प्रेमचंद और दलित प्रश्न : जेकरे खातिर चोरी कईली उहे कहे चोरवा--नामवर सिंह


          सन्तोष कुमार राय
इसका कुछ हिस्सा रिपोर्ट के रूप मे यथावत के इस अंक में प्रकाशित हुआ है....
          दलित चिंतकों और साहित्यकारों ने प्रेमचंद के लेखन पर एकबारगी प्रश्नचिन्ह लगाया है। उन्हें दलित विरोधी घोषित किया है। सामंती और वर्ण-व्यवस्था का पोषक कहा है। ब्राह्मणवादी कहा है और न जाने क्या-क्या कहा है। यह किसी भी संवेदनशील साहित्य प्रेमी के लिए ग्राह्य नहीं है। इन्हीं बातों से आहत होकर नामवर सिंह ने प्रेमचंद के लेखन में अभिव्यक्त दलित संदर्भ को दलित आलोचकों द्वारा नकारने और उन्हें खारिज करने पर कहा कि जेकरे खातिर चोरी कईली उहे कहे चोरवा। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रेमचंद के अध्ययन की नई दिशाएँ विषय पर एक संगोष्ठी हुई जिसके वक्ता हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह, दलित साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम, मृदुला गर्ग और रोहिणी अग्रवाल थीं। इसका संचालन और संयोजन डॉ.ओमप्रकाश सिंह ने किया। हिंदी साहित्य में दलित विमर्श को लेकर पिछले दो दशकों से जद्दोजहद चल रही है। इतने दिनों बाद भी इस क्षेत्र में कोई सम्यक दिशा नहीं बन पायी है, जिसे लेकर दलित और गैर दलित बातचीत कर सकें। हिंदी के सभी बड़े आलोचक इस विषय पर बहुत साफ-साफ बोलने से बचते रहे हैं, खासकर वामपंथी आलोचक। इस कड़ी में नामवर सिंह का भी नाम आता है। नामवर सिंह ने पिछले दस वर्षों में दलित साहित्य को लेकर कम से कम दो दर्जन से अधिक संगोष्ठियों में तमाम अंतर्विरोधी बातें कही हैं। कई जगह वे दलित साहित्य की वैचारिकी, साहित्यकारों की ऊर्जा संपन्न दृष्टि और उसके विकास की उर्वर जमीन की गाहे-बगाहे तारीफ करते रहे हैं, लेकिन उसकी रचनात्मकता की दिशा को लेकर आलोचना भी किया है। इस बार नामवर जी दलित वैचारिकी की आलोचना की जगह हमलावर के रूप में दिखे।
          हिंदी की अन्य संगोष्ठियों की तरह यह भी अपने विषय के एक पक्ष पर ही अंत तक चलती रही। जहां प्रेमचंद के साहित्य के अध्ययन के अनेक पहलुओं पर चर्चा परिचर्चा होनी चाहिए थी वहाँ प्रेमचंद बनाम दलित बनाकर पूरी बातचीत हुई। संगोष्ठी की शुरुवात जयप्रकाश कर्दम के वक्तव्य से हुई। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद साहित्य के गांधी हैं। उनके लेखन में दलितों के लिए करुणा का भाव है। दलित जीवन के प्रति उनकी मुखरता अस्पष्ट है। उनमें दलित पक्षधरता का अभाव है। वे उनकी आवाज नहीं बन पाते। सामंती समाज की आलोचना वे दबी जुबान से करते हैं। वर्ण-व्यवस्था को नकार नहीं पाते। उदाहरण के रूप में उन्होंने रंगभूमि, ठाकुर का कुआं, सद्गति और कफन को लिया। जयप्रकाश कर्दम का इशारा उसी अनसुलझे सवाल की ओर था जो पिछले कई वर्षों से हिंदी की संगोष्ठियों में छाया हुआ है। दलित लेखकों को गैरदलित में सहानुभूति नजर आती है और गैर दलित खुद को दलितों का हितैषी सिद्ध करने के लिए बेताब हैं। सहानुभूति और स्वानुभूति के झगड़े में पूर्वाग्रह और दुराग्रह को फैलने को पूरा अवकाश मिला है। दलित लेखकों का मानना है कि गैरदलित दलित साहित्य कैसे लिखा सकता है? और अगर प्रेमचंद को दलित हितैषी कह देंगे तो फिर आज के रचनाकारों को कैसे खारिज कर सकते हैं, जो गैरदलित होते हुए भी घोषित तौर पर दलित जीवन के पक्ष में लिख रहे हैं। यही कारण है कि अन्य दलित आलोचकों की तरह जयप्रकाश कर्दम ने भी गैर दलित की लेखकीय सहानुभूति को खारिज किया।
          दूसरे वक्ता के रूप में नामवर जी ने प्रेमचंद के विषय में दलित चिंतकों के विचारों से सहमति व्यक्त की और प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी कहने प्रख्यात दलित आलोचक डॉ.धर्मवीर को आड़े हाथों लिया। प्रेमचंद के चिंतन की भूमि को उन्होंने गांधी से जोड़ा और कहा कि इन्हें क्या कहा जाय ये लोग तो गांधी को भी नहीं  छोड़ते। जिस तरह से ये लोग गांधी और प्रेमचंद का कुपाठ करते हैं मुझे भय है कि किसी दिन ये लोग अंबेडकर का भी कुपाठ न कर दे। अगर गांधी को हिन्दी उपन्यासों में देखना हो तो रंगभूमि के सूरदास को देखना चाहिए। उन्होंने दलित लेखकों की रचनात्मकता को कटघरे में खड़ा किया। रचनात्मकता और साहित्य की विमर्शात्मक राजनीति को अलगाते हुए कहा कि दलित लेखकों ने प्रेमचंद का कुपाठ किया है। उन्होंने सद्गति के हवाले से कहा कि सद्गति कहानी में दुखी चमार द्वारा काटी जा रही लकड़ी की गांठ ही वर्ण व्यवस्था का प्रतीक है जिसे प्रेमचंद कटवा रहे हैं। लेकिन यह दलित लेखकों को समझ में नहीं  आता। डॉ.धर्मवीर की कफन संबंधी टिप्पणी, ‘जिसमें उन्होंने कहा है कि बुधिया के पेट में पल रहा बच्चा जमींदार का है। इसके संबंध में उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि उनको कैसे पता कि वह बच्चा किसी जमीदार का है। उनकी आत्मकथा के प्रसंग में कहा कि अगर उनकी पत्नी के साथ उनके संबंध खराब है इसका मतलब यह नहीं कि पूरे देश की स्त्रियों को वे खराब कहेंगे। यह कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। धर्मवीर की आलोचनात्मक समझ को उन्होंने सभी दलित लेखकों के ऊपर रखते हुए उनका विरोध किया। साथ ही उन्होंने दलित लेखको को नसीहत देते हुए कहा कि अच्छा यह होता कि दलित लेखक प्रेमचंद की साहित्यिक समझ को आगे बढ़ाए होते और अगर ऐसा हुआ होता तो आज दलित साहित्य की स्थिति कुछ और होती। आगे उन्होंने कहा कि दलित लेखकों ने अपने लेखन को प्रेमचंद जैसा बनाने के बजाय अपनी ऊर्जा को आरोप-प्रत्यारोप में जाया किया है। उन्होंने दो टूक कहा कि मैं दलित लेखकों को चुनौती देता हूँ कि वे अपने लेखन में प्रेमचंद की बराबरी करके दिखाएँ। दृढ़ आराधन का उत्तर आराधन से दें। उन्होंने चुटकी के अंदाज में कहा की कपोल से कपोल रगड़े जाते हैं, पैरों से मर्दित नहीं किए जाते। लेकिन इस आरोप और प्रत्यारोप में नामवर जी भी उन लेखकों को भी नजरंदाज कर जाते हैं जो वास्तव में दलित लेखन की गहराई को अभिव्यक्त कर रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसी राम सरीखे संवेदनशील और संतुलित लेखकों पर प्रश्नचिन्ह लगाना या नजरंदाज करना वैसा ही है जैसे डॉ.धर्मवीर का प्रेमचंद संबंधी दृष्टिकोण।

          संगोष्ठी के अगली वक्ता के रूप में रोहिणी अग्रवाल थी। उन्होंने प्रेमचंद के करुण भाव को दलितों और स्त्रियों के लिए नाकाफी बताया। उनका कहना था कि दलित और स्त्री किसी की करुणा जनित सहानुभूति के भूखे नहीं  हैं, वे इसका प्रातिकार करते हैं। लेकिन उनकी बातों से असहमति व्यक्त करते हुए वरिष्ठ महिला कथाकार और स्त्री विमर्शकार मृदुला गर्ग ने कहा कि करुणा को इतना छोटा करके नहीं देखा जा सकता। प्रेमचंद एक ऐसे कथाकार हैं जो करुणा के माध्यम से मानवीय संवेदना की गहराई तक जाते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद एक ईमानदार कथाकार हैं उन्होंने अपने लेखन में करुणा का भाव जगाया है, टिप्पणी नहीं  की है। क्योंकि टिप्पणी करना लेखक का काम नहीं  है, यह आलोचक या पाठक का काम है। आगे उन्होंने कहा कि आज भी दलित और स्त्री विमर्श वहीं खड़ा है जहाँ प्रेमचंद ने छोड़ा था। आज इसकी बहुत अधिक जरूरत है कि अपनी राजनीतिक सौदेबाजी को छोड़कर उसकी वास्तविक भाव भूमि पर विचार किया जाय और उसे अभिव्यक्ति प्रदान की जाय। लेकिन इसके बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि वास्तव में प्रेमचंद को हम किस दृष्टि और वैचारिक आग्रह के साथ नए संदर्भों में देखें। दरअसल आज का साहित्य लेखन इस तरह की राजनीतिक बहसों में फंस गया है कि उसे हमारे आलोचक स्पष्ट करने के बजाय और उलझा रहे हैं। यह विमर्श कम पूर्वाग्रह अधिक होता जा रहा है। साहित्य में जिस तरह की उदारता की जरूरत होती है उसका आज सर्वथा अभाव है।

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