सन्तोष कुमार राय
मुक्तिबोध की बहुचर्चित लंबी
कविता ‘अंधेरे में’ की एक पंक्ति है ‘तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब......!’ यहाँ इस पंक्ति को उद्धृत करने का कारण साफ है कि भारतीय चिंतन परंपरा की
मठाधीशी से कहीं न कहीं रचनाकार नाखुश है और इसे तोड़कर जनवादी विचारधारा को
स्थापित करना चाहता है। लेकिन क्या यह चाहने भर से हो सकता है? क्या इस विचारधारा को भारत में लागू करना इतना आसान है? हम सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध किस विचारधारा के पक्षधर थे, और वे किस तरह के मठों को तोड़ने की बात कर रहे थे। लेकिन क्या इतना आसान
है उन मठों को तोड़ना, जो परंपरा से पोषित हैं? वैचारिक धरातल पर जिस विचारधारा को स्थापित करने की कोशिश है क्या उसी
में इस तरह के मठ नहीं बन सकते हैं या यह कहें कि बन गये हैं? मुक्तिबोध उसी दौर के रचनाकार हैं जब वामपंथ भारतीय राजनीति और भारतीय
साहित्य में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था। एक विचारधारा के स्तर पर वामपंथ
भारत के लिए नया था लेकिन अपने क्रिया-कलापों के लिए नया नहीं था। इसके आने से
पहले भी भारत के अनेक साहित्य-चिंतकों ने अपनी जनपक्षधरता को अपने लेखन के माध्यम
से अभिव्यक्त किया था। दरअसल वामपंथ का भारत में विकास न होने के कई पहलू हैं।
इनमें प्रमुख हैं भारतीय मानसिकता, भारतीय लोगों की मानसिक
बनावट, भारतीय परिवेश, भारतीय जीवन
पद्धति तथा भारतीय संस्कृति और समाजिक संरचना। इसकी चिंता करने के भी अपने खतरे
हैं। पहला यह कि आज तक जिसने भी भारतीय वामपंथ की कमियों या उसके अविकसित होने पर
चिंतन करने की कोशिश की, उसकी स्थिति और उपस्थिति से असहमत
हुआ, उसे एक स्वर में दक्षिणपंथी, परंपरावादी
और जड़ जैसे अनेक उपमानों से नवाजा गया। इसका असर उस व्यक्ति पर हो या न हो, कुछ समय के लिए ही सही उसका उत्साह जरूर भंग हो जाता है, और कई बार उसकी वैचारिक समानता के लोग भी नजरंदाज करने लगते हैं। दूसरा
यह कि वामपंथी राजनीति भी कहीं न कहीं वामपंथी कम, भारतीय
वामपंथी अधिक हो गई है। एक खास तरह के लोगों की व्यक्तिगत आशा-आकांक्षाओं में
फँसती गई है। एक बात साफ है और वह किसी भी विचारधारा पर लागू हो सकती है, वह यह कि अगर कोई भी विचारधारा किसी भी समाज में स्थापित होती है तो इसके
दो कारण होते हैं। पहला उस विचारधारा की बनावट उस समाज की बनावट के अनुरूप हो तथा
दूसरा कि उसके मानदंडों को सही-सही लागू किया जाय। मुझे लगता है कि भारत में
वामपंथ को लगातार भारतीय वामपंथियों की व्यक्तिगत सोच के हिसाब से लागू करने की
कोशिश हुई है जिसे आम जनमानस ने नकार दिया है। एक बात स्पष्ट है कि इस विचारधारा
का उदय जिस समाज में हुआ था वह समाज भारतीय मानस से बहुत अलग तरह का था। आज भारत
में उसे अपनाने वाले पुरोधा भी तो इसी देश के हैं। ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा
सकती है कि इसका समुचित विकास होगा।
वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोचना, विचार करना
और कुछ खोजना जितना असमंजस भरा है उतना ही जटिल भी है। इस पर विचार करने से पहले
जरूरत है कि हम वामपंथी विचारधारा की वैश्विक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान दें। आज
वामपंथ की वैश्विक स्थिति क्या है? कितने देश ऐसे हैं जहां
यह विकसित अवस्था में है? और अगर इसे वैश्विक पृष्ठभूमि पर
आम जनमानस ने उस रूप में स्वीकार नहीं किया, जैसी यह घोषणा
करता था तो इसके पीछे क्या कमी है? इस तरह के कई सवाल हैं जो
भारतीय राजनीति में और भारतीय साहित्य में वामपंथ की स्थिति को लेकर हमारे सामने
आते हैं। वामपंथ की मूल अवधारणा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोध की है लेकिन इसके
विपरीत भारतीय समाज लगातार पूंजीवादी चंगुल में जकड़ता जा रहा है। आज के भारतीय
राजनेता और भारत की सरकार अपने देश को भी अमेरिकी चश्मे से देखते हैं और वामपंथी
नेता भी पिछली यूपीए सरकार के उसी चश्मे के समर्थक रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा
कि इस बार भी सरकार का हिस्सा होते लेकिन सीटों की संख्या इस लायक नहीं थी। जिस
क्षेत्र से चुनकर आते थे वहाँ की जनता ने भी इन पर विश्वास करना उचित नहीं समझा।
आज का भारतीय वोटर पहले से अधिक समझदार हो गया है। उसे पता है कि सरकार में शामिल
होने के बाद संसद के भीतर हाथ उठाकर समर्थन देना और बाहर आकर विरोध करना किस तरह
की राजनीति है।
बहरहाल, सबसे पहले इस
परिप्रेक्ष्य में भारतीय मानसिकता को देखने की जरूरत है, जो
एक खास तरह की धार्मिक और परंपरावादी परिवेश में विकसित हुई है। जाहिर सी बात है
कि भारत की राजनीति भी उसी मानसिकता की ऊपज है, समर्थन और
विरोध के तरीके भी उसी से पैदा हुए हैं। ऐसे में कोई नई विचारधारा आए और उसे
समाप्त करके अपना आधिपत्य जमा ले, यह उतना आसान नहीं है
जितना बुद्धिजीवी वर्ग सोचता है। बुद्धिजीवी वर्ग के सोचने का रास्ता अलग है और
सर्वहारा का उसे स्वीकार-अस्वीकार करने का अलग। और एक बात साफ़ है कि जब तक किसी भी
विचारधारा को उसके सही रूप में सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती उसका विकास काल बहुत
छोटा होता है।
अगर वामपंथी विचारधारा पूरी
तरह से भारतीय समाज में अपनी जड़ जमा लेती तो इसके दो कारण हो सकते थे। पहला यह कि
अगर भारतीय लोग अपनी पारंपरिक मान्यताओं से ऊब गए होते और किसी ऐसे वैचारिक आधार
की तलाश कर रहे होते जो उन्हें कुछ नया और सही राह सुझाता। दूसरा यह कि इसके साथ
भी कुछ ऐसा आस्थावादी चक्कर होता और इससे भी किसी तरह के सवाल करने की इजाज़त नहीं
होती, लेकिन हुआ
ठीक इसके उलट। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राजनीति और भारतीय विचारधारा पर
अनेक बार प्रहार हुए हैं, उसे जड़ से उखाड़ने की लगातार कोशिश
हुई है। मुगलों और अंग्रेजों दोनों ने अपने-अपने तरीके से पूरी कोशिश की और बहुत
हद तक प्रभावित भी किया। लेकिन उखड़ने के बजाय उसकी जड़ और नीचे तक जमती गई। आज के
दौर में वामपंथ के लिए यह सिद्ध करना बहुत कठिन है कि उसके सारे सरोकार आम लोगों
से जुड़े हैं। और अगर यह मान भी लिया जाय कि उसके सरोकार आम लोगों से जुड़े हैं तो
जो राजनीतिक पार्टियां इस देश में जातिगत पैमाने पर काम कर रही हैं उनके सामने यह
विचारधारा किस तर्क के आधार पर टिकेगी। वामपंथी वैचारिकता के दो प्रमुख आधार हैं, पहला राजनीति और दूसरा साहित्य। राजनीति को लेकर सवाल है कि वास्तव में
आज वामपंथ की भारतीय पृष्ठभूमि क्या है? क्या भरतीय लोगों
में इसके प्रति कोई सहज स्वीकार्य भाव है या फिर मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों का सिर्फ
शौकिया बौद्धिक संसाधन है? अगर भारतीय मानसिकता को वामपंथ
अपनी ओर आकर्षित कर लेता तो आज भारतीय राजनीति में इसकी ऐसी स्थिति नहीं होती।
वामपंथी राजनीति को लेकर शुरू से ही एक खास तरह का संदेह बना हुआ है। वास्तव में
इसका उदय जिस तरह की राजनीतिक हालात में हुआ वह किसी भी तरह से भारतीय समाज से
नहीं जुड़ता है। इस बात को स्वीकार करना किसी भी वामपंथ समर्थक के लिए आसान नहीं
लेकिन इससे मुँह मोड़कर इसकी पड़ताल भी नहीं की जा सकती। असलियत यह है कि वामपंथ ‘क्लास’ की विसंगतियों से पैदा हुआ एक वैचारिक और
राजनीतिक आंदोलन है, जबकि भारतीय राजनीति में आज भी ‘क्लास’ की संरचना पश्चिम जैसी मुखर नहीं हुई है।
भारतीय राजनीति में ‘कास्ट’ एक अहम
तत्व है जो वामपंथी वैचारिक सरोकारों को कहीं भी टिकने नहीं देता है।
यह धारणा आम रही है कि
पूंजीवाद के कमजोर होने पर वामपंथी पार्टियों का वर्चस्व बढ़ेगा लेकिन विश्व के
किसी भी देश में यह दिखाई नहीं दिया। पूरा विश्व आर्थिक महामारी से जूझ रहा था।
अमेरिका जैसे घोर पूंजीवादी देश इस महामारी में हिल गये लेकिन वामपंथी राजनीति का
किसी भी तरह से उभार देखने को नहीं मिला। अगर अमेरिका या अन्य पूंजीवादी देशों को
छोड़ भी दिया जाय तो भारत में इसका क्या हस्र हुआ। पिछली यूपीए सरकार में वामपंथी
भी शामिल थे, और न सिर्फ शामिल थे बल्कि उस सरकार को चलाने में अपना सार्थक योगदान भी
दिया। कितना बड़ा अंतर्विरोध है कि जहां कांग्रेस अमेरिकी पूंजीवाद की ओर हमेशा
ललचाई निगाहों से देखती है और अमेरिका के लिए पलक-पांवड़े बिछाई रहती है उसी की ओर
भारतीय वामपंथी पार्टियां उसी निगाह से देखती हैं। फिर कैसा विरोध और कैसे
वैचारिकता। यह कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी पार्टियों की राजनीति और
बुद्धिजीवियों के चिंतन में अब मेल नहीं है। अगर इसे अलगा के देखा जाए तो दोनों के
लिए अच्छा होगा। कुलमिलाकर आज के भारत में वामपंथी राजनीति का कोई ऐसा चमत्कृत
भविष्य नजर नहीं आ रहा है फिर भी आने वाले समय में कोई चमत्कार हो जाय तो कुछ नहीं
कहा जा सकता।
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