लोकतांत्रिक सहजता का संदेश

संतोष कुमार राय 

संवाद किसी भी मजबूत लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण पहचान है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शिक्षा वर्ग के तृतीय वर्ष के समापन पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है, जिसे लेकर समूचा विपक्ष मूर्छा में है। यही वैचारिक उदारता संघ को विश्व के सबसे बड़े संगठन के रूप में पहचान और प्रतिष्ठा दिलाती है। प्रणव मुखर्जी को संघ शिक्षा वर्ग में आमंत्रित किये जाने से भारत का तथाकथित सेकुलर, कांग्रेसी और गैर राष्ट्रवादी वर्ग सकते में है। असल बात यह है कि यह वही वर्ग है जो घनघोर अ-बौद्धिकता, अज्ञानता और वैचारिक दिवलियेपन ही हद तक पहुँच गया है। इस वर्ग को न तो संघ की रीति-नीति का ज्ञान है और न ही भारतीय राजनेताओं के इतिहास की जानकारी है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रणव मुखर्जी भारतीय राजनीति पहले गैर-संघी या अनेक जगहों पर संघ से घनघोर असहमति व्यक्त करने वाले कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं, जिन्हें संघ शिक्षा वर्ग के समापन पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया है। इससे पहले इसमें शामिल होने वाले राजनेताओं की लंबी सूची है। सभी को यह पता है कि 1934 में महात्मा गांधी, 1939 में भीमराव अंबेडकर तथा 1977 में जयप्रकाश नारायण जैसे बड़े लोग इसमें शामिल हो चुके हैं। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कई बार कांग्रेस का अध्यक्ष रह चुके पं मदन मोहन मालवीय संघ के प्रारंभ से ही उसके शुभचिंतकों और उसके विस्तार में अनन्य सहयोगी रहे। महात्मा गांधी ने संघ के बारे में जो कहा है वह सर्वविदित और सर्वमान्य है। उन्होने कहा 'बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक हेडगेवार जीवित थे। जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गये थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था।...संघ एक सुसंगठित, अनुशासित संस्था है।'

समझने की जरूरत है कि आज ऐसा वितंडा क्यों खड़ा किया जा रहा है ? प्रणव मुखर्जी के जाने से विपक्षी पार्टियों के लिए ऐसी कौन सी आफत आने वाली है ? दूसरी ओर यह भी समझने की जरूरत है कि संघ से प्रखर वैचारिक असहमति रखने वाले नेता को इस कार्यक्रम में संबोधन के लिए आमंत्रित करना आपसी संवाद और लोकतांत्रिक सहजता का संदेश देता है, जिससे प्रशिक्षित प्रचारक और संगठन के लिए कार्य करने का संकल्प लेने वाले प्रशिक्षु सुनेंगे और उसे अपने जीवन में उतारेंगे। इस बात से बेखबर संघ ऐसा पहले भी करता रहा है कि प्रशिक्षुओं के मानस पर इस तरह के विचारों का कैसा प्रभाव पड़ेगा। यही बातें संघ के वैचारिक बड़प्पन को प्रदर्शित करती हैं। मतलब साफ है कि संघ अपने प्रशिक्षुओं और भविष्य के प्रचारकों को बहुत साफ-साफ यह संदेश देता है कि हमें विरोधी विचारों को सुनना और उसका सम्मान करना चाहिए। फिर कांग्रेस में इस बात से इतनी उथल-पुथल क्यों है? असल में प्रणव मुखर्जी को जो लोग नहीं जानते हैं उन्हें उनके अतीत की कार्यशैली को जानना चाहिए। ये वही प्रणव मुखर्जी हैं जिंहोने इंदिरा गांधी के देहांत के बाद जब राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की बात आयी तो कांग्रेस के भीतर से परिवारवाद का पुरजोर विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि राजीव गांधी के कैबिनेट में प्रणव मुखर्जी की जगह नहीं बनी। लेकिन प्रणव मुखर्जी एक समर्पित कार्यकर्ता के तौर पर कांग्रेस के लिए काम करते रहे। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रपति बनने से कुछ समय पूर्व वे जब वित्तमंत्री के रूप में कार्य कर रहे थे, गृह मंत्रालय यानी चिदंबरम की ओर से उनके कार्यालय की खुफिया कैमरों से निगरानी की खबरें आयीं थी। दरअसल कांग्रेस की और कांग्रेसी नेताओं की कार्यशैली का शिकार जितना प्रणव मुखर्जी हुए हैं उतना किसी और को नहीं होना पड़ा है। कांग्रेस को ऐसा लग रहा है कि इस कार्यक्रम में संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करना कांग्रेस के इस कट्टर विरोधी संगठन को प्रणव मुखर्जी द्वारा वैधता देने जैसा होगा। हालांकि विश्लेषकों का यह भी मानना है कि इस कार्यक्रम में शामिल होने से प्रणब मुखर्जी की राजनीतिक विचारधारा में कोई बदलाव नहीं होगा और यह अच्छी बात है कि इस दौरान संघ के कार्यकर्ताओं कुछ अलग नज़रिए से दूसरे विचारों को जानने-समझने का मौका मिलेगा। यह किसी भी लोकतंत्र की बेहतरी के लिए बहुत जरूरी है कि एक ही मंच पर बिना किसी कटुता के अलग-अलग विचारों को रखने की आजादी हो। इससे वैचारिक कट्टरता की जगह संबंधों में सहजता आती है तो वहीं अति आदर्शवादी विचारधाराएं आधुनिक दुनिया के मुताबिक व्यावहारिक स्वरूप ग्रहण करती हैं। वैसे भी प्रणब मुखर्जी को तालमेल बिठाने वाले नेता के रूप में जाना जाता है और उन्हें यह बेहतर पता है कि सभी पक्षों से संवाद कितना जरूरी होता है। इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिक पार्टियों को यही संदेश है कि वे विरोधी पक्षों या अपने से अलग विचारों के प्रति सहिष्णुता दिखाएं और उन्हें भी सुनने-समझने की कोशिश करें।

(10 जून, 2018 के युगवार्ता में प्रकाशित)


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