सन्तोष कुमार राय
1 जुलाई के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ...
हाशिये का लेखन आज की मुख्यधारा का लेखन है। जिस समाज को वर्चस्वशाली लोगों ने मनमाने तरीके से विधान बनाकर मुख्यधारा से अलग रखा हुआ था, उस समाज के लेखन ने भारतीय मानस की छद्म सामाजिकता को बेनकाब कर दिया है। भारत का सामाजिक विकास विभाजन के रूप में अधिक, संगठन के रूप में कम हुआ है। अपने को ऊंचा दिखाने की होड़ में एक बड़े मानव समुदाय को पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर करने वाला वर्चस्वशाली तबका आज भी हाशिये के समाज की समस्याओं को स्वीकार नहीं कर रहा है। आखिर एक जैसे दिखने वाले मनुष्यों में ही इस तरह का भेद करने का अधिकार किसने दिया? क्या भारतीय समाज की संरचना को बनाने वाले लोगों की बुद्धि उस समय भ्रष्ट हो गई थी जब वर्णव्यवस्था की आधारशिला राखी गई? इस तरह के मानवताविरोधी कदम को आम जनमानस पर थोपने का साहस कैसे हुआ? जाहीर सी बात है की उस समय के वर्चस्वशाली लोगों ने मनमने तरीके से समाज की संरचना निर्मित की जो बाद में चलकर जाती के भयावह रूप में हमारे समाज को अनगिनत हिस्सों में बाँट दिया और हम एक होते हुए भी इतने हिस्सों में बंट गए।
हाशिये का लेखन आज की मुख्यधारा का लेखन है। जिस समाज को वर्चस्वशाली लोगों ने मनमाने तरीके से विधान बनाकर मुख्यधारा से अलग रखा हुआ था, उस समाज के लेखन ने भारतीय मानस की छद्म सामाजिकता को बेनकाब कर दिया है। भारत का सामाजिक विकास विभाजन के रूप में अधिक, संगठन के रूप में कम हुआ है। अपने को ऊंचा दिखाने की होड़ में एक बड़े मानव समुदाय को पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर करने वाला वर्चस्वशाली तबका आज भी हाशिये के समाज की समस्याओं को स्वीकार नहीं कर रहा है। आखिर एक जैसे दिखने वाले मनुष्यों में ही इस तरह का भेद करने का अधिकार किसने दिया? क्या भारतीय समाज की संरचना को बनाने वाले लोगों की बुद्धि उस समय भ्रष्ट हो गई थी जब वर्णव्यवस्था की आधारशिला राखी गई? इस तरह के मानवताविरोधी कदम को आम जनमानस पर थोपने का साहस कैसे हुआ? जाहीर सी बात है की उस समय के वर्चस्वशाली लोगों ने मनमने तरीके से समाज की संरचना निर्मित की जो बाद में चलकर जाती के भयावह रूप में हमारे समाज को अनगिनत हिस्सों में बाँट दिया और हम एक होते हुए भी इतने हिस्सों में बंट गए।
जिस
समाज की सामाजिक संरचना इतनी छद्म है उस समाज को अगर आज के दलित लेखक नकार रहे हैं,
तो इसमें बुराई क्या है। अगर ये लोग अपने ऊपर हो रहे बर्बर और अमानुषिक व्यवहार को
आत्मकथाओं में दिखा रही है तो इससे आज के समाज को सीख लेनी चाहिए जिससे पुरानी
गलतियों को भुलाकर नए रास्ते की तलाश हो सके। पुरानी भारतीय सामाजिक संरचना ऐसी थी
जिससे बाहर निकालना आत्महत्या करने जैसा था। परंपरा से चले आ रहे भारतीय समाज ने
हाशिये के लोगों के साथ दोयम दर्जे का वर्ताव किया है। भारतीय समाज में यह दाग
सदियों पुराना है, जिसे आज भी सामंतवादी और ब्राह्मणवादी मानसिकता
जीवित रखने के पक्ष में है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारतीय साहित्य में हाशिये के
समाज की उपेक्षा है। इस समाज की संस्कृति से साहित्य में हम तब तक अनभिज्ञ रहे। आज
इस अनभिज्ञता को दूर करके एक समतामूलक समाज बनाया जा सकता है। डॉ भीमराव अंबेडकर
ने जाती व्यवस्था को सिरे से नकारा है जिसे आज भी बहू सारे लोग स्वीकार करने के
पक्ष में नहीं हैं जबकि जाति व्यवस्था के दंश ने भारतीय समाज को बहुत पीछे धकेला
है।
‘हाशिये
का लेखन’ आज पारंपरिक लेखन से अलग एक नई सामाजिक और
सांस्कृतिक चेतना के रूप में हमारे सामने है। यह लेखन दलित,
आदिवासी और विस्थापितों के लेखन के रूप में है। भारतीय साहित्य में हाशिए के समाज
को लेखर कम लिखा गया है और जो लिखा गया है वह उनकी सामाजिक स्थिति से बहुत दूर और अत्यधिक
काल्पनिक है। असल में जब से दलित साहित्य दलित लेखकों के द्वारा लिखा जा रहा है तब
से इस वर्ग के लेखन की विश्वसनीयता बढ़ी है। यह लेखन यथार्थवादी लेखन है और यह
भारतीय पारंपरिक लेखन के समक्ष एक नई सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के पुनर्स्थापन
के साथ आ रहा है। वैश्विक चिंतन के केंद्र में शुरू से ही एक खास तरह की मानसिकता
का परिचय मिलता है, जो हाशिये के समाज को अपनी कसौटी पर
देखने का हिमायती रहा है। जाहिर सी बात है कि जब तक हाशिये के समाज का लेखन नहीं
आया था तब तक भारतीय संस्कृति की पहचान एकपक्षीय ही थी। अब सामंती मानसिकता और भारतीय
समाज की अवधारणा दोनों का खंडन हुआ है। आज हाशिये के लेखन ने खुद अपना रास्ता
बनाया है। आज वे किसी वर्चस्व को स्वीकार करने के वजाय उसे नकारने में विश्वास
रखते हैं। विषय से स्पष्ट है कि हाशिये के समानांतर जिस केंद्र का वर्चस्व रहा है आज
उसका समूच स्वरूप प्रश्नांकित है। यही कारण है कि एक खास मानसिकता के लोग इस लेखन
से तिलमिला रहे हैं।
आज
के इस लेखन ने सिर्फ सामाजिक बदलाव नहीं किया है, बल्कि उसने पूरी की पूरी
परंपरा को ही बदल दिया है । इस लेखन आज सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव का जो स्वरूप
हमारे सामने रखा है, दरअसल वह काही और से नहीं लाया गया है। यहीं
के लोगों द्वारा दिया गया है जिसे झेलते-झेलते पीढ़ियाँ गुजर गई है। हाशिये की
निर्मिति भी सामाजिक असमानता से ही हुई है। इस असमानता में के मूल में शोषणवादी
समाज की मानसिकता है। दलित आत्मकथाओं ने इस असमानता को सबके सामने ला दिया है, जिससे सांस्कृतिक पुनर्स्थापना का प्रश्न सभी के सामने आया है। हाशिये के
समाज का लेखन आज दलित, आदिवासी और अनेक शोषित तबकों की आवाज
के रूप में हमारे सामने है। आज जब उनकी व्यथा-कथा उनके शब्दों में हमारे सामने है, तो हमें एक सांस्कृतिक बदलाव का दिखाई देना स्वाभाविक लगता है । जिस
सामाजिक संरचना में मानव समाज को संगठित किया गया था, इस
लेखन ने उसे बहुत हद तक गलत सिद्ध कर दिया है। ऐसे दौर में इस लेखन की सामाजिक
उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता, इसलिए आज इसकी महती आवश्यकता
है कि सांस्कृतिक पुनर्स्थापन के प्रश्नो पर बहस हो।
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