संतोष कुमार राय
राहुल गाँधी की अध्यक्षता में कांग्रेस अति उत्साह में मोदी सरकार
का विरोध कर रही है. आम तौर पर विरोध करना विपक्ष की जिम्मेदारी होती है लेकिन
विपक्ष को जिम्मेदारी और गैरजिम्मेदारी के बीच के फर्क की भी समझ होनी चाहिए. यह
कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पिछले चार वर्षों में कांग्रेस विपक्ष की
भूमिका अदा करना नहीं सीख पायी. उसका कारण बहुत साफ है. अभी तक कांग्रेसी नेताओं
के मानस से सत्ता भोग का नशा उतरा नहीं है. दूसरा यह कि विपक्ष मानसिक और वैचारिक
बिखराव का शिकार है. आपसी सहमति और समझ के अभाव और अत्यधिक उतावलेपन
में विपक्ष सत्ता का अंधाधुंध विरोध कर रहा है, जिसके
परिणामस्वरूप उसे कई बार मुंह की भी खानी पड़ रही है. पिछले कई मुद्दों पर विपक्ष
की ऐसी ही भूमिका रही है, जिससे आम जनमानस में बहुत अच्छा
संदेश नहीं गया. इसका एक कारण नयी पीढ़ी के नेता भी हैं. कांग्रेस खुद को देश की
सबसे पुरानी पार्टी के तौर पर देखने और दिखाने की कोशिश करती है, जबकि सत्तासीन भाजपा उससे कम उम्र की है. वैसे एक पार्टी के तौर पर
कांग्रेस का नाम तो पुराना है, लेकिन संगठन के तौर पर वह कई
बार टूटी, बिखरी और जुड़ी है. ‘इंदिरा
कांग्रेस’, ‘तिवारी कांग्रेस’ और ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी’ जैसे दल या शब्द ऐसे
ही बिखराव की याद दिलाते हैं.
यहाँ यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर
विराजे राहुल गाँधी या उनकी कार्यशैली की तुलना किसी दूसरी पार्टी के अध्यक्ष पद
पर आसीन व्यक्ति या उसकी कार्यशैली से ही की जानी चाहिए, न कि प्रधानमंत्री मोदी से. मीडिया ने जबरन राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री
के बरक्स खड़ा किया हुआ है, जो तुलनात्मक दृष्टि से
अस्वाभाविक है. प्रधानमंत्री से तुलना के दो आधार हो सकते हैं, पहला यह कि आम चुनाव में वह व्यक्ति अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री का
प्रत्याशी घोषित हुआ हो. दूसरा कि वह सदन में विपक्ष का नेता हो. राहुल गाँधी
दोनों में से किसी श्रेणी में नहीं आते, लिहाजा उनकी तुलना
उनके समकक्ष पद वाले व्यक्ति यानी बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से ही होनी चाहिए.
किसी भी संगठन का दारोमदार उसके मुखिया पर होता है. भारतीय राजनीति
की दोनों बड़ी पार्टियों में से एक सत्ता में है और दूसरी सत्ता पाने के संघर्ष
में. दोनों पार्टियों की कार्यशैली को समझने की आवश्यकता है, क्योंकि पूरी भारतीय राजनीति इन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रही है. इस
परिप्रेक्ष्य में इस बात को भली-भांति समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस ने न तो अपने-आप
को विपक्ष की पार्टी माना और न ही उसने विपक्ष का दायित्व निभाया. वह लगातार सत्ता
पाने के लिए संघर्ष करती नजर आयी. यही सबसे बड़ा तथ्य है जिसकी वजह से आज तक वह
विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना नहीं सीख पायी. इसका निहितार्थ बहुत साफ है.
दोनों पार्टियों के अध्यक्ष की कार्यशैली, योजनाएं और
सांगठनिक स्थिति को समझना चाहिए.
राहुल गाँधी राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से अमित शाह की तुलना में
कहीं अधिक अनुभवी हैं. राहुल गाँधी ने जन्मना राजनीति देखी है, जबकि अमित शाह की राजनीति पहली पीढ़ी है. राहुल गाँधी का भारतीय राजनीति
में पदार्पण सीधे-सीधे राष्ट्रीय पटल और पार्टी की ओर से देश के भावी प्रधानमंत्री
के तौर पर हुआ. इस दृष्टि से अमित शाह बहुत पीछे हैं. एक युवा कार्यकर्ता के रूप
में अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले अमित शाह ने लंबे समय तक गुजरात की
क्षेत्रीय इकाइयों में कार्य किया. उन्होंने प्रदेश स्तर के नेतृत्व में काम करते
हुए अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई है, लेकिन इतना होने के बाद
भी यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा की ओर से वे प्रधानमंत्री के प्रत्याशी हो सकते
हैं, क्योंकि भाजपा में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार इस तरह
घोषित करने का न तो प्रावधान है और न ही परंपरा है. राष्ट्रीय नेतृत्व और
कार्यशैली की दृष्टि से दोनों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, तभी स्पष्ट होगा कि वास्तव में दोनों की राजनीतिक क्षमता और सांगठनिक नीति
कैसी है.
पिछले चार वर्षों में गैर भाजपा शासित प्रदेशों में अमित शाह की
रणनीतिक क्षमता और गैर कांग्रेस शासित राज्यों में राहुल गाँधी की राजनीतिक क्षमता
की तुलना की जानी चाहिए. इस संदर्भ में चार राज्यों में हुए विधानसभा के चुनावों
को ध्यान में रखना चाहिए, जिनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात हैं. इसमें से
उत्तराखंड में पिछली सरकार कांग्रेस की थी तथा गुजरात में भाजपा की, जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश में दोनों ही पार्टियां लगभग नदारद थीं.
सबसे पहले बिहार चुनाव के आधार पर दोनों दलों का विश्लेषण करते
हैं. बिहार में भाजपा और कांग्रेस, दोनों के लिए
खुद को स्थापित करने की चुनौती थी. मोटे तौर पर दोनों के लिए एक जैसी ही परिस्थिति
थी. भाजपा के सामने पासवान, मांझी जैसे छोटे सहयोगियों के
साथ मिलकर लड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था क्योंकि रामविलास पासवान की
एलजेपी एनडीए में है और वे केंद्र में मंत्री भी हैं. जबकि कांग्रेस के सामने लालू
और नीतीश के महागठबंधन के साथ जाने या अपने दम पर अकेले लड़ने के विकल्प थे.
कांग्रेस चाहती तो दूरगामी रणनीति अपनाते हुए अकेले मैदान में उतर सकती थी,
लेकिन उसने महागठबंधन में शामिल होने का आसान रास्ता चुना. अब यहीं
से दोनों पार्टियों की कार्यशैली का मूल्यांकन होना चाहिए. महागठबंधन में शामिल
होना रणनीतिक दृष्टि से तो ठीक था, लेकिन एक राष्ट्रीय
पार्टी की दूरगामी दृष्टि से इसे प्रश्नांकित किया जाना चाहिए.
उत्तर प्रदेश में भी लगभग ऐसी ही स्थिति थी. कांग्रेस अपना विस्तार
कर सकती थी या कांग्रेसी नेताओं को पार्टी हित में विस्तार करना चाहिए था लेकिन
नहीं, वही पुरानी नीति. क्षेत्रीय पार्टियों के साथ
चुनाव में शामिल होने का सिलसिला जारी रखा. परिणाम विपरीत गया. यानी बिहार में जो
कुछ फायदा मिला, कुछ सीटें कांग्रेस के खाते में आ गईं.
लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि हर गठबंधन में फायदा ही मिले. बिहार में
महागठबंधन का हिस्सा बनना यदि रणनीतिक लाभ की वजह बना तो उत्तर प्रदेश में इसे
बड़ी रणनीतिक चूक मानना चाहिए. कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश इसलिए भी महत्वपूर्ण
हो जाता है कि कांग्रेस के दोनों बड़े नेता वहीं से सांसद बनते रहे हैं. अब
उत्तराखंड और गुजरात विधानसभा चुनाव की परिस्थितियों को भी समझने की जरूरत है.
उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार थी जबकि विपक्ष में भाजपा थी. भाजपा के तेवर
आक्रामक थे जबकि कांग्रेस कहीं भी भाजपा से लड़ने के मूड में नहीं दिखी. यानी चुनाव
से पहले ही कांग्रेस ने हथियार रख दिया, जबकि गुजरात की
परिस्थिति इसके उलट थी. गुजरात में लंबे समय से भाजपा की सरकार थी, जिसके विरोध में अनेक मुद्दे स्वाभाविक तौर पर सामने थे. लंबे समय तक
सरकार में रहने की वजह से चुनाव के वक्त आम तौर पर सत्ताधारी पार्टी को सत्ता
विरोधी लहर का सामना करना पड़ता है. गुजरात में भी ऐसा ही था. कांग्रेस के लिए खुद
लड़ना आसान था, जबकि कांग्रेस ने वहां अपनी पार्टी को आक्रामक
बनाने की बजाय दूसरे लोगों को आक्रामक किया और उनसे हाथ मिलाया. हालाँकि राहुल
गाँधी की कार्यशैली गुजरात चुनाव में पहले की अपेक्षा परिवर्तित दिखी. लेकिन भाजपा
नेतृत्व ने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष का बहुत ही आक्रामक और रणनीतिक जवाब दिया.
निश्चित तौर पर सत्ता विरोधी मानसिकता का कुछ लाभ कांग्रेस को मिला, लेकिन भाजपा अपनी सरकार बचा ले गई. एक तरफ उत्तराखंड में कांग्रेस लड़ने से
पहले ही हार गई, वहीं दूसरी ओर भाजपा लड़ी भी और सरकार
बचाने में भी सफल भी रही. यही फर्क है भाजपा और कांग्रेस के
राष्ट्रीय नेतृत्व की कार्यशैली में.
अमित शाह की कार्यशैली कार्यकर्त्ता से सीधे संवाद की है. वे बूथ
स्तर से लेकर पन्ना प्रमुख तक कार्यकर्ताओं को जोड़ने का सूक्ष्मतम प्रयोग करते रहे
हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिली है. कार्यकर्ताओं के घर जाना और उनके साथ भोजन
करने जैसी अनेक बातें हैं, जो उनके मेहनती और कुशल नेतृत्वकर्ता होने का
परिचायक है. प्रयास तो राहुल गाँधी भी कर ही रहे हैं, लेकिन
उनके साथ जो पारिवारिक आभामंडल जुड़ा हुआ है, चाहकर भी वे
उससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.
अमित शाह की तुलना में राहुल गाँधी की कार्यशैली बहुत धीमी और
बिखरी हुई है. इसके लिए अभी हाल ही में घटित दो घटनाओं को देखा जा सकता है, दलित आरक्षण के मुद्दे पर और मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग के मुद्दे पर.
दोनों ही मुद्दों पर राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता कमजोर दिखी. उनकी ही पार्टी के
कई नेता उनके कार्य से सहमत नहीं थे. महाभियोग के मामले में तो पार्टी के कई बड़े
नेता राहुल गाँधी के कदम से सहमत नहीं दिखे. लोकतंत्र में पार्टी के भीतर आपसी
विरोध की जगह होनी चाहिए, ऐसा माना जाता है. लेकिन सांगठनिक
दृष्टि से इसका कमजोर नीति और क्षमता के रूप में भी आकलन किया जाता है. अमित शाह
अभी तक बहुत ही कम जगहों पर एक नेतृत्वकर्ता के रूप में कमजोर दिखे हैं. उनकी
मजबूत कार्यशैली और सांगठनिक क्षमता ही पार्टी की मजबूती का राज है,जो एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी में अभी तक
देखने को नहीं मिली हैं. यही नहीं लगभग सभी विधानसभा चुनाओं में वे लगातार
क्षेत्रीय नेताओं के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश करते रहे हैं.
(28 अप्रैल 2018 को janbhav.com पर प्रकाशित)