मुद्दा अधूरी ‘अर्थ-नीति’ का है!

                                                                                                          सन्तोष कुमार राय
          यूपीए सरकार की दूसरी पारी अधिकतर स्तर पर नाकामयाब ही रही है। तीन वर्ष के इस दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व की अनेकानेक कमियाँ सामने आयी हैं, लेकिन इसकी ओर ध्यान न देते हुए सरकार के लोग यह गिनाने में लगे हुए हैं कि उन्होंने कितना कुछ किया । होना यह चाहिए कि सरकार ने जो अच्छा किया, उसे उसी के लिए चुना गया था, लेकिन जो नहीं हुआ वह उससे अधिक महत्वपूर्ण है । अपने इस कार्यकाल में मनमोहन सिंह सरकार सर्वाधिक विफल अपनी अर्थनीति पर रही है, जिसका असर भारत की गरीब जनता पर सीधा पड़ा है । लिहाजा भारतीयों की गरीबी का ग्राफ और अधिक बढ़ा है । सरकार ने कई हजार टेलीफोन लगवाया है जिसे वह अपनी उपलब्धियों में सुमार कर खुद अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन उसके पास इसका हिसाब कहीं भी नहीं है कि कितने गरीब परिवारों ने भूख से दम तोड़ दिया या अत्महत्या कर लिए।
          असल में किसी भी देश के आर्थिक विकास का सीधा असर वहाँ के आम आदमी पर पड़ता है । जब अर्थव्यवस्था मजबूत होती है तो आम जनजीवन के जीवन स्तर में सुधार होता है । भारत की मौजूदा आर्थिक स्थिति अपने अभी तक के सबसे खराब दौर से गुजर रही है । इसका कारण सिर्फ वैश्विक आर्थिक गिरावट नहीं है । अगर ऐसा होता तो भारत की आर्थिक स्थिति मे गिरावट उस समय आती जब पूरा विश्व आर्थिक बदहाली से जूझ रहा था । लेकिन उस समय ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उस समय हमारी आर्थिक नीतियाँ और हमारे संसाधन दोनों में आज जैसा बड़ा अंतर नहीं था । दिल्ली में रहते हुए सरकार ने अपनी सफलताओं की लंबी सूची गिना दिया और तीन साल पूरे होने का जश्न भी मना लिया । दरअसल यह जश्न मनाने का नहीं, मातम मनाने का समय है । आज जिस बदहाली की ओर देश जा रहा है, या यह कहा जाय कि जहां पहुँच गया है, वह दिन दूर नहीं जब यहाँ भूखे मरने वालों की तादात विश्व में सबसे बड़ी हो सकती है।
          सरकार की ओर से जारी बयान में यह भी कहा गया है कि यूपीए के इस कार्यकाल में प्रतिव्यक्ति आय में बृद्धि हुई है । यह वक्तव्य मंहगाई की आग में जली हुई जनता की जलन को बढ़ाने के लिए लाल मिर्च जैसा है । प्रधानमंत्री ने जिस प्रतिव्यक्ति आय में बृद्धि की बात की है वह इस देश के कुछ खास लोगों की आय की बृद्धि है । भारत में रहने वाला बड़ा तबका वह है जिसका इस आय-बृद्धि से कोई संबंध नहीं है । इस तरह की असमानता पर आधारित आर्थिक वितरण प्रणाली से देश में  असमानता की खाई को और बढ़ा रही है । विश्व के इतिहास में कहीं भी प्रतिव्यक्ति आय में इस तरह के विभेद के रहते उस देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती । जहाँ भी विकसित राष्ट्र की अवधारणा का विकास हुआ है वहाँ प्रतिव्यक्ति आय के बीच का फर्क ऐसा नहीं है । यह कहाँ का अधिकार है कि आम आदमी की जब देश की संपूर्ण आय की गणना हो तो प्रतिव्यक्ति आय में बड़ी बृद्धि हो, लेकिन जिनकी आय की गढ़ना हो रही है उसकी स्थिति आज भूखे मरने की है।
          बहुत सीधा सा जबाब है कि जब किसी भी व्यक्ति की आय में बृद्धि होती है तो उसके जीवन स्तर में सुधार होता है, लेकिन यहाँ तो आय बढ़ने पर आम आदमी के जीवन स्तर में और अधिक गिरावट आयी है। भारत के पूंजीपतियों और नौकरशाहों की आय में बेतहासा बृद्धि हुई है जिसे प्रधानमंत्री ने प्रतिव्यक्ति मान लिया है।
          सरकार ने अपने झूठे विकास के पुलिंदे में एक और बात शामिल किया है जो उसकी नासमझी के लिए काफी है । यह घोषणा की गई है कि इस साल हमारे देश में बहुत अधिक अनाज का उत्पादन हुआ है । इस उत्पादन को सरकार ने अपनी उपलब्धियों में गिना लिया । यह पूछा जाना चाहिये कि सरकार में शामिल लोगों ने इस उत्पादन को बढ़ाने के लिए क्या किया है? कौन सा ऐसा काम कर दिया जिससे उत्पादन में ऐसी बृद्धि हो गई । दरअसल यह बृद्धि इस देश के किसानों की जी तोड़ मेहनत का परिणाम है । इसमें सरकार का कोई भी योगदान नहीं है । योगदान तब होता जब सरकार किसानों के लिए खाद बीज आदि का प्रबंध करती । लेकिन कुछ भी किए बिना इस तरह का झूठा श्रेय लेना किसी भी तरह से वाजिब नहीं है ।
          सरकार तीन साल का जश्न माना ले लेकिन देश की आर्थिक हालत बहुत ही खराब है । आने वाला समय आम आदमी के जीवन के लिए बहुत ही संघर्षपूर्ण होगा । अगर वास्तव में सरकार को विकास करना है तो आम आदमी की हालत में सुधार की चिंता करे ।  न सिर्फ चिंता करे बल्कि उसमें सुधार के उपाय किए जाय । इसके लिए जरूरी है कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की सार्थक कदम बढ़ाए ।

2 टिप्‍पणियां:

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