संतोष कुमार राय
भारत में सरकारी व्यवस्था
की उपेक्षा न तो नई बात है और न ही कोई नायाब चीज, लेकिन
जब यह व्यवस्था देश के स्वर्णिम अतीत की अनदेखी करने लगती है तो आवाज उठाना
स्वाभाविक हो जाता है। दरअसल यह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थिति देश की
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भारत की बड़ी ग्राम पंचायतों में से एक शेरपुर के
अस्तित्व का सवाल है। वैसे तो किसी भी गाँव का गंगा या किसी अन्य नदी में विलीन हो
जाना उस गाँव के लोगों के लिए कितना कष्टकारी होता है इसका अनुमान लगाना कठिन है। उत्तर
प्रदेश और बिहार के ऐसे अनेक गाँव हैं जो बरसात में नदियों की भेंट चढ़ जाते हैं और
सरकारी अमला हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। अचानक से हँसता-खेलता गाँव, समाज नदी की भेंट चढ़ जाता है और एक झटके में पूरा गाँव बेघर हो जाता है।
फिर शुरू होती है सरकारी सहायताओं के नाम पर असहाय करने वाली सुनियोजित लूट।
शेरपुर ग्राम पंचायत का बड़ा हिस्सा, जिसकी हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन गंगा की कटान की भेंट चढ़ चुकी है। 1942 के
आंदोलन में इस ग्राम पंचायत ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। इतिहास में दर्ज है कि 18
अगस्त 1942 को इस गाँव के आठ नौजवान शहीद हुए और अंग्रेजों को पूर्वांचल छोड़ने के
लिए मजबूर कर दिया। इस तरह के गौरवशाली अतीत गाँव आज अदद सरकारी सहायता के लिए
असहाय की तरह गुहार लगा रहा है, जिसे पिछले कई वर्षों से
सरकारी नुमाइंदों द्वारा नजरंदाज किया जाता रहा है। छोटी-छोटी योजनाओं में उलझाकर
सरकारी अमला अपनी खानापूर्ति कर लेता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ग्राम
पंचायत में सिर्फ मतदाताओं की संख्या जो ग्रामपंचायत में दर्ज है वह 25 हजार से
अधिक है, साथ ही इस ग्राम पंचायत के हजारों लोग अन्य शहरों में भी हैं। मोटे तौर
पर अनुमानित वॉटर लगभग 40 हजार हैं। यानी पूरी ग्राम पंचायत से जुड़ी हुई जनसंख्या
एक लाख के आस-पास होगी। ऐसी स्थिति यदि यह ग्राम पंचायत गंगा में गिर जाती है तो
कितना नुकसान होगा। और बेघर लोग कहाँ जायेंगे। सरकारी लापरवाही का नतीजा यह है कि
ग्राम पंचायत का एक हिस्सा सेमरा, जिसकी कुल आबादी 15 हजार
से अधिक है, का ज़्यादातर हिस्सा और हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन
गंगा में विलीन हो चुकी है। बेघर लोग दर दर की ठोकर खाने को मजबूर हैं। सेमरा के
लोगों की बदहाली कल्पना से परे है। कटान में गाँव के गिरने के बाद जिन लोगों के
पास दूसरी जगहों पर पास जमीन बची थी
उन्होंने तो जैसे तैसे झुग्गी-झोपड़ी में रहने की व्यवस्था कर लिया, जिनके पास पैसे थे और जमीन नहीं थी वे आस-पास के गाँवों में जमीन खरीदकर
बस गये, लेकिन एक बड़ा हिसा उन गरीब लोगों का है जिनके पास न
तो जमीन है और न पैसे हैं। वे पिछले कई वर्षों से दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। कभी
किसी प्राथमिक विद्यालय में, कभी किसी माध्यमिक विद्यालय में,
कभी किसी इंटर कालेज में, कभी कस्बे की अनाज
मंडी में तो कभी सड़कों के किनारे खुले आसमान के नीचे अपनी जिंदगी काट रहे हैं। प्रत्येक
बरसात का मौसम इन गाँवों के लिए कहर की तरह आता है। हर साल गाँव का कुछ न कुछ
हिस्सा जरूर गिरता है।
हर बार चुनावी वादे में गाँव को बचाने के
राजनीतिक वादे होते हैं। कुछ सहयोग भी होता है, बावजूद इसके
गाँव गिर रहे हैं। कटान को रोकने के लिए अब तक कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया गया है जिसे यहाँ उल्लिखित किया जाये। । ऐसा नहीं
है कि इसकी ख़बर शासन-प्रशासन में बैठे देश और प्रदेश अधिकारोयोन और नेताओं को
नहीं है। गाँव के लोगों अनेक बार देश और प्रदेश की सरकारों और मंत्रियों को लिखते
रहे हैं, बताते रहे हैं लेकिन यह अनदेखी इस ऐतिहासिक गाँव के
अस्तित्व को मिटाने की ओर ले जा रही है। इस ग्राम पंचायत के कटान की खबर
जिलाधिकारी से लेकर देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री,
सड़क परिवहन एवं जल संसाधन मंत्री, संचार व
रेल राज्यमंत्री, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, लोकसभा क्षेत्र के
सांसद व स्थानीय विधायक सहित ऐसी कोई जगह नहीं बची है जहां ग्रामीणों ने उम्मीद से
गुयाहर नहीं लगाई है। लेकिन अभी तक ठोस काम के नाम पर हर जगह से सिर्फ आश्वसन मिला
है।
यहाँ समझने की बात यह है कि यह ग्राम
पंचायत देश की एक बड़ी ग्राम पंचायत है, जिसके पास
अपना कालेज, अनेक स्कूल, हास्पिटल जैसी
सरकारी सम्पदा भी कम नहीं है। दूसरी ओर देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए
मजबूत किसानों का क्षेत्र है। तीसरी और महत्वपूर्ण कि यह भारतीय इतिहास की धरोहर
है। इसे बचाने की व्यवस्थित योजना नहीं बनी तो राष्ट्रीय आंदोलन का जीवंत स्मारक
महज कुछ ही वर्षों गंगा में विलीन हो जाएगा और लाखों लोग बेघर और मजबूर हो
जायेंगे।
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