सन्तोष कुमार राय
भारतीय
राजनीति का वर्तमान दौर राजनीतिक व्यापार और व्यापारिक सरोकारों का है । यहाँ यह कहने का सीधा मतलब है कि अब हमारे देश
में राष्ट्रपति का पद भी आपसी खींचतान और जोड़-जुगत से बाहर नहीं रह पाया है । कभी
यह पद अत्यंत गरिमामय और वैश्विक प्रतिष्ठा का हुआ करती था लेकिन आज हमारे देश की ‘परम
सम्माननीय’ राजनेताओं नेताओं की ‘महामहीमी
राजनीति’ और माननीया सोनिया गांधी की ‘गांधीवादी
संयोजन नीति’ ने जो स्वरूप तैयार किया है, हमारा देश आने वाले कई वर्षों तक नहीं भूल पाएगा ।
आज
भारतीय जनता के सामने भूख और गरीबी का प्रश्न सबसे अहम है । हमारे प्रधानमंत्री
पिछले आठ वर्षों से ठीक करने का झांसा दे रहे हैं । हमें यह पता नहीं है कि उनका
वादा करने और ठीक करने का कौन सा मुंह है । दोनों का एक ही है या फिर दोनों
अलग-अलग हैं । बहुत ही दुख के साथ कहना पड़ता है कि जितनी ऊर्जा वर्तमान सरकार
राष्ट्रपति बनाने की जोड़-जुगत में लगाया है अगर उसका चौथाई हिस्सा भी देश के
गरीबों के नाम कर दिया होता तो पता नहीं कितना बचपन भूख की बलि चढ़ने से बच जाता
। यहाँ सवाल सिर्फ राजनीति का नहीं है, यह
एक ऐसे पद की राजनीति का है जिसकी प्रतिष्ठा वैश्विक होती है ।
राष्ट्रपति
चुनाव को लेकर आज जैसी खबरें आ रही हैं उनको बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता । इसका
कारण साफ है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी – अपनी तरह से मनमानी पर अड़ा हुआ
है । हमारे देश के अधिकतर लोग इस बात से इत्तेफाक रखेंगे कि राष्ट्रपति पद के लिए
किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति को ही चुना जाय । लेकिन अफसोस की बात यह है कि कांग्रेस
और सोनिया गांधी की मुसीबत प्रणव मुखर्जी हैं जिनको आजीवन राजनीति में सक्रिय रखने
के लिए इस पद से अधिक उपयुक्त और क्या हो सकता है । इस पर रहते हुए प्रणव दा
कांग्रेस की सेवा भी करते रहेगे और अपने जीवन काल के अंतिम दौर में खुश भी रहेंगे
। चूंकि यह मामला प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ है इसलिए कुछ
जरूरी सवाल उठेंगे ही । कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष की सारी बातें प्रणव दा बिना
कुछ कहे ही मान लेंगे ? क्या अभी भी उनके मन में राजनीतिक लालच बची हुई है,
और अगर है तो वे मौन क्यों हैं ? क्यों उनके लिए दूसरे लोग
जोड़-घटाना कर रहे हैं । अभी तक तो कांग्रेस की अधिकतर आंतरिक राजनीति खुद प्रणव दा
ही सुलझाते रहे हैं । पिछले दस वर्षों में
तो यही देखने में आया है कि कांग्रेस पर जब-जब हमला हुआ है,
चाहे वह विपक्ष का हो, मीडिया का या फिर समाजसेवियों का, प्रणव दा खुलकर सामने आए हैं ।
इस बार क्यों दूसरे साधकों को साध रहे हैं । एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि
प्रणव दा को जो पद देने की तैयारी हो रही है और जिस तरह से हो रही है, वे उस पद को इतने छीछालेदर के बाद भी स्वीकार करेंगे । अगर स्वीकार भी कर
लें तो अपने स्वभाव और कार्य पद्धति के अनुसार खुद को कांग्रेस की इच्छा-आकांक्षा
से अलग कैसे करेंगे । इस तरह के अनेक सवाल हैं जो आज हमारे सामने हैं ।
अब
यहाँ सवाल देश के भविष्य का भी है । आज जैसी स्थिति है उसमें सरकार अगले चुनाव में
जनता के बीच कौन से मुद्दे लेकर जाएगी । क्या फिर वही बातें दोहराई जाएगी कि हम देश
का विकास करना चाहते हैं और आगे भी करेंगे । और फिर चुनाव के बाद हमारे प्रधानमंत्रीजी
अपनी ईमानदारी का भयानक परिचय देते हुए कहेंगे कि हमारे सामने गठबंधन की मजबूरी है
। यह क्या है, किस तरह की राजनीति है जिसमें हर जगह मजबूरी आ जाती है । सरकार में बैठे
हुए लोगों को इसका अंदाजा नहीं होगा कि उनकी छोटी–छोटी मजबूरियों का कितना बड़ा असर
भारतीय लोगों पर हो रहा है ।
बहरहाल
अभी जो माहौल चल रहा है वह किसी भी तरह से स्वस्थ राजनीति का परिचायक नहीं है । अब
राष्ट्रपति का चुनाव भी एक व्यापार की तरह हो गया है जिसे कोई चुनाव आयोग नहीं रोक
सकता । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत के राष्ट्रपति भवन में कौन प्रवेश करता
है ।
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