महामारी में गाँव लौटे कामगारों के जीविका की समस्या

 संतोष कुमार राय

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादापिगरियशी” यह मातृभूमि प्रेम के लिए ऐसे ही नहीं कहा गया है। इसका जीवंत उदाहरण आज के समय में दिखाई दे रहा है। संकट के इस समय में आम जनमानस में अपने गाँव लौटने की जैसी बेताबी दिखी, उससे आज के विकसित भारत की छिपी हुई सच्चाई बाहर आ गई। कोरोना महामारी ने शहरों में जैसा भय और अविश्वास का माहौल बनाया उससे शहरों में काम करने के लिए आने वाले लोगों का शहरों के प्रति न सिर्फ विश्वास कम किया, बल्कि एक बार फिर भारत के गाँवों पर लोगों का विश्वास दृढ़ हुआ। अपनी मेहनत और खून-पसीने से जिस शहर को शहर कहलाने लायक मजदूरों ने बनाया-चमकाया, महामारी के समय में वही शहर मजदूरों के लिए बेगाने और डरावने लगने लगे। कोरोना के भय ने आम कामगारों के मन में जिस किसी एक के प्रति अगाध श्रद्धा और अटूट विश्वास पैदा किया वह भारत के गाँव हैं। एक बार फिर आधुनिक शहरों पर परंपरागत गाँव भारी पड़े। मजदूरों ने हरसंभव प्रयास किया कि वे किसी भी तरह से अपने गाँव पहुँच जाएँ। बहुतों ने तो जान की बाजी लगाकर अपने गाँव तक पहुँचने की कोशिश की। कुछ पूर्णबंदी से पहले तो कुछ पूर्णबंदी के दौरान हृदय विदारक कष्ट उठाकर अपने गाँव पहुँचने का प्रयास करते रहे और अब भी कर रहे हैं। जबकि सरकार की ओर से इन मजदूरों को जहाँ थे वहीं रोकने की हरसंभव कोशिश भी होती रही। अंततः सरकारों को भी इन कामगारों की जिजीविषा के आगे अपनी राह बदलनी पड़ी और अब देश के अलग-अलग हिस्सों से मजदूरों को श्रमिक विशेष ट्रेन तथा बस चलाकर उन्हें उनके प्रदेश, फिर उन्हें उनके गाँव तक पहुंचाया जा रहा है।

अब जब मजदूर अपने गाँव आ गये हैं और आ रहे हैं तो इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठना स्वाभाविक है। जैसे कि शहरों से वापस आने के बाद इनके जीविकोपार्जन के लिए अभी गाँवों में क्या व्यवस्था है? क्या गाँव में इनका भरण-पोषण हो जाएगा या फिर इन्हें गाँव छोड़कर शहर ही जाना पड़ेगा? इतनी बड़ी संख्या में मजदूर जब ग्रामीण क्षेत्रों में आ रहे हैं तो आम ग्रामीण की इनके लिए क्या राय है? इन सवालों को लेकर जब थोड़ी गहराई में उतरने की कोशिश की तो ग्रामीण यथार्थ की अनेक परतें खुलीं। सबसे पहली बात यह कि इन मजदूरों के गाँव आने के बाद जो प्राथमिक तौर पर दिखा वह यह कि इनके आने से सभी प्रसन्न हैं अर्थात गाँव में स्थायी रहने वाले भी और ये मजदूर भी। मजदूर इसलिए प्रसन्न हैं कि इस महामारी से बाहर निकलकर वे अपनी जन्मभूमि पर आ गये हैं और उन्हें यह विश्वास है कि यहाँ उन्हें कुछ नहीं होगा। जहाँ तक रोजगार का प्रश्न है तो भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है और कृषि में इतने तरह के कार्य हैं कि उसमें अधिकतम लोगों को रोजगार दिया जा सकता है और पहले भी इन मजदूरों को मिलता रहा है। ग्रामीण किसानों में मजदूरों के आने से प्रसन्नता है कि कृषि कार्य अब लगभग मशीनों के सहारे किसी तरह से हो पाता था और पिछले दो दशक से कृषि कार्य मजदूरों के अभाव में लगभग उपेक्षित हो गया था, उसे फिर से वही सम्मान और संपन्नता मिल सकती है। उदाहरण के लिए जब संपूर्णबंदी हुई तो गाँव में गेहूं की कटाई चल रही थी। मजदूरों के अभाव में किसान गेहूं को हार्वेस्टर से कटवाते थे जिसमें अच्छा खासा व्यय होता था। उसके बाद पशुओं के चारे के लिए भूसा बनवाना पड़ता था और उसमें भी उतना ही व्यय होता था। लेकिन मजदूरों के बढ़ने से इस बार एक ही काम को दो बार नहीं करवाना पड़ा और बड़े पैमाने पर मजदूरों ने गेहूं की कटाई में सहभागिता की। इसी तरह खेतों में गर्मी की सब्जी, गन्ना, सूरजमुखी, मूंग जैसी अनेक चीजें लगी हुई हैं, जिनके लिए बड़े पैमाने पर मजदूरों की आवश्यकता होती है। किसान प्रसन्न हैं कि उन्हें आसानी से मजदूर मिल जाएंगे और उन्हें अच्छा उत्पादन और मजदूरों को कार्य मिलेगा।

यहाँ यह भी समझने की जरूरत है कि अब ग्रामीण भारत की तस्वीर बहुत हद तक बदल चुकी है। परिवहन के साथ अन्य संसाधनों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है जिससे ग्रामीण भारत का उत्पादन आसानी से शहरों में और दूसरे देशों में पहुँच रहा है। सरकार की ओर से भी गाँवों में रहने वाले मजदूरों के लिए अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसका लाभ इन मजदूरों को भी मिलेगा। मनरेगा के तहत ग्रामीण भारत में रोजगार गारंटी की योजना पिछले कई वर्षों से चल रही है। वहीं खाद्यान्न वितरण से भी गाँव में रहने वाले मजदूरों का जीवन बहुत आसान हुआ है। पिछले पाँच-छः वर्षों में बड़े पैमाने पर आवास, शौचालय, बिजली और उज्जवला के तहत गैस कनेक्सन देकर सरकार ने ग्रामीण जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। शहरों से गाँव आए मजदूरों को बड़े पैमाने पर ग्रामसभाओं के द्वारा मनरेगा के तहत काम दिया जा रहा है। वहीं कृषि, पशुपालन, मछली पालन, बागवानी आदि में भी खूब काम मिल रहा है। गाँव में रोजगार को लेकर जब मजदूरों से बात करने कोशिश की तो उनका उत्तर कुछ इस तरह का था। उन्होने बताया कि शहरों में मासिक कार्य मिलता था जबकि गाँवों में यह दैनंदिन होता है। शहरों में खर्च भी अधिक था, जिसमें सबसे बड़ा खर्च रहने का था। गाँव में रहने का कोई खर्च नहीं लगता, वहीं बिजली-पानी पर भी बहुत कम खर्च होता है। इसलिए शहर की अपेक्षा गाँव में बहुत कम व्यय करके भी आराम से रहा जा सकता है। उन्होने बताया कि अब गाँवों में भी काम इतना बढ़ गया है कि यहाँ भी अच्छा काम मिल रहा है। खेती-किसानी के अतिरिक्त भी अनेक क्षेत्र हैं जिनमें बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन हुआ है। इस उत्तर में जो आत्मसंतोष था वह गाँव के प्रति उनके विश्वास और आत्मीयता को प्रकट कर रहा था।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है। मजदूरों के आने से किसानों का पक्ष भी जानना आवश्यक था। जब किसानों से इन मजदूरों को लेकर सवाल किया तो उनका कहना था कि जबसे ग्रामीण मजदूरों का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ कृषि की रीढ़ बैठ गई। हम सभी मशीनों के सहारे खेती कर रहे थे जबकि खेती में बहुत सारे ऐसे काम हैं जो मजदूरों के बिना संभव नहीं हो पाता। इन मजदूरों के आ जाने से खेती-बारी की स्थिति में बहुत सुधार हो जायेगा।

इस सारी स्थितियों को देखते हुए गाँव आए मजदूरों को लेकर फिलहाल ऐसी कोई बड़ी परेशानी दिखाई नहीं दे रही। आगे की स्थिति कैसी होगी यह समय तय करेगा। लेकिन एक बात तय है कि ग्रामीण भारत भी अब हर तरह से रोजगारोन्मुख हो गया है और ऐसे अनेक क्षेत्र सृजित हुए हैं जहाँ बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए हैं। यदि सरकार की ओर से ग्रामीण और कृषि विकास की योजनाओं को थोड़ा और विस्तार दे दिया जाय तो गाँव सिर्फ मजदूरों को रोजगार ही मुहैया नहीं कराएंगे, अपितु भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में भी बड़ी भूमिका निभायेंगे।

(31 मई2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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