मनरेगा के नीतिगत अर्थ-प्रत्यर्थ

सन्तोष कुमार राय

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित....

इस वर्ष भारत में ग्रामीण मजदूरों के लिए चल रही योजना ‘मनरेगा’ के पाँच वर्ष पूरे हो गये। निश्चित तौर पर यह एक ऐसी योजना है जो भारत के मजदूरों की स्थिति बदलने में अहम भूमिका अदा कर सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि इसका क्रियांवयन सही हो। आज भारतीय प्रशासन की जो स्थिति है उसमें इसके सही क्रियांवयन के बारे में सोचना अपने को धोखा देने जैसा ही है। इसके दो बड़े लाभ हुए। पहला यह कि इसने मजदूरों का पलायन रोका तथा दूसरा इसने अपने घर में रहते हुए भरण-पोषण का अवसर मुहैया कराया। लेकिन इस योजना ने हमारे सामने कुछ अहम सवाल भी पैदा किये है मसलन इसके तहत कार्यरत मजदूरों का भविष्य क्या होगा? उनकी अगली पीढ़ी का भविष्य क्या होगा? क्या सौ दिन के रोजगार से उनके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा? क्या सत्ताधारी वर्ग इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकता है? इस तरह के अनेक सवाल आज सरकार की नीतियों को लेकर उठाये जा रहे हैं। सरकार के इस कदम की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने मजदूरों की समस्याओं को समझा। लेकिन इस सन्दर्भ में मजदूरों के भविष्य का सवाल भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है कि हर मनुष्य के भविष्य का आधार वर्तमान होता है, तो क्या इन मजदूरों का वर्तमान भी भविष्य के काबिल है?

‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’(नरेगा) नामक इस योजना की शुरूवात 2006 में हुई थी। इसमें 879 करोड़ मजदूरों को रोजगार दिया गया है जिसमें 47 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके तहत 28 प्रतिशत अनुसुचित जाति तथा 24 प्रतिशत अनुसुचित जनजाति के लोगों को अवसर मिला है। 2006-07 में इस योजना को भारत के 200 जिलों में लागू किया गया। 2007-08 में यह संख्या बढ़कर 330 हो गयी। 1 अप्रैल 2008 को इसे देश के सभी जिलों में लागू कर दिया गया। बाद में इस योजना में ‘काम के बदले अनाज’ और ‘सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना’ को भी इसमें शामिल कर लिया गया। 2 अक्टूबर 2009 को इस योजना का नाम महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया गया जिससे सम्बन्धित विधेयक दिसम्बर 2009 में संसद में पारित किया गया।

दरअसल सरकार की नीतियां जिस तरह की हैं वह तत्काल प्रभाव के लिए तो सही है लेकिन इसे स्थायी नहीं बनाना चाहिए और न ही इसका जैसा विज्ञापन हो रहा है वैसा विज्ञापन होना चाहिए। विज्ञापन जब तक सूचनात्मक होते हैं वहाँ तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही वे स्थायी होते हैं और उन्हें राजनीतिक हथियार का रूप प्राप्त होता है, वहां उनका नीतिगत उद्देश्य समाप्त हो जाता है। यह कहना जितना गलत है उतना ही हास्यास्पद भी कि मनरेगा की अवधारणा गलत है या उसकी उपयोगिता गलत है। इसमें यदि कुछ गलत है तो तो इसका क्रियान्वयन। फिलहाल इसमें जो अनियमितताएं आयी हैं, उन्हें यदि तत्काल दूर नहीं किया गया तो गरीबों का पेट भरने के वजाय नौकरशाह अवश्य मोटे हो जायेंगे। इसे भारतीय नौकरशाहों की कुदृष्टि से सुरक्षित बचाने की जरुरत है। और अगर बच गया तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह वर्तमान सरकार की सर्वोत्तम नीतियों में से एक होगा। लेकिन समस्या यही है कि भारत में नीतियां जरूर बनायी जाती हैं, उनका सही क्रियान्वयन मुश्किल होता है और उन नीतियों का कितना हिस्सा जमीन पर आ पाता है इससे हम सभी वाकिफ हैं।

इस सम्बन्ध में जिस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है वह भारतीय मजदूरों की वर्तमान स्थिति है। आज कोई भी मार्क्स आकर मजदूरों के प्रतिरोध को नहीं जगा सकते। ऐसे में नीति निर्धारक तबका को उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। असल में इस योजना में जिन बाधाओं का सामना मजदूर वर्ग को करना पड़ रहा है वह इसकी विफलता के लिए काफी है। जाब कार्ड बनवाने से लेकर काम पाने तक जिस प्रकार वे ग्रामप्रधानों का चक्कर लगाते हैं उसे देखकर इस योजना की सफलता और विफलता का आभास हो सकता है।

दूसरी ओर एक बड़ी समस्या न्यूनतम काम पाने के बाद की है। यह आवश्यक नहीं है कि सौ दिन के बाद भी काम मिलेगा, यदि मिल गया तो ठीक नहीं तो सौ दिन काम करने के बाद की बेकारी, और यह बेकारी बहुत ही खराब है, क्योंकि यहां यह सम्भव नहीं है कि सौ दिन के काम के पैसे से तीन सौ पैंसठ दिन का काम चल जाय। गांवो में और क्या काम हो सकता है और इसके काम की लालच में वे और कहीं जा नहीं सकते हैं, इसलिए उनकी स्थिति का खराब होना लाजमी है।

अब मजदूर वर्ग ने इसका दूसरा रास्ता निकाला है। यदि एक घर में चार सदस्य हैं तो चारों को काम पर लगाया जाय जिससे एक आदमी को हमेशा काम मिलता रहे। यह उनके लिए तो कुछ हद तक सही है लेकिन इससे आने वाली पीढ़ी लगभग अशिक्षित हो जायेगी और उसका भविष्य सिर्फ मनरेगा आधारित होकर रह जायेगा। क्योंकि इसमें जिन लोगों को काम पर लगाया जाता है उनमें एक बड़ा हिस्सा पढ़ने वाले लड़कों का है जो अपनी पढ़ाई अधूरा छोड़कर काम में लग जाते हैं। ऐसे में उनका जीवन मजदूरी के लिए अभिशप्त हो जाता है। इसलिए इस पर एक बार पुन: विचार करने की जरूरत है।

एक और समस्या जो आज के भारत की प्रमुख समस्या है और कल के भारत के लिए और विकराल रूप धारण कर रही है, वह है जनसंख्या। इस योजना के स्थायी होने पर यह हमारे सामने आ सकती है। इसका सम्बन्ध भी इससे है और वह इसलिए कि एक परिवार में जितने अधिक सदस्य होंगे परिवार की आमदनी का जरिया उतना ही अधिक होगा। इसप्रकार सदस्यों की संख्या बढ़ेगी ही, और वैसे भी भारत अब 121 करोड़ तक पहुंच गया है। यहां एक महत्वपूर्ण मामला शिक्षा से जुड़ा हुआ है जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा उसे बदलना मुश्किल है। भारत के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को भले ही ऐसा लगे कि जनसंख्या बढ़ रही है और यह देश के लिए ठीक नहीं है, लेकिन हमें यह समझ में नहीं आयेगा, क्योंकि हमारा रोजगार हाथ है और हमारे पास जितने अधिक हाथ होंगे हमारा जीवन सुखी न सही कुछ सरल तो हो ही जायेगा।

अब इसकी बहुत ही अधिक आवश्यकता है कि इस योजना के साथ-साथ कोई नयी योजना लायी जाय जो इन समस्याओं को मिटाने में मदद करे तभी मनरेगा की और वर्तमान सरकार की सफलता सिद्ध होगी।

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