यूपीए की नाकामी का नतीजा है कुपोषण


सन्तोष कुमार राय
          आज भारत के लिए कुपोषण शब्द किसी गाली से कम नहीं है। यह सत्ता के लोगों को सुनने में जरूर हल्का लगता होगा लेकिन देखने में यह बहुत ही भयावह है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया है। किया है, और कागज पर तो इसके लिए अनेक पेज भरे पड़े हैं। लेकिन वास्तविक जमीन पर यह बहुत ही खतरनाक रूप ले चुका है। कुपोषित बच्चों की स्थिति बहुत ही नाजुक होती जा रही है। कुपोषण में जी रहे बच्चे आपको हर जगह मिल जायेंगे जरूरत है आँख खोलकर देखने की। चौराहों पर या फिर रेलगाड़ियों में भीख मांगते बच्चे तो हर जगह दिखाई देते हैं वे क्या हैं? घरेलू नौकर के रूप में काम करने वाले बच्चे क्या हैं? चाय की दुकानों और ढाबों पर काम करने वाले बच्चे क्या हैं? आज का पढ़ा-लिखा समाज अपनी नैतिकता खो चुका है और वह अंधा होता जा रहा है। हमारे राजनेता भी इसी ओर अग्रसर हैं और इसे लगातार अनदेखा कर रहे हैं। अभी तक यह देश जाति के दंश से उबर नहीं पाया है, लेकिन उससे पहले ही इसे पूंजीवाद के दुष्परिणामों का सामना करना पद रहा है जो न चाहते हुए भी वर्ग विभाजन की विशाल खाई में जा रहा है।
          आखिर उन बच्चों का दोष क्या है? क्या यह दोष है कि उनका जन्म किसी सोनिया गांधी और किसी मनमोहन सिंह के घर नहीं हुआ है? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उचित पोषण मिले तो इस देश का हर बच्चा राहुल गांधी बन सकता है या फिर उनसे फ्रैंक और तेज। लोकतंत्र के नाम पर सत्ता वर्ग ने जो बंदरबाट मचाई है वह कहीं से भी लोकतंत्र की रक्षा का प्रयास नहीं है बल्कि एक ही आँचल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद का नया अवतार है। यह वही अवतार है जिससे हमारे देश के लोग सैकड़ों वर्षों तक लड़ते रहे। उस लड़ाई की कीमत को भूलकर सत्ता की मादकता में लोग अंधे हो रहे हैं और अपनी नाकामियों को लगातार छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
          दरअसल मनुष्य का स्वभाव जितना सरल होता है उतना ही जटिल भी, जितना नैतिक रूप से मजबूत होता है उतना ही कमजोर भी, जितना कर्मठी होता है उतना ही कामचोर भी, जितना बहादुर होता है उतना ही कायर भी। ये सारे गुण-अवगुण ही किसी मानव को महामानव और महाभ्रष्ट तथा किसी संस्था को उत्कृष्ठ और निकृष्ट बनाते हैं। लोकतन्त्र का विस्तार पहले मनुष्य से लेकर अंतिम मनुष्य तक होता है। लेकिन क्या भारतीय लोकतन्त्र इस पैमाने पर खरा उतरता है? भारतीय राजनीति आज जिस जगह पहुँच गई है उसमें किसी बाहरी या किसी मायावी या किसी अदृश्य सत्ता का योगदान नहीं है। हम इसे भगवान भरोसे नहीं छोड़ सकते। यूपीए गठबंधन को चलाने का जो कांग्रेस का सत्ता मोह है उसने भारत के विकास को हर पायदान पर आघात पहुंचाया है। चाहे आर्थिक स्तर पर हो या फिर विदेश, चाहे ग्रामीण विकास हो या फिर सुरक्षा। यह कहना गलत नहीं होगा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अपनी कमजोरियों और नाकामियों को स्वीकार करने के नैतिक साहस का नितांत अभाव है। अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए कांग्रेस राजनीति के जिस घटिया स्तर पर उतर आई है वह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है।
          अपनी ही बनाई हुई नीतियों में मनमोहन सरकार उलझती रही है और उसे भी सही सलामत लागू कराने में असफल रही है। उदाहरण के लिए हम सरकार द्वारा चलाये जा रहे खाद्यान्न सुरक्षा योजना को देख सकते हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों के लिए अनाज देने की जो योजना चल रही है क्या वह हर जगह पहुँच पाई है? क्या उसका सही सलामत वितरण हो रहा है? ऐसा नहीं है और इसकी जानकारी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को है। केंद्र सरकार की चुप्पी का कारण है गठबंधन, और राज्य सरकारें इसका नाजायज फाइदा उठा रही हैं। ग्राम पंचायतों में अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि गरीबी रेखा के दायरे में किसे और किस आधार पर शामिल किया जाय। पूरी तरह मनमानी हो रही है और जिसे मन किया उसे शामिल किया, नहीं मन है तो छोड़ दिया, चाहे वह कितने भी गरीब क्यों न हो। यह इस योजना की जमीनी हकीकत है। यह किसी एक गाँव या क्षेत्र या फिर प्रदेश की बात नहीं है हर जगह की ऐसी ही स्थिति है। नतीजा यह हो रहा है कि भारत के असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले ग्रामीण मजदूरों के बच्चे कुपोषण से लगातार मर रहे हैं।  
          हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुपोषण से मरने वाला विश्व का हर चौथा बच्चा भारत का होता है। भारत की ग्रामीण जनता का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो मजदूर है। मजदूरी के सहारे ही उनका जीवन चलता है। अगर मिल गई तो ठीक नहीं तो फाँका। ये सारे मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं जिनके पास महीनों तक कोई काम नहीं रहता है। इनके परिवार के स्वास्थ्य और शिक्षा किसके भरोसे है? यह कहना सरासर गलत होगा कि इसके लिए कोई नीति नहीं है, अनेक नियम कानून बनाए गए हैं लेकिन सबकी स्थिति ढाक के तीन पात ही है। सरकार इस बात की दुहाई देती रही है कि हमने ये कानून दिये हमने वो कानून दिये लेकिन उस कानून का क्या मतलब जो सिर्फ कागजों में सिमट कर रह गई हो। सरकार सैफ कानून बनाने से नहीं बच सकती जब तक वह कानून अपने पूरे रूप में लागू न हो।
          घोटालों के अर्थशास्त्र में फंसी मनमोहन सरकार के पास आरोप-प्रत्यारोप के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। पंडित होहिं जे गाल बजावा की स्थिति में सरकार के अनेक नेता लगे हुए हैं और पिछली वाजपेयी सरकार पर सारा दोष मढ़ रहे हैं। मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि इसमें वाजपेयी सरकार कहाँ से आ जाती है। अगर वाजपेयी सरकार से भारत की जनता इतनी ही खुश होती तो फिर यूपीए की सरकार नहीं बनती। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह देश सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी का नहीं है। कांग्रेस का काम सिर्फ बीजेपी के आरोपों का जवाब देना और बीजेपी पर आरोप लगाना नहीं है। यह देश आम जनता का है और कांग्रेस को इस देश के लोगों को जवाब देना है।
          स्वतंत्रता के बाद से आज तक इस देश ने विकास के अनेक चरण पार किया है। क्या कारण है कि इतने सालों बाद भी इस समस्या का मुकम्मल समाधान नहीं हो पाया है। इस तरह की समस्याओं के सामने सरकारी तंत्र लाचार क्यों हो जाता है। अगर सरकार इस समस्या पर गहराई से विचार नहीं करेगी तो आने वाले समय में यह और भयावह ही होगी और पता नहीं कितने बच्चे इस काल के गाल में समा जाएंगे।

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...