संतोष कुमार राय
यह कोई पहली बार नहीं
हुआ है जब भारतीय समाज में हिंदू विरोधी राजनीतिक साजिश करते हुए चर्च को पाया गया
है। दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउटो ने पादरियों को एक पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने देश में राजनीतिक स्थिति को अस्थिर बताया है। साथ ही,
सभी पादरियों से आग्रह किया है कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव तक देश
के लिए प्रार्थना करें। यही नहीं आर्कबिशप ने 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए
पादरियों से प्रार्थना करने और शुक्रवार को उपवास रखने को कहा है। उन्होंने पत्र
में यह भी लिखा है कि देश की आंतरिक स्थिति नाजुक है, मौजूदा
राजनीतिक माहौल धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा है। ऐसा पहले भी अनेक बार होता रहा है।
चाहे इन्दिरा गाँधी के समय में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराने में चर्च शामिल हुआ
हो या अरुणाचल की रिपोर्ट हो। हाल के वर्षों में भी अलग-अलग राज्यों में जब-जब
चुनाव हुए हैं, चर्च हिंदू समाज के विरोध में जनमत को उकसाता
रहा है। चाहे वह गोवा का चुनाव हो, नागालैंड और मेघालय का हो, चाहे त्रिपुरा और मणिपुर का हो। कर्नाटक चुनाव में भी चर्च की ओर से भाजपा
के विरोध में ईसाई समाज को एकजुट कराने की खबरें आयी थीं। नागालैंड चुनाव में नागालैंड के सबसे बड़े ईसाई संगठन
नागालैंड बप्तिस्त चर्च काउंसिल की ओर से भाजपा को हराने की अपील की गई थी। लेकिन इस बार आर्कविशप द्वारा जारी
किए गये पत्र के मायने अलग हैं।
पिछले जितने भी राज्यों
में चर्च की ओर से इस तरह के पत्र या अपील की गई थी, वहाँ
धर्मांतरित ईसाई समुदाय की संख्या अधिक थी, लेकिन इस बार यह
दिल्ली में और केंद्र की भाजपा सरकार को निशाने पर लेते हुए पत्र जारी हुआ है।
इसलिए इसके पीछे छिपे निहितार्थ को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि इस
बार सीधे-सीधे मौजूदा सरकार पर एक तरह का हमला है। पोप और पादरियों के इतिहास को
जो लोग जानते हैं, उन्हें यह पता है कि यूरोप में ये किस तरह
की राजनीतिक भूमिका निभाते रहे हैं। भारत में भी दबी जुबान में ही उन्होने अपनी
मंशा व्यक्त कर दिया है। आखिर मौजूदा सरकार से ईसाई समुदाय को दिक्कत क्या है? इसकी पड़ताल जरूरी है।
पिछले कई दशकों से
भारत में ईसाईयों द्वारा धर्मांतरण के व्यापार को फलने-फूलने के लिए उर्वर और
बाधामुक्त परिवेश आसानी से मिलता रहा है। शिक्षा,
चिकित्सा और सेवा की आड़ में धर्मांतरण का बड़े पैमाने पर व्यवसाय होता रहा है।
यूपीए शासन के दस वर्षों में इसका बेतहासा विस्तार भी हुआ है। लेकिन जबसे केंद्र
में भाजपा की सरकार बनी है इस व्यवसाय में थोड़ी नरमी आयी है। लिहाजा सुनियोजित
धर्मांतरण की राह में बाधा उत्पन्न हो रही है। ईसाई समुदाय अपनी मंशा के अनुरूप
कार्य नहीं कर पा रहा है, साथ ही सरकार की ओर से किसी भी
प्रकार की सहायता भी नहीं ले पा रहा है। इसलिए उसे देश में राजनीतिक संकट दिख रहा
है। आर्कविशप का यह पत्र सीधे-सीधे राजनैतिक चुनौती के रूप में आया है। प्रार्थना
तो सिर्फ बहाना है, असल में तो भारतीय समाज की बढ़ती राजनैतिक
एकता को खंडित करने की साजिश है। साथ ही आर्कविशप ने अपनी पक्षधरता को भी बहुत
साफ-साफ स्पष्ट कर दिया है कि भारत में सत्ता में वही रहे जो उन्हें धर्मांतरण का
अनुकूल अवसर मुहैया कराये।
भाजपा के साथ-साथ आम
जनमानस की ओर से भी इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। दूसरी ओर भारत के
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग की ओर से इस पत्र के समर्थन में उपदेश भी आ रहे हैं।
भारत में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदू समाज के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। अन्य
धर्मों के लिए निरपेक्षता के मानक अलग होते हैं। यही कारण है कि जबसे भाजपा की
सरकार केंद्र में आयी है हर चुनाव से पहले इस तरह का माहौल बनाया जाता रहा है। उसी
कड़ी में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आर्कविशप का यह पत्र भी आया है। आगे भी इस तरह
की राजनैतिक और सामाजिक सामंजस्य को खंडित करने की हरसंभव कोशिश होती रहेगी। अब
देखने की बात यह होगी कि भारतीय समाज इस तरह के व्यावसायिक खड़यंत्रों का जवाब कैसे
देता है।
(3 जून, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित )
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