अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे.....


          सन्तोष कुमार राय
मुक्तिबोध ने लिखा है कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे, तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब’... असीम पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उसे गिरफ्तार किया गया, यह कितना सही है ?  समाज कितना बदल गया है, हम कितने छोटे हो गये हैं, हमारा आत्म कितना दूषित हो गया है, हम कितने आत्ममुग्ध होते जा है, वास्तव में हम कितने कायर और डरपोक हो गये है । हिन्दी साहित्य में एक लंबी परम्परा रही है जो लगातार सत्ता के विरोध में लिखती रही है । इस परंपरा में नागार्जुन, हरिशंकर परसाई, धूमिल, रघुवीर सहाय के अतिरिक्त स्वाधीन भारत में और स्वाधीनता से पहले भी ऐसे अनेक लेखक और विचारक हुए हैं जिन्होंने सत्ता का विरोध किया है लेकिन किसी के साथ ऐसा अन्याय नहीं हुआ। अगर ऐसा हुआ होता तो शायद ये सभी लेखक या तो जेल में रहे होते या फिर इयानके लेखन पर रोक लगा दिया गया होता ।
          भारत सरकार की हालत आज 'खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे' की हो गई है । ये लोग कभी भी अपने गिरेबान में झाँकने की कोशिश नहीं करते । आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहने के बावजूद जनता के सामने सफाई दे रहे हैं । यह तो तानाशाही है, जो लोग इसे लोकतन्त्र कहते हैं उन्हें लोकतन्त्र की तमीज नहीं है । और अगर यह लोकतन्त्र है तो लानत है ऐसे लोकतन्त्र पर जिसमें आदमी को सही बात कहने के लिए देशद्रोही करार दिया जाता है ।
          असीम त्रिवेदी के ऊपर मुकदमा चलाना एक तरह से आज के राजनेताओं के छोटेपन को ही दर्शाता है । असीम सच के साथ हैं और म्हम उनके साथ । यह कहना गलत नहीं होगा की अब हमारी शासन व्यवस्था भी तालीबानी शासन जैसी हो गई है । लेकिन यह कोई नई बात नहीं है इससे पहले भी इस तरह के वाकया हो चुके हैं । हुसैन साहब के साथ जो हुआ वह क्या था ? कहाँ से वह लोकतन्त्र का समर्थक था और कुछ वैसा ही रूख असीम के साथ भी व्यक्त किया जा रहा है ।
          आज भारत का हर नागरिक डरा-डरा महसूस कर रहा है । उसे लगातार यह चिंता सता रही है कि पता नहीं कल उसे किस जुर्म में गिरफ़्तारकर लिया जाएगा जो उसने किया ही नहीं है । भारतीय राजनीति में लोकतन्त्र के नाम पर जैसे परिवार तंत्र पल रहा है और जो लोग उसकी वकालत कर रहे हैं वे खुद इस देश के गद्दार हैं । अगर शर्म नाम की भी कोई चीज होती है तो आज के नेता जैसे जैसे घोटालों में फंसे हैं नैतिकता के आधार पर और उनकी लोकतंत्रीय दुहाई के आधार पर खुद राजनीति से बाहर क्यों नहीं निकाल जाते हैं । भूख, गरीबी और महंगाई से त्रस्त जनता की आवाज को देशद्रोह करार देना तानाशाही मानसिकता का ही द्योतक है ।
          मीडिया के द्वारा यह आवाज़ उठाई जा रही है कि लेखकों, विचारकों को अपनी सीमा निर्धारित करनी चाहिए कि उनकी अभिव्यक्ति का दायरा क्या होगा । मुझे लगता है कि यही सवाल आज इस देश के कर्णधारों से पूछा जाना चाहिए कि आपकी सीमा क्या है ? सरकार में शामिल लोग मनमानी लूट करें और इस देश की जनता नमाशबीन की तरह देखती रहे । उसे अपना विरोध दर्ज करने की भी अधिकार नहीं है ? क्या यह देश सिर्फ लूटेरों और भ्रष्टाचारियों का है ? अगर ऐसा है तो वह दिन दूर नहीं जब इस देश में दूसरी बार स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा जाएगा । बड़ी कुर्बानियों के बाद यह देश बचा है । असीम को जेल में बंद कर देने से अभिव्यक्ति बंद नहीं होगी। हजारों ऐसे लोग पैदा हो जाएंगे जो विरोध करेंगे ।

हाँ ! हम ही दोषी हैं....


सन्तोष कुमार राय
कितना मजेदार होता है दोष देने वाले को ही दोषी बना देना । बचपन में जब किसी गलती पर हम झूठ का सहारा लेते थे और अपने छोटे भाई या बहन को दोषी सिद्ध करा देते थे और मन ही मन अपने बच निकलने की खुशी से गदगद हो जाते थे ।  लेकिन अचानक हमारी खुशी काफ़ुर हो जाती थी और हमारा बाल मन भयभीत हो उठता था । हमारे अभिभावक जब भाई-बहन को पीटना शुरू करते थे तो उसके रोने की आवाज हमें भी दहशत में डाल देती थी और अचानक हमारे मुंह से अपनी गलती का स्वीकार भाव निकलता था और हम भी भाई बहनों के साथ रोना शुरू कर देते थे । लेकिन उस गलती को स्वीकार करने के बाद जो संतोष मिलता था उसको बयां करना कठिन है । एक बात सच है कि मनुष्य जिस दिन गलती स्वीकार करना सीख जाता है उसी दिन उसके अन्तर्मन में ईमानदारी का स्थायी वास हो जाता है ।  
          अब समय बादल गया है और आज हम जिस समाज में जी रहे हैं और जिस समाज को देख रहे हैं, वह समाज न तो गलती स्वीकार करने का है और न ही ईमानदारी को अपना उसूल बनाने का । आज के समय में जो व्यक्ति ऐसा कर रहा है या तो उसे आज का समाज पागल करार देता है (जैसा दिग्विजय सिंह ने अन्ना को और अरविंद केजरीवाल को कहा था) या फिर वह खुद पागल हो जाता है। भारत सरकार के हमारे ईमानदार प्रधान मंत्री जी को ही देख सकते हैं । कितने ईमानदार हैं ! जब वे बोलते हैं... क्या कहने । ऐसा लगता है जैसे एक–एक शब्द से ईमानदारी की गंगा बह रही हो और सारे देशवासी उसमें भीगकर उन्हें तहे दिल से आशीर्वाद दे रहे हों । और देखकर तो लगता है कि इतना आशीर्वाद तो भागीरथ को भी लोगों ने नहीं दिया होगा । और यही नहीं जब गंगा के बरक्स सोनिया जी बोलती है तो जो मातृत्व झलकता है उसके लिए इस संसार में शब्द नहीं हैं । लेकिन अब क्या किया जाय ये जो कोयला है न इसने पता नहीं कहाँ से कुछ काला कर दिया । कितनी मुश्किल से राजा और कलमाड़ी को किनारे किया था और राहुल जी के लिए रास्ते को साफ सुथरा किया जा रहा था कि इसी में कैग वालों ने नया तमाशा खड़ा कर दिया । और विपक्ष को तो बस ऐसे मौके का इंतजार ही है । जमीन पर कुछ नहीं कर सकते, जनता के लिए कुछ नहीं कर सकते, तो क्या हुआ अगर विपक्ष का दर्जा मिला है तो देशवासियों को यह तो बता ही सकते हैं कि अगर हमे नहीं चुनोगे तो हम संसद ही नहीं चलने देंगे । अपने पिताजी का क्या जाता है । सरकार भी जनता की है और देश भी जनता का है और संसद को चलाने के लिए जो पैसा आता है वह भी जनता का है । तो विपक्ष का क्या है ? विपक्ष को तो जनता ने चुना नहीं है । कितनी अजीब बात है हर जगह पक्ष का चुनाव होता है, कहीं भी विपक्ष का चुनाव नहीं होता है । तो फिर विपक्ष क्यों जनता के लिए काम करे । अब चुने हो तो भुगतो ।
          खैर ले देकर यह सत्र भी रूखा-सुखा समाप्त हो गया लेकिन जनता बबूल के पेड़ से आम की प्रतीक्षा में पेड़ को निहारती रही । अब सरकार अपने पर लगे हुए कोयले के दाग को धोने की मंसा जाहिर कर चुकी है, क्योंकि प्रधानमंत्री जी ने कल कह दिया कि विपक्ष अलोकतांत्रिक है और कैग ने जो भी आरोप लगाया है उसका जवाब दिया जाएगा । मुझे भी लगता है कि सरकार इस साल के इलाहाबाद के कुंभ में अपने दाग को पूरी तरह से भले न धो पाये लेकिन त्रिवेणी के पानी से पोछकर अगले चुनाव में जरूर आएगी अपनी प्यारी और ईमानदार दोषी जनता के बीच ।
          लेकिन दोष तो अभी भी बाकी है । आखिर कोयला का दोषी कौन है, अगर दोष दिखावे के छापे से अलग सिद्ध होता है तब । तो मेरा मानना है और मुझे लगता है कि हमारे पूर्व और वर्तमान कोयला मंत्री जी लोग भी यही कहेंगे कि साहब हम तो जनता के सेवक हैं आखिर कुछ लोगों को दिया तो वे भी तो इसी लोकतन्त्र के अंग हैं । इसमें बहुत बौखलाने की क्या जरूरत है । और अगर जनता ऐसे विपक्ष को चुनकर भेजेगी तो हम क्या कर सकते हैं । इसके लिए तो जनता ही दोषी है और मैं भी उसी दोषी जनता की ओर से हूँ ।

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...