सन्तोष
कुमार राय
तुलसीदास की एक चौपाई है ‘जहां सुमति तंह संपति नाना। जहां कुमति तंह बिपति निधाना।’ कर्नाटक के संदर्भ में भाजपा के लिए ये पंक्तियाँ बिलकुल सही और सटीक
बैठती है। इसमें संदेह नहीं की भाजपा की चुनावी रणनीति में अनेक खामियाँ रही है, जिसे खत्म करने के वजाय वह ढोती रही है। यह कार्य भाजपा पिछले कई वर्षों
से कर रही है और कुछ लोगों के मनमानेपैन के नतीजे को भुगत रही है। क्या कारण है पार्टी हित जैसे संवेदनशील मुद्दे
पर भी पार्टी देर से फैसले ले रही है? आखिर पार्टी पर किसका
दबाव काम कर रहा है? क्या वास्तव में भाजपा में व्यक्तिगत
हित पार्टी हित से ऊपर हो गया है? इस तरह के कई सवाल हैं जो
कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद उठ रहे हैं। पार्टी का शिथिल रवैया येदियुरप्पा
से लेकर गडकरी तक अनेक प्रमुख मुद्दों पर जारी रहा है जिससे भाजपा को भारी नुकसान
उठाना पड़ा है। वह कौन सी राजनीति है जिसमें एक आदमी पार्टी के विरोध में इस हद तक
चला जाता है कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। आखिर भाजपा का अनुशासन कहाँ
गया। भाजपा को अपने जिस अनुशासन और राष्ट्रीयता पर गर्व था वह कहाँ गया।
येदियुरप्पा को पार्टी ने कौन सा अनुशासन सिखाया था जिसने पूरी पार्टी को ही ललकार
दिया और इसका लाभ विपक्षी पार्टी को मिल गया।
भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त इस देश
की जनता का जनाधार अगर कांग्रेस के साथ गया है तो यह ताज्जुब की ही बात है। मौजूदा
भारतीय राजनीति को देखकर यह कहना कहीं से भी उचित नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस
की जीत हुई है। यह भाजपा के अंतर्कलह की जीत है। कांग्रेस के नेता कर्नाटक की जीत
पर कुछ ज्यादा ही इतरा रहे हैं। यह न तो राहुल गांधी की मेहनत का फल है और न ही कांग्रेस
के विकास के मॉडल का। अच्छा तो यह रहता कि कांग्रेसी नेता अपनी पीठ थपथपाने के के
वजाय येदियुरप्पा का शुक्रियादा कर आते। कांग्रेस के लिए येदियुरप्पा ने जो रास्ता
तैयार किया वह बाधा-विहीन था, जिसका बखूबी लाभ
कांग्रेस को मिला है।
इस चुनाव के नतीजे को दो रूप में देखा
जाना चाहिए। पहला, भाजपा की ढुलमुल और अदूरदर्शी
राजनीति है। भाजपा ने येदियुरप्पा के साथ जो किया वह कहीं से भी उचित और सार्थक कदम
नहीं था, लेकिन येदियुरप्पा ने भी जिस पार्टी की इतने दिनों
तक सेवा की उसके लिए भी या अशोभनीय ही है। शायद यह पार्टी के बड़े नेताओं और
येदियुरप्पा के बीच संवादहीनता का ही नतीजा है। इस विवाद को चुनाव से पहले मिलकर सुलझा
लेना अधिक अच्छा रहा होता। यह भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कार्यप्रणाली की
हार है। उनकी सोच की हार है। भाजपा भी कांग्रेस की तरह दिल्ली से ही फैसला सुनाने
की आदत का शिकार हो रही है। यह पहली बार नहीं हुआ है, जब इस
तरह के फैसलों के इतने घातक परिणाम आए हैं। इससे पहले भी इसका खामियाजा भाजपा को
कई राज्यों में भुगतना पड़ा है।
दूसरा, जो
कि बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उभरकर सामने आया है वह है क्षेत्रीय नेताओं की
अहमियत का है। कर्नाटक चुनाव ने भाजपा को क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत का बोध करा
दिया है। लगभग यही घटना कई साल पहले उत्तर प्रदेश में हुई थी। पार्टी ने कल्याण
सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया और राजनाथ सिंह को अचनाक पार्टी का अगुवा बना
दिया था। उस घटना ने भाजपा को प्रदेश और देश दोनों से बाहर कर दिया। उससे भी इन्होंने
सीख लेने की जहमत नहीं उठाई और मीडिया की नजर में अपनी पाक-साफ छवि दिखाने के
चक्कर में डूब गए। अगर इतना ही साफ दिखने की शौक था तो पार्टी ने नरेंद्र मोदी को
क्यों नहीं निकाला? क्या उनके ऊपर आरोप नहीं लगे थे?
क्या वे आरोप बेबुनियादी थे? यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा में भी व्यक्ति के
अनुसार फैसले होते हैं। इस बार भाजपा को जो नुकसान हुआ है वह साधारण नहीं है। इसका
प्रभाव लोकसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है।
आगे के चुनावों में अगर
भाजपा को अपने पक्ष में परिणाम चाहिए तो पहले उसे आंतरिक कलह पर जीत हासिल करनी
होगी। यह राजनाथ सिंह के लिए आसान नहीं है। आज पूरा देश भ्रष्टाचार और मंहगाई से
त्राहि-त्राहि कर रहा है। वर्तमान सरकार ने जिस तरह की स्थिति पैदा की है, वह
आम आदमी को मारने के लिए काफी है। ऐसी स्थिति का अगर सही उपयोग भाजपा नहीं कर पा रही
है, और अगर नहीं कर पाएगी तो इससे बुरा इस देश के लिए और
भाजपा के लिए कुछ भी नहीं हो सकता है। पार्टी के बड़े नेता इस तरह के मुद्दों को
सुलझाकर सही रणनीति के साथ काम करेंगे तभी कोई सार्थक परिणाम सामने आयेगा,
अन्यथा कर्नाटक की ही तरह देश में अन्य चुनावों में भी वे हार का ही सामना करेंगे।