सन्तोष कुमार राय
मित्रों, आजकल
फेसबुक पर अपने फ्रेंड्स को ब्लाक करने का मामला खूब चल रहा है। जैसे बचपन में हम
अपने किसी दोस्त से नाराज हो जाते थे तो अक्सर कहा करते थे कि मैं तुमसे कट्टी हो गया
और बातचीत उस दिन बंद हो जाती थी। उस समय अच्छी बात यह थी कि फिर हम जब अगले दिन
मिलते थे तो हम उसी निश्छलता से मिलते थे जिससे हम पहले दिन मिले थे। कोई गिला-शिकवा
नहीं रहता था। आज हम बहुत अधिक सिकुड़ गए हैं और व्यक्तिगत संवाद की नापसंदगी के
आधार पर हम अपने दोस्तों से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। आज हम अपने आस-पास के
लोगों की बुराइयों को पहले देखते हैं, अच्छाईयों को बाद में।
ऐसा कैसे हो सकता है कि एक आदमी में सिर्फ बुराई ही बुराई भरी पड़ी हो। बहुत कुछ
ऐसा होता है जिसे हम न तो देखने की इच्छा रखते हैं और न ही कोशिश करते है। कुछ दिन
पहले ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। कई दिनों से मैं इस ऊहापोह में था कि इस बात को
आप सभी से साझा करूँ या नहीं, लेकिन आज सोचा करना चाहिए। उस
दिन ऐसा हुआ कि मैंने उस मित्र से आनलाईन बात कर रहा था जो कि खुद को प्रतिष्ठित
साहित्यकार मानता है। असल में थोड़ी प्रतिष्ठा मिलने पर हम मनुष्यों के अंदर थोड़ा
दंभ तो आ ही जाता है। हम लोग मर्यादापुरुषोत्तम तो हैं नहीं। वह अपनी आदत के
अनुसार लगातार व्यंग्य करता जा रहा था (यह उसकी फितरत है। अपने से बड़े-बुजुर्गों
पर व्यंग्य करके, उन्हें चिढ़ा करके खुद को श्रेष्ठ साबित
करता रहता है।) बात आगे बढ़ती गई। मौका मिला मैंने भी उसी का व्यंग्य उठाकर उसी पर
रख दिया, जिसका उसे अंदाजा नहीं था। वह तिलमिला गया, क्योंकि अभी तक मैं उससे बहुत ही आदर और सम्मान की भाषा में बात कर रहा
था। उसके अंदर का वास्तविक मनुष्य जाग गया और फिर क्या मुझे मेरी औकात बताने से
लेकर देख लेने तक पहुंचा दिया। जितना कह सकता था कहा। मुझे बहुत अच्छा लगा। अच्छा
इसलिए लगा क्योंकि पहले तो यह पता चला कि वास्तव में इसकी व्यंग्य करने और बरदास्त
करने की सीमा क्या है। दूसरा कि वास्तव में यह मी द्वारा दिये जाने वाले आदर और सम्मान
का हकदार है या नहीं (वह यह भी कह सकता था कि वह मेरे पास आदर और सम्मान मांगने तो
नहीं आया था)। उसने तुरंत मुझे ब्लाक कर अपने मानसिक छोटेपन का त्वरित परिचय दिया।
मुझे अच्छा लगा जिसे आप सभी से साझा कर रहा हूँ......
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