संतोष कुमार राय
बड़ा ताज्जुब होता है, जब संकीर्ण मानसिकता से जबरन
प्रगतिशीलता स्थापित करने की कोशिश होती है, वह भी किसी
पौराणिक या मिथकीय चरित्र की सामाजिक स्थापनाओं और मान्यताओं को जाने बिना. दरअसल,
‘शहरी माओवादियों’ की प्रकारांतर से
रणनीतिक और सोची-समझी वैचारिकी ऐसी ही रही है कि हिंदू मान्यताओं को एकबारगी
ध्वस्त कर दिया जाय, जिसे ये लंबे समय से करते भी रहे
हैं. ‘द वायर’ न्यूज पोर्टल
पर एक लेखिका ने ‘Militant Hinduism and the Reincarnation of
Hanuman’ शीर्षक से पिछले दिनों एक आलेख लिखा. आलेख में जिस
तरह की कहानी गढ़ी गई है, उसे देखकर यही लगा कि वास्तव
में लेखिका के हिंदू चरित्रों और हिंदू त्योहारों से चिढ़ने के अनेक आत्मोत्पन्न
कारण हैं. उनके आलेख में हिंदू मान्यता, प्रतीक और
प्रतिष्ठा को अधिकतम नकारात्मक घोषित किया गया है, वह
भी हनुमान को केंद्र में रखते हुए.
संघ की चिंता क्यों, अपने मिटते अस्तित्व की
क्यों नहीं?
असल बात इस आलेख की कुछ और है. हनुमान को केंद्र में रखना तो एक माध्यम है, लेकिन उनकी वास्तविक चिंता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार और बढ़ती सक्रियता है. उन्होंने उल्लेख भी किया है कि पिछले दिनों मेरठ में होने वाले संघ समागम में लगभग तीन लाख स्वयंसेवक शामिल हुए थे, जिनमें से चालीस हजार सिर्फ नोएडा के आस-पास से गये थे. जाहिर है, संघ की गतिविधियों को लेकर ये लोग बेहद संजीदे और जागरूक हैं. संघ का यदि विस्तार हो रहा है, नोएडा में (उनके मुताबिक) अगर हर तीसरी कार के पीछे हनुमान की नई तस्वीर चस्पां है तो वे क्यों बेचैन हैं ? दूसरी बात इस संदर्भ में यह पूछी जा सकती है कि इस्लाम को मानने वाले लोग अनेक मस्जिदों में प्रत्येक सप्ताह इकट्ठा होते हैं, उस पर इन्हें कभी कोई आपत्ति नहीं रही और न ही कभी कुछ लिखा गया. यह सभी को पता है कि संघ आज जिस जगह पहुंचा है, वहाँ पहुँचाने में उसकी संगठन नीति की बड़ी भूमिका है. आज संघ की स्वीकृति आम जन में बढ़ी है. अगर वामपंथियों की विचारधारा का संकुचन हुआ है, तो यह उनकी संगठन नीति और आम जन में बढ़ते अविश्वास के कारण ही हुआ है. उनके लिए दरअसल यह अस्तित्व का संकट भी है.
Photo- अमर उजाला
उनकी चिंता के केंद्र में हिंदू नववर्ष है, जिसे उनके अनुसार नहीं मनाना
चाहिए, लेकिन उन्हें ईसाइयों के ईस्टर की भरपूर याद है.
यह दोमुंही बातें हैं. लेकिन यह भी सही कारण नहीं है. इसके पीछे भी एक कारण है और
वह है उनकी राजनैतिक मान्यताओं का आम जनमानस में अस्वीकार्यता. लंबे समय से भारत
में वाम वैचारिकी दिनोंदिन न सिर्फ संकुचित हुई है, बल्कि
आम जनमानस के मन में उसके प्रति आक्रोश भी बहुत अधिक बढ़ता गया. जाहिर सी बात है, इसके लिए कोई दूसरी विचारधारा तो जिम्मेदार नहीं ही है. आपका अस्तित्व
संकट में है तो उसके लिए आपकी नीतियाँ जिम्मेदार हैं, साथ
ही आपकी विचारधारा को पोषित करने वाले तथाकथित-स्वघोषित मुट्ठीभर बुद्धिजीवी भी
हैं. बेहतर तो यह होता कि उनकी चिंता के केंद्र में संघ का विस्तार नहीं, बल्कि अपना वैचारिक अवसान और राजनैतिक संकुचन होता.
आपको नहीं पता है कि
हनुमान कौन हैं ?
भारतीय वामपंथियों की आदत में शामिल है कि उनकी
कोई भी बात भारतीय धार्मिक मान्यताओं पर बात किये बिना, उसका उल्लेख किये बिना, उस पर हमला किये बिना, उस पर अतार्किक बातों के
बिना पूरी ही नहीं होती. क्या आपके विचार, तर्क और
संवाद का स्तर इतना उथला है कि बिना हिंदू प्रतीकों के आप अपनी बात तक नहीं रख
पाते ? हिंदू रीति-रिवाजों, हिंदू मान्यताओं, हिंदू देवताओं के माध्यम से
जिस तरह की भाषा और शब्दों से उक्त आलेख में बात की गई है, वह वास्तव में आतंकवादी मानसिकता और आतंकवाद समर्थक विचार की पैदाइश है.
सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि हनुमान कौन हैं? समाज में उनकी मान्यता किस
रूप में है? हिंदू समाज उन्हें किस रूप में पूजता है और
क्यों? तमाम ग्रंथों में उनका वर्णन किस रूप में मिलता
है? उनके चरित्र के माध्यम से समाज को क्या संदेश मिलता
है? इसकी थोड़ी भी पड़ताल लेखिका ने की होती तो चंद
उत्साही लोगों की गतिविधियों को वे कथित ‘आतंकवादी
हिंदुत्व’ से न जोड़तीं, न
ही हनुमान की नई और चर्चित तस्वीर में उन्हें इस ‘आतंकवादी
हिंदुत्व’ की प्रेरणा दिखाई पड़ती. वास्तव में हनुमान
का चरित्र भारतीय समाज के लिए सम्यक चरित्र का प्रतिनिधि उदाहरण है. शक्ति, संयम और समर्पण के देवता हनुमान भारत की सामासिक हिन्दू संस्कृति के
बेजोड़ उदाहरण हैं.
हनुमान उस स्वाभिमान के प्रतीक हैं जिसे बालि जैसे
अन्यायी राजा के साथ रहकर सुख-भोग करने की अपेक्षा सत्यनिष्ठ सुग्रीव के साथ
जंगलों में रहना पसंद था. स्वामी-भक्ति ऐसी कि उन्हें उस समय के सबसे बड़े साम्राज्य
अयोध्या के महाराज श्रीराम का सान्निध्य मिला हुआ था. फिर भी, उन्होंने अपने स्वामी
सुग्रीव का साथ नहीं छोड़ा था. हनुमान उस पौरुष के द्योतक हैं जिसने सुग्रीव की
पत्नी रूमा के ऊपर बालि की कु-दृष्टि को सहन नहीं किया और माँ जानकी के सम्मान की
रक्षा के लिये बिना किसी स्वार्थ और प्रलोभन के निडर होकर रावण की लंका में अकेले
ही घुस गए और वहां तबाही मचा दी. हनुमान प्रतीक हैं उस सेतु के जिसने अयोध्या और
किष्किंधा यानी नगरवासियों और वनवासियों को साथ जोड़ा था. रामायण के कथानक के आधार
पर देखें तो हनुमान, सुग्रीव, तारा, अंगद, नल-नील
ये सब उस समय के वनवासी और जनजाति समाज का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं. ये उन
लोगों में दिखाए गये हैं जिनकी भाषा संस्कृत नहीं थी और जो कथित उच्च वर्ण से भी
नहीं आते थे और जो जंगलों में रहते थे. यह बात आज के वाम बुद्धिजीवियों को शायद न
पचे. उसका कारण उनका दिमागी दिवालियापन, अतार्किकता और
अध्ययन से परे जब इस तरह की बात होती है तो उस पर तरस ही आ सकता है. लोहिया ने शिव
के विषय में बहुत सम्मान जनक चीजें लिखीं हैं, तो क्या
लोहिया की वैचारिकी इन लोगों से कमजोर थी, बिलकुल नहीं.
उनका अध्ययन गंभीर और गहरा था, उनके मन में अपने लोगों
के प्रति, अपनी परंपरा के प्रति अटूट सम्मान और आदर का
भाव था.
दरअसल, वाम वैचारिकी के लोग यह जाने बिना सवाल करते
हैं कि भारत विविधताओं का देश है. तो क्या यह विविधताएँ विदेशी मान्यताओं के आने
के बाद तय हुई हैं. क्या इनकी विचारधारा ने यही बताया है कि आप जिस देश में रहते
हैं वहां की मूल संस्कृति और संस्कार का ज्ञान रखे बिना ही एकालाप करते जाएं. जहाँ
तक नववर्ष मनाने की बात है तो यह समझने की जरूरत है कि भारत में मनाया जाने वाला
नववर्ष सिर्फ भारत तक ही नहीं है, बल्कि इसे
अफगानिस्तान से लेकर ईरान और पाकिस्तान के भी कई हिस्सों में ‘नवरोज’ कई अलग-अलग नामों से मनाया जाता है.
भारत में अलग-अलग प्रांतों में इसे अलग-अलग नामों से मनाया जाता है, जबकि उसका समय एक होता है यानी चैत्र मास. तिथियाँ अलग अलग हो सकती हैं.
मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं और यही भारतीय संस्कृति की खूबसूरती है. यह
चिंता की बात है कि विचारधारा के नाम पर भारतीय खूबसूरती भी आप लोगों की आँखों में
चुभती है. पाश्चात्य संस्कृति का अंध-समर्थन और अति आधुनिकता अगर हावी होगी तो
भारतीय समाज में सिर्फ खामियां ही नजर आयेंगी. असल में खामियां तो देखने वाले की
दृष्टि में भी कई बार विद्यमान होती हैं, जिसका बड़ा
प्रभाव उसकी अभिव्यक्ति पर भी पड़ता है.
संघ की शाखाओं के बढ़ने से लेखिका ने एक गहरी चिंता
व्यक्त की है. असल बात यह है कि संघ में जाने वाले लोग अपनी संस्कृति को मनाने
वाले लोग हैं. उन्हें अपनी संस्कृति में उनकी तरह खामियां नजर नहीं आतीं. उन्हें
गर्व होता है. यह गर्व भी कुछ विचारधारा विशेष के लोगों की चिंता और भय का कारण
है.
(14 अप्रैल
2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)
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