अति का भला न बोलिये...

                                                                               सन्तोष कुमार राय
        ऐसा कहा जाता है कि कई बार बोलना बहुत ही जरूरी होता है लेकिन कहाँ बोला जाय, किसके लिए बोला जाय और कितना बोला जाय, इसकी अगर तमीज़ हो तो बोलना सार्थक होता है । एक कहावत है कि भैंस के आगे बीन बजावे भैंस करे पगुराय इसे उलटा करके अगर आज के बोलने वालों पर लागू किया जाय तो शायद उनकी योग्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
          बात आज के भारतीय समाज की है जो अपनी तुलना विश्व के विकसित देशों से करने के लिए आतुर है, लेकिन मानसिकता आज भी कई सौ साल पहले की है । कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक जघन्य अपराध की घटना घटी। जिसे लेकर लोगों में बयानबाजी की होड़ मच गई । इस होड़ में भारतीय नेताओं का एक ऐसा वर्ग सामने आया जिसने अपने गंदे वाचालपन को सोदाहरण सिद्ध कर दिया। सबसे पहले भारत के प्रधानमंत्री का बयान आया कि मेरी भी तीन बेटियाँ हैं और मैं इसका दर्द समझता हूँ।  यह कितना बचकाना सा बयान था। मुझे लगता है कि लोगों का दर्द समझने के लिए उस दर्द का होना बिलकुल जरूरी नहीं है। अगर ऐसा ही है तो जो आंदोलन हुआ उसमें कितने ऐसे लोग थे जिनके पास बेटियाँ हैं? जिस देश का प्रधानमंत्री ऐसा बयान देते हैं वहाँ उनकी विरादरी के और लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। लेकिन  प्रधानमंत्री के बयान के बाद एक लंबी फेहरिस्त है जिसने अपने स्वभाव के अनुसार छिछले तरीके से लोकप्रियता हासिल करने की सायास कोशिश की। राजनेता से लेकर धर्मनेता तक, सबने कुछ न कुछ सड़ा-गला कहा ही। रामकथा का धंधा करने वाले आशाराम बापू ने भी पर्याप्त हाथ धोने की कोशिश की और तमाम तरह के दिशा निर्देश दे डाले। मसलन, अगर लड़की ने भाई बना लिया होता तो ऐसा नहीं होता और न जाने क्या-क्या? भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति का पर्याप्त ज्ञान उनको होगा ऐसा मैं मान के चलता हूँ क्योंकि उनका यह धंधा बहुत दिनों से चल रहा है और मेरे अनुमान से वे इसके माहिर खिलाड़ी हैं। अब अगर यह पूछें कि आपके कृष्ण की माता का कंस कौन लगता था? वह भी तो भाई ही था? और अगर यह काम इतना ही अच्छा था तो सीता ने रावण को भाई क्यों नहीं बना लिया? और तो और राम और लक्ष्मण ने सूर्पणखा के साथ क्या किया? वह भी तो उनकी बहन हो सकती थी? इन्द्र ने अहिल्या के साथ क्या किया? पूरी की पूरी धार्मिक मानसिकता ही एकतरफा है जिसमें इस तरह के बयान से आगे की उम्मीद नहीं की जा सकती। कहीं न कहीं अपनी संकुचित सोच और घृणित मानसिकता का यह नंगा प्रदर्शन है। संघ प्रमुख ने भी अपने ज्ञान को थोपने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने भी जल्दबाज़ी में कई आड़े-तिरछे बयान फेंक दिये। उनका इस तरह का बयान इसलिए भी बहुत गलत नहीं है क्योंकि उनकी मानसिक बनावट ही वैसी है। वे कभी भी समता और समानता की बात नहीं कर सकते। उनकी तानाशाही मानसिकता कभी भी स्त्री-पुरुष समानता की बात कर ही नहीं सकती। वे भले ही खुद को भारतीय संस्कृति और संस्कार का रक्षक बताते हैं लेकिन हमेशा एकतरफा ही सोचते हैं। किसी मौलाना ने भी इसमें अपने ज्ञान की उल्टी कर ही दिया क्योंकि यह भारत है और भारत में सबको बोलने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
          बहरहाल सभी ने अपने नैतिक उपदेश से भारतीय समाज को तमाम नसीहत दे डाली लेकिन कभी भी अपने गिरेबाँ में झांकने की जहमत नहीं उठाई। अगर झाँकते तो शायद मनुष्य के दर्द, मनुष्य की पीड़ा, मनुष्य के अधिकार और आज के समय की मांग और सोच को नजरंदाज नहीं करते। आज अगर इन लोगों की सोच को समाज पर लागू कर दिया जाय तो इस देश को ये लोग फिर से सतीप्रथा तक पहुंचा सकते हैं। क्या जब हमारा समाज आधुनिक नहीं था तो इस देश में ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? जो लोग आधुनिकता और आधुनिक समाज को दोष दे रहे हैं उन्हें शायद भारतीय इतिहास का ज्ञान नहीं है। भारत के अधिकतर राजा ऐसे ही हुए हैं जो स्त्रियों के संबंध में आज के इन दरिंदों से बेहतर नहीं थे। इस तरह की दरीन्दगी भारतीय समाज में नई नहीं है।
          कुलमिलाकर इस तरह की परंपरावादी और जड़ और छद्म मानसिकता का अब कोई असर नहीं होने वाला है। खुशी की बात यह है कि अब इस तरह के अनैतिक और जघन्य मामलों पर आम लोग किसी का मुंह नहीं देख रहे हैं बल्कि खुद विरोध कर रहे हैं। आगे आने वाले समय में इस तरह के विरोध और मुखर होकर उभरेंगे, ऐसा संकेत इस आंदोलन ने भारतीय शासन व्यवस्था को दे दिया है। 

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