्वर में दक्षिणपंथी, परंपरावादी और जड़ जैसे अनेक उपमानों से नवाजा गया। इसका असर उस व्यक्ति पर हो या न हो, कुछ समय के लिए ही सही उसका उत्साह जरूर भंग हो जाता है, और कई बार उसकी वैचारिक समानता के लोग भी नजरंदाज करने लगते हैं। दूसरा यह कि वामपंथी राजनीति भी कहीं न कहीं वामपंथी कम, भारतीय वामपंथी अधिक हो गई है। एक खास तरह के लोगों की व्यक्तिगत आशा-आकांक्षाओं में फँसती गई है। एक बात साफ है और वह किसी भी विचारधारा पर लागू हो सकती है, वह यह कि अगर कोई भी विचारधारा किसी भी समाज में स्थापित होती है तो इसके दो कारण होते हैं। पहला उस विचारधारा की बनावट उस समाज की बनावट के अनुरूप हो तथा दूसरा कि उसके मानदंडों को सही-सही लागू किया जाय। मुझे लगता है कि भारत में वामपंथ को लगातार भारतीय वामपंथियों की व्यक्तिगत सोच के हिसाब से लागू करने की कोशिश हुई है जिसे आम जनमानस ने नकार दिया है। एक बात स्पष्ट है कि इस विचारधारा का उदय जिस समाज में हुआ था वह समाज भारतीय मानस से बहुत अलग तरह का था। आज भारत में उसे अपनाने वाले पुरोधा भी तो इसी देश के हैं। ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि इसका समुचित विकास होगा।
           वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोचना, विचार करना और कुछ खोजना जितना असमंजस भरा है उतना ही जटिल भी है। इस पर विचार करने से पहले जरूरत है कि हम वामपंथी विचारधारा की वैश्विक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान दें। आज वामपंथ की वैश्विक स्थिति क्या है? कितने देश ऐसे हैं जहां यह विकसित अवस्था में है? और अगर इसे वैश्विक पृष्ठभूमि पर आम जनमानस ने उस रूप में स्वीकार नहीं किया, जैसी यह घोषणा करता था तो इसके पीछे क्या कमी है? इस तरह के कई सवाल हैं जो भारतीय राजनीति में और भारतीय साहित्य में वामपंथ की स्थिति को लेकर हमारे सामने आते हैं। वामपंथ की मूल अवधारणा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोध की है लेकिन इसके विपरीत भारतीय समाज लगातार पूंजीवादी चंगुल में जकड़ता जा रहा है। आज के भारतीय राजनेता और भारत की सरकार अपने देश को भी अमेरिकी चश्मे से देखते हैं और वामपंथी नेता भी पिछली यूपीए सरकार के उसी चश्मे के समर्थक रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार भी सरकार का हिस्सा होते लेकिन सीटों की संख्या इस लायक नहीं थी। जिस क्षेत्र से चुनकर आते थे वहाँ की जनता ने भी इन पर विश्वास करना उचित नहीं समझा। आज का भारतीय वोटर पहले से अधिक समझदार हो गया है। उसे पता है कि सरकार में शामिल होने के बाद संसद के भीतर हाथ उठाकर समर्थन देना और बाहर आकर विरोध करना किस तरह की राजनीति है।
          बहरहाल, सबसे पहले इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय मानसिकता को देखने की जरूरत है, जो एक खास तरह की धार्मिक और परंपरावादी परिवेश में विकसित हुई है। जाहिर सी बात है कि भारत की राजनीति भी उसी मानसिकता की ऊपज है, समर्थन और विरोध के तरीके भी उसी से पैदा हुए हैं। ऐसे में कोई नई विचारधारा आए और उसे समाप्त करके अपना आधिपत्य जमा ले, यह उतना आसान नहीं है जितना बुद्धिजीवी वर्ग सोचता है। बुद्धिजीवी वर्ग के सोचने का रास्ता अलग है और सर्वहारा का उसे स्वीकार-अस्वीकार करने का अलग। और एक बात साफ़ है कि जब तक किसी भी विचारधारा को उसके सही रूप में सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती उसका विकास काल बहुत छोटा होता है।
          अगर वामपंथी विचारधारा पूरी तरह से भारतीय समाज में अपनी जड़ जमा लेती तो इसके दो कारण हो सकते थे। पहला यह कि अगर भारतीय लोग अपनी पारंपरिक मान्यताओं से ऊब गए होते और किसी ऐसे वैचारिक आधार की तलाश कर रहे होते जो उन्हें कुछ नया और सही राह सुझाता। दूसरा यह कि इसके साथ भी कुछ ऐसा आस्थावादी चक्कर होता और इससे भी किसी तरह के सवाल करने की इजाज़त नहीं होती, लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राजनीति और भारतीय विचारधारा पर अनेक बार प्रहार हुए हैं, उसे जड़ से उखाड़ने की लगातार कोशिश हुई है। मुगलों और अंग्रेजों दोनों ने अपने-अपने तरीके से पूरी कोशिश की और बहुत हद तक प्रभावित भी किया। लेकिन उखड़ने के बजाय उसकी जड़ और नीचे तक जमती गई। आज के दौर में वामपंथ के लिए यह सिद्ध करना बहुत कठिन है कि उसके सारे सरोकार आम लोगों से जुड़े हैं। और अगर यह मान भी लिया जाय कि उसके सरोकार आम लोगों से जुड़े हैं तो जो राजनीतिक पार्टियां इस देश में जातिगत पैमाने पर काम कर रही हैं उनके सामने यह विचारधारा किस तर्क के आधार पर टिकेगी। वामपंथी वैचारिकता के दो प्रमुख आधार हैं, पहला राजनीति और दूसरा साहित्य। राजनीति को लेकर सवाल है कि वास्तव में आज वामपंथ की भारतीय पृष्ठभूमि क्या है? क्या भरतीय लोगों में इसके प्रति कोई सहज स्वीकार्य भाव है या फिर मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों का सिर्फ शौकिया बौद्धिक संसाधन है? अगर भारतीय मानसिकता को वामपंथ अपनी ओर आकर्षित कर लेता तो आज भारतीय राजनीति में इसकी ऐसी स्थिति नहीं होती। वामपंथी राजनीति को लेकर शुरू से ही एक खास तरह का संदेह बना हुआ है। वास्तव में इसका उदय जिस तरह की राजनीतिक हालात में हुआ वह किसी भी तरह से भारतीय समाज से नहीं जुड़ता है। इस बात को स्वीकार करना किसी भी वामपंथ समर्थक के लिए आसान नहीं लेकिन इससे मुँह मोड़कर इसकी पड़ताल भी नहीं की जा सकती। असलियत यह है कि वामपंथ क्लास की विसंगतियों से पैदा हुआ एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन है, जबकि भारतीय राजनीति में आज भी क्लास की संरचना पश्चिम जैसी मुखर नहीं हुई है। भारतीय राजनीति में कास्ट एक अहम तत्व है जो वामपंथी वैचारिक सरोकारों को कहीं भी टिकने नहीं देता है।
          यह धारणा आम रही है कि पूंजीवाद के कमजोर होने पर वामपंथी पार्टियों का वर्चस्व बढ़ेगा लेकिन विश्व के किसी भी देश में यह दिखाई नहीं दिया। पूरा विश्व आर्थिक महामारी से जूझ रहा था। अमेरिका जैसे घोर पूंजीवादी देश इस महामारी में हिल गये लेकिन वामपंथी राजनीति का किसी भी तरह से उभार देखने को नहीं मिला। अगर अमेरिका या अन्य पूंजीवादी देशों को छोड़ भी दिया जाय तो भारत में इसका क्या हस्र हुआ। पिछली यूपीए सरकार में वामपंथी भी शामिल थे, और न सिर्फ शामिल थे बल्कि उस सरकार को चलाने में अपना सार्थक योगदान भी दिया। कितना बड़ा अंतर्विरोध है कि जहां कांग्रेस अमेरिकी पूंजीवाद की ओर हमेशा ललचाई निगाहों से देखती है और अमेरिका के लिए पलक-पांवड़े बिछाई रहती है उसी की ओर भारतीय वामपंथी पार्टियां उसी निगाह से देखती हैं। फिर कैसा विरोध और कैसे वैचारिकता। यह कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी पार्टियों की राजनीति और बुद्धिजीवियों के चिंतन में अब मेल नहीं है। अगर इसे अलगा के देखा जाए तो दोनों के लिए अच्छा होगा। कुलमिलाकर आज के भारत में वामपंथी राजनीति का कोई ऐसा चमत्कृत भविष्य नजर नहीं आ रहा है फिर भी आने वाले समय में कोई चमत्कार हो जाय तो कुछ नहीं कहा जा सकता।  

अति का भला न बोलिये...

                                                                               सन्तोष कुमार राय
        ऐसा कहा जाता है कि कई बार बोलना बहुत ही जरूरी होता है लेकिन कहाँ बोला जाय, किसके लिए बोला जाय और कितना बोला जाय, इसकी अगर तमीज़ हो तो बोलना सार्थक होता है । एक कहावत है कि भैंस के आगे बीन बजावे भैंस करे पगुराय इसे उलटा करके अगर आज के बोलने वालों पर लागू किया जाय तो शायद उनकी योग्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
          बात आज के भारतीय समाज की है जो अपनी तुलना विश्व के विकसित देशों से करने के लिए आतुर है, लेकिन मानसिकता आज भी कई सौ साल पहले की है । कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक जघन्य अपराध की घटना घटी। जिसे लेकर लोगों में बयानबाजी की होड़ मच गई । इस होड़ में भारतीय नेताओं का एक ऐसा वर्ग सामने आया जिसने अपने गंदे वाचालपन को सोदाहरण सिद्ध कर दिया। सबसे पहले भारत के प्रधानमंत्री का बयान आया कि मेरी भी तीन बेटियाँ हैं और मैं इसका दर्द समझता हूँ।  यह कितना बचकाना सा बयान था। मुझे लगता है कि लोगों का दर्द समझने के लिए उस दर्द का होना बिलकुल जरूरी नहीं है। अगर ऐसा ही है तो जो आंदोलन हुआ उसमें कितने ऐसे लोग थे जिनके पास बेटियाँ हैं? जिस देश का प्रधानमंत्री ऐसा बयान देते हैं वहाँ उनकी विरादरी के और लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। लेकिन  प्रधानमंत्री के बयान के बाद एक लंबी फेहरिस्त है जिसने अपने स्वभाव के अनुसार छिछले तरीके से लोकप्रियता हासिल करने की सायास कोशिश की। राजनेता से लेकर धर्मनेता तक, सबने कुछ न कुछ सड़ा-गला कहा ही। रामकथा का धंधा करने वाले आशाराम बापू ने भी पर्याप्त हाथ धोने की कोशिश की और तमाम तरह के दिशा निर्देश दे डाले। मसलन, अगर लड़की ने भाई बना लिया होता तो ऐसा नहीं होता और न जाने क्या-क्या? भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति का पर्याप्त ज्ञान उनको होगा ऐसा मैं मान के चलता हूँ क्योंकि उनका यह धंधा बहुत दिनों से चल रहा है और मेरे अनुमान से वे इसके माहिर खिलाड़ी हैं। अब अगर यह पूछें कि आपके कृष्ण की माता का कंस कौन लगता था? वह भी तो भाई ही था? और अगर यह काम इतना ही अच्छा था तो सीता ने रावण को भाई क्यों नहीं बना लिया? और तो और राम और लक्ष्मण ने सूर्पणखा के साथ क्या किया? वह भी तो उनकी बहन हो सकती थी? इन्द्र ने अहिल्या के साथ क्या किया? पूरी की पूरी धार्मिक मानसिकता ही एकतरफा है जिसमें इस तरह के बयान से आगे की उम्मीद नहीं की जा सकती। कहीं न कहीं अपनी संकुचित सोच और घृणित मानसिकता का यह नंगा प्रदर्शन है। संघ प्रमुख ने भी अपने ज्ञान को थोपने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने भी जल्दबाज़ी में कई आड़े-तिरछे बयान फेंक दिये। उनका इस तरह का बयान इसलिए भी बहुत गलत नहीं है क्योंकि उनकी मानसिक बनावट ही वैसी है। वे कभी भी समता और समानता की बात नहीं कर सकते। उनकी तानाशाही मानसिकता कभी भी स्त्री-पुरुष समानता की बात कर ही नहीं सकती। वे भले ही खुद को भारतीय संस्कृति और संस्कार का रक्षक बताते हैं लेकिन हमेशा एकतरफा ही सोचते हैं। किसी मौलाना ने भी इसमें अपने ज्ञान की उल्टी कर ही दिया क्योंकि यह भारत है और भारत में सबको बोलने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
          बहरहाल सभी ने अपने नैतिक उपदेश से भारतीय समाज को तमाम नसीहत दे डाली लेकिन कभी भी अपने गिरेबाँ में झांकने की जहमत नहीं उठाई। अगर झाँकते तो शायद मनुष्य के दर्द, मनुष्य की पीड़ा, मनुष्य के अधिकार और आज के समय की मांग और सोच को नजरंदाज नहीं करते। आज अगर इन लोगों की सोच को समाज पर लागू कर दिया जाय तो इस देश को ये लोग फिर से सतीप्रथा तक पहुंचा सकते हैं। क्या जब हमारा समाज आधुनिक नहीं था तो इस देश में ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? जो लोग आधुनिकता और आधुनिक समाज को दोष दे रहे हैं उन्हें शायद भारतीय इतिहास का ज्ञान नहीं है। भारत के अधिकतर राजा ऐसे ही हुए हैं जो स्त्रियों के संबंध में आज के इन दरिंदों से बेहतर नहीं थे। इस तरह की दरीन्दगी भारतीय समाज में नई नहीं है।
          कुलमिलाकर इस तरह की परंपरावादी और जड़ और छद्म मानसिकता का अब कोई असर नहीं होने वाला है। खुशी की बात यह है कि अब इस तरह के अनैतिक और जघन्य मामलों पर आम लोग किसी का मुंह नहीं देख रहे हैं बल्कि खुद विरोध कर रहे हैं। आगे आने वाले समय में इस तरह के विरोध और मुखर होकर उभरेंगे, ऐसा संकेत इस आंदोलन ने भारतीय शासन व्यवस्था को दे दिया है। 

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...