सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय 

उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजनागत निर्णय के बावजूद प्रशासन की नाकामी कहें या साजिश कहें, इसका लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है. हालिया मामला जो संज्ञान में आया है वह पिछले साल के  बाढ़ राहत का है. दरअसल यह मामला सामने तब आया जब पिछले साल के बाढ़ राहत का पैसा कुछ लोगों के खाते में आया. पिछले साल इसी समय पूर्वांचल के गंगा नदी के करीबी क्षेत्रों में बाढ़ आयी थी जिसमें बड़े पैमाने पर किसानों का नुकसान हुआ. सरकार की ओर से हरसंभव तात्कालिक सुविधाएँ मुहैया कराई गईं. उस समय भी सरकारी मदद में प्रशासनिक वर्ग अनेक तरह से भ्रष्टाचार करने की कोशिश में लगा रहा और जहाँ तक संभव था किया भी. तात्कालिक मदद का लाभ इसलिए लोगों को मिल गया क्योंकि उसमें प्रशासन वर्ग के लाभान्वित होने की भी भरपूर गुंजाईश थी. 

यह पूरा मामला फसल नुकसान पर मिलने वाले मुआवजे का है. कायदे से यह मुआवजा पिछले साल अक्तूबर-नवंबर तक मिल जाना चाहिए था, जिससे किसान अपनी अगली फसल की बुआई में इसका उपयोग करते. लेकिन उस समय यह किसानों को नहीं मिला. एक साल बाद जब इसकी जानकारी हुई तो पता चला कि पूर्वांचल की एक ग्राम पंचायत में लगभग 10 हजार से अधिक किसान हैं जो बाढ़ प्रभावित थे, जिनमें से सिर्फ डेढ़-दो सौ लोगों को बाढ़ राहत की राशि निर्गत की गई है. इस संबंध में जब तहसील मुख्यालय से और लेखपाल से जानकारी लेने की कोशिश हुई तो उसने बड़े सरल तरीके से कह दिया गया कि पैसा वापस चला गया. लेकिन इसकी जिम्मेदारी किसकी है यह तय करने वाला कोई नहीं है. क्या इसके लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? क्या सरकार की ओर से मिलने वाले लाभ को लोगों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी तय नही होनी चाहिए? हमें यह नहीं भुलाना चाहिए कि इससे प्रभावित होने वाला वह वर्ग है जो किसी का विरोध भी नहीं कर सकता. वह मायूस होने के सिवा और कुछ भी नहीं कर सकता.

दरअसल यह एक नमूना है जो हम सभी के संज्ञान में आ गया. इस सन्दर्भ में मुझे धूमिल की एक कविता की एक पंक्ति याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा है कि कुर्सियां वही हैं, बस टोपियाँ बदल गई हैं’. यह पंक्ति आज की प्रशासनिक स्थिति पर एकदम सही बैठती है. सरकार बदली लेकिन प्रशासनिक वर्ग के कार्य करने का तरीका नहीं बदलता. विश्व के समानांतर विकास का सपना देखने वाले लोगों के लिए यह सबक है यदि भारतीय प्रशासन की ऐसी ही कार्यशैली रही तो विकास के सपने को तिलांजलि दे देनी चाहिए. उत्तर प्रदेश की सरकार जिस मानसिकता और लगन से काम कर रही है उसे धरासायी करने का काम यही वर्ग कर रहा है. यदि सरकार को वास्तव में किसानों की भलाई करनी है तो प्रशासनिक जिम्मेदारी तय होनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले समय में सरकार पर इसका असर पड़ सकता है.

योगी सरकार ने जिस संजीदगी से प्रदेश के विकास और आम जन की रक्षा के लिए काम किया है वह सराहनीय है. जिस तरह से योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने का संकल्प लिया है वह अत्यंत प्रसंशनीय है लेकिन सरकार लाख कोशिश के बावजूद प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में पूरी तरह कामयाब नहीं हुई है. बाढ़ राहत का मामला सिर्फ एक उदहारण है. ऐसे न जाने कितने मामले हैं जिनके साथ प्रशासन मनमानी करता रहा है. यह कोई पहला अवसर नहीं है जब इस तरह की चीजें सामने आ रही हैं. इससे पहले की सरकारों में भी यही स्थितियां रही हैं. वही आदत अब भी बनी हुई है. इस तरह के मामले जो जनता से सीधे तौर पर जुड़े हो, उनका त्वरित समाधान होना चाहिए जिससे सरकार के विरुद्ध एंटी इनकम्बेंसी न फैले. साथ ही सरकार की योजनाओं का लाभ उन लोगों को सही समय से मिले जो वास्तव में इसके हकदार हैं.  

(7 सितंबर, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


कितना आत्मनिर्भर बना है पूर्वांचल

संतोष कुमार राय

‘आत्मनिर्भरता’ क्या है? इसे किस रूप में देखा जाय? स्वाधीनता के आठवें दशक में आज जब आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है तो इसका क्या मतलब निकाला जाय और इसे कैसे परिभाषित किया जाय? कुछ दिनों पहले जब भारत के प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत की बात की तो सहसा यह अचरज जैसा ही लगा कि आजादी के इतने सालों बाद आत्मनिर्भर भारत की बात क्यों हो रही है. ठीक वैसे ही जैसे  2014 में जब प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान की शुरुआत किया तो आम जन में यह भाव पैदा हुआ कि क्या यह भी प्रधानमंत्री का विषय है. क्या आम लोगों को स्वच्छता के विषय में पता नहीं है. लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ. परिणाम यह हुआ कि ग्रामीण भारत का अधिकांश हिस्सा दैनंदिन दुर्गन्ध से मुक्त हो गया. सरकारी सहायता और आम जन की जागरूकता से आज स्वच्छता अभियान उस मुकाम पर पहुँच गया है, एक समय में जिसका अनुमान लगाना कठिन था.लेकिन यहाँ हमें यह नहीं भुलाना चाहिए कि इतिहास में इस बात का अनके जगहों पर जिक्र है कि भारत के सभी गाँव आत्मनिर्भर थे. प्रत्येक गाँव की अपनी स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था थी. आखिरकार उसे कैसे क्षति पहुंची. आज फिर प्रधानमंत्री उसी की ओर क्यों संकेत कर रहे है.  

आज जब हम पिछले इतिहास पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि भारत कहाँ से चला था आज कहाँ पहुंचा है. वह कौन-कौन से क्षेत्र हैं जहाँ वास्तव में ग्रामीण भारत आत्मनिर्भर हुआ है और कौन-कौन से क्षेत्र हैं जहाँ अभी काम करने की जरुरत है. यह सही है कि भारत में जिस अनुपात में और जिस गति से जनसंख्या बढ़ी है उस अनुपात में संसाधनों का विकास नहीं हुआ है. लेकिन कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ भारत का बहुत तेजी से विकास हुआ है. सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों को समान रूप से काम करने की जरुरत है. लेकिन अभी भी भारत का निजी क्षेत्र सरकार की ओर देखता रहता है कि विकास का काम सरकार का है.

जब हम ग्रामीण भारत के विकास की पड़ताल करते हैं, कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आते हैं. इस दृष्टि से सबसे पहले हम मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं पर ध्यान देते हैं. यानि आज से कई दशक पहले ग्रामीण विकास की बुनियादी जरूरतों में रोटी, कपड़ा और मकान का उल्लेख हुआ. उसके बाद इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार शामिल हुआ. उसके बाद बिजली, पानी और संचार शामिल हुआ. अर्थात ग्रामीण विकास का मतलब हुआ कि भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान, शौचालय, एलपीजी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, पानी, सड़क और संचार की मुकम्मल सुविधाएँ जब मिलेगी तभी पूर्णतः आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना सिद्ध होगी.

अब सवाल यह उठता है कि इन सारी आवश्यकताओं के बीच उत्तर प्रदेश कहाँ खड़ा है? इस संबंध में हमें कुछ बुनियादी चीजों की ओर नजर डालनी चाहिए जहाँ वास्तव में काम हुआ है. इस दृष्टि से जब हम देखते हैं तो सबसे पहले हमें रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी दिखाई देता है. वर्तमान सरकार और पिछली सरकारों ने भी अनेक तरह से अन्न वितरण योजनाओं के माध्यम से भारत से बहुत हद तक भुखमरी समाप्त करने का हरसंभव प्रयास किया है और इसमें बड़े पैमाने पर सरकार को सफलता भी मिली है. अभी कोरोना काल में जिस तरह से सरकार की ओर से मुफ्त राशन वितरण किया गया वह असाधारण था. दूसरी बड़ी कामयाबी सरकार को संपूर्ण विद्युतीकरण में मिली है. अब भारत के लगभग सभी गाँवों में बिजली पहुँच गई है. लेकिन गाँवों से लगे हुए सुदूर हिस्सों में अभी भी कुछ जगहें हैं जहाँ विद्युतीकरण का कार्य जारी है. इसे बड़ी सफलता के रूप में लिया जाना चाहिए.

वर्तमान सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना स्वच्छता मिशन के माध्यम से अनेक गरीब, मजबूर, दिव्यांग और बुजुर्ग लोगों को मकान और शौचालय देकर बुनियादी विकास की ओर एक बहुत बड़ा कदम बढ़ाया है. वैसे गरीबों के लिए आवास योजना की शुरुआत बहुत पहले हो जानी चाहिए थी लेकिन यह बहुत देर से हुई. अब जब भारत के गाँवों में रहने वाले अधिकांश लोगों को आवास मिल चुका है या मिल रहा है तो यह माना जाना चाहिए कि विकास का पहला चरण पूरी तरह समाप्त होने की ओर है. रोटी कपड़ा मकान के साथ शौचालय और उज्ज्वला योजना का भी भरपूर लाभ ग्रामीण समुदाय को मिला है. वहीं बिजली के विस्तार से लगभग वे सभी घर प्रकाशमान हो रहे हैं जिन्हें अँधेरा भारत बना दिया गया था. इसी से जुड़ा हुआ पक्ष पीने के पानी का भी है, क्योंकि बिजली के बिना पीने के शुद्ध पानी की उपलब्धता सुचारू रूप से नहीं हो सकती. लेकिन प्रदेश और केंद्र सरकार की योजनाओं के माध्यम से उत्तर प्रदेश के लगभग सभी गाँवों में पीने के पानी का कार्य चल रहा है. यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश में पीने के स्वच्छ पानी का संकट लगभग समाप्त हो जायेगा. 

जहाँ तक संचार की बात है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कुछ समय में संचार के क्षेत्र में भारत को अभूतपूर्व सफलता मिली है. इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश चहुओर सबल हुआ है. इसी तरह यातायात का विकास भी भारत के विकास का महत्वपूर्ण पक्ष है. पिछले दो दशक में सरकार की ओर से सभी गाँवों को मुख्य मार्गों से जोड़ने का जो सार्थक प्रयास हुआ है उसके परिणाम अब ग्रामीण भारत में दिखने लगे हैं. मसलन सड़कों से जुड़ने की वजह से भारत के शहर और महानगर ग्रामीणों की पहुँच में आ गए हैं. अर्थात गाँव से बाजार के जुड़ने से, शहर के जुड़ने से बहुत कुछ आसान हुआ है. इस तरह हम आत्मनिर्भर भारत की ओर उत्तर प्रदेश के बढ़ते हुए कदम को देख सकते हैं.

अब प्रश्न यह कि इतना होने से क्या भारत संपूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो गया है? शायद नहीं.. उसका कारण क्या है? इसकी पड़ताल बहुत आवश्यक है. इसका सबसे बड़ा कारण है ग्रामीण समुदाय में लम्बे समय से घर किया हुआ अविश्वास. यह वह अविश्वास है जो अब हीनभावना में बदल गया है. हीनभावना यह है कि उन्हें लगता है कि गाँव में रहते हुए कोई कार्य नहीं किया जा सकता है जबकि शहरों में लोग अधिक खर्च और अधिक मेंहनत करके वही कार्य करते हैं. इसके कुछ वाजिब कारण भी हैं जिसमें बिजली, सड़क और बाजार सर्वाधिक महत्वपूर्ण ही. आज स्थितियां बदली हैं और इस बदली हुई परिस्थितियों में सामान्य लोग आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं. लेकिन अभी भी इसमें कुछ अड़चने हैं जिनका यदि निवारण हो गया तो भारत की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी.

इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य करने की जरुरत है. जैसे ग्रामीण भारत का बड़ा हिस्सा अभी भी अच्छी शिक्षा और अच्छी चिकित्सा के आभाव में जी रहा है. यही कारण है कि आम लोग सबकुछ दाव पर लगाकर, कठिन से कठिन जिंदगी जीते हुए भी शहरों की ओर भागते हैं, जिससे शहरों के जनसंख्या घनत्व में भारी वृद्धि हुई है. यदि शिक्षा और चिकत्सा की सुविधाओं का ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तर कर दिया जाता तो पलायन का बड़ा हिस्सा रूक जाता. उसके बाद आम तौर पर रोजगार करने के लिए जैसी सुविधाएँ शहरों में मिलती हैं, यदि वह उतने ही समय में और उतनी ही सहजता से गाँवों में भी मिलने लगे तो आत्मनिर्भरता और विकास की परिभाषा बदल जाती.

अंत में जब ग्रामीण भारत पर एक बार सम्पूर्णता से विचार किया जायेगा तो यह दिखेगा कि ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए निजी क्षेत्रों के बड़े-बड़े लोगों को भी रूचि दिखानी होगी. जो चीज जहाँ पैदा होती है उससे बनने वाली चीजों की कंपनियाँ उसी क्षेत्र में लगाने से आम लोगों की रूचि में भी वृद्धि होगी और इसका बहुत बड़ा प्रभाव राष्ट्र के विकास पर पड़ेगा. इस प्रकार अभी यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश आत्मनिर्भर बन गया है बल्कि यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि प्रदेश अभी आत्मनिर्भरता की राह में आगे बढ़ रहा है.

(23 अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


बी एच यू के कुलपति के नाम खुला पत्र, सन्दर्भ- कुलपति का बयान-महामना ने पैसे के पेंड़ नहीं लगाये

संतोष कुमार राय 





परम आदरणीय भटनागर चचा,
कुख्यात कुलनाशक
काशी हिंदू विश्वविद्यालय
चचा सबसे पहले आपको सादर प्रणाम करता हूँ...

प्रणाम इसलिए कि महामना के उस मंदिर ने नीच (जब तक उस पद पर रहे) को प्रणाम करने का संस्कार दिया है. आप तो समझ ही गए होंगे कि मैं कौन और क्यों यह सुझाव/सलाह आपको लिख रहा हूं. आप एकदम ठीक समझे हैं. उसी के लिए जो आपने पिछले दिनों एक लडके से फोन पर बात करते हुए मुंह से गोबर किया था. वैसे मैं आपको तभी से सुझाव देना चाह रहा था जबसे आपने धर्म विज्ञान संस्थान का नाम अपने कुकर्मों से पूरे भारत में रोशन किया था. आप बहुत शरीफ लीचड़ हैंयह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा है. आप जब आए थे तो लंबा-लंबाबड़ा-बड़ा भाषण फेंक रहे थे और हम लोग आपकी तरफ वको ध्यान लगाकर टुकुर-टुकुर देख रहे थे कि अब महामनाराधाकृष्णनशांति स्वरूप भटनागर जी के बाद सीधे आप ही उस परिसर में अवतरित हुए हैंजो कुछ बड़ा करके जाएंगे.

चचा आपको शायद जानकारी ना हो तो बता दूँ कि बीएचयू में एक वैज्ञानिक हुआ करते थे डॉ शांति स्वरूप भटनागरजिन्होंने लिखा है ना वही जो वहां गाया जाता हैजिसे आप अक्सर सुनते ही है... मधुर मनोहर अतीव सुंदरयह सर्व विद्या की राजधानी’ और उसके बाद सीधे आपका इस परिसर में प्रवेश हुआ और आपका प्रवेश किसी घुसपैठिए की तरह था जो पाकिस्तान से सीधा कश्मीर घुसता है और तड़ा-तड़तड़ा-तड़ बमबारी करके तहस-नहस करने की भरपूर कोशिश करता है और बहुत हद तक कर देता है. आप भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास में एक घुसपैठिया की तरह ही आए थे. आने से पहले आपने जो चालचरित्र और चेहरा प्रस्तुत किया थावह कुछ और था और आने के बाद आपने जो किया वह कुछ और है. आप इतने बड़े आदमी नहीं है कि आपके ऊपर हम लोग अपना समय जाया करें लेकिन आज जो खबर मीडिया में चल रही है कि आपने कहा है कि महामना को पैसों का पेड़ लगाकर जाना चाहिए था. उनको नहीं पता था कि आप जैसे दिमागी रुप से गरीब और नीच लोग इस परिसर में आएंगे और महामना को बताएंगे कि आपको पैसे का पेंड़ लगाकर जाना चाहिए था. आपने फोन पर कहा है कि यूजीसी आपको 60 करोड़ देती है और बिजली का बिल आपका 66 करोड़ का आता हैबाकी तो कोई साधन-संसाधन विश्वविद्यालय के पास है ही नहीं. मैं इसे आपकी बेशर्मी बिलकुल नहीं कहूँगा. मतलब यह कि जो इसकी पराकाष्टा पर खड़ा हो उसे यह भी कोई कहने की बात है. आपको याद नहीं है तो मैं बड़ा देता हूँ कि इतने बड़े परिसर में विद्यार्थियों की फीस मिलती हैहॉस्टल की फीस मिलती हैप्रतिदिन लाखों मरीज दिखाए जाते हैंउनकी फीस आती हैकैंपस में  और ना जाने कितने संसाधन हैं जिसका पैसा विश्वविद्यालय में आता हैऔर वह पैसा इसलिए आता है उसे विद्यार्थियों की  जरूरतों पर खर्च किया जाए.

महोदय यह विश्वविद्यालय 1916 से चल रहा है. यह अपने उम्र के 100 वर्ष पूरा कर चुका है फिर भी यह विश्वविद्यालय आपकी तरह मंदबुद्धि को प्राप्त नहीं हुआ है जिससे बहुत जलते हैं. आप चाहते हैं कि विश्वविद्यालय भी आप जैसा हो जाय. मंदबुद्धि क्या होता है आपको मैं बता देता हूँ. आप ठहरे विज्ञान के और मैं ठहरा साहित्य काऔर दोनों में ठीक वैसा ही संबंध है जैसा आपका महामना के विचार से है. जो बात मैं आपको समझाना चाह रहा हूँ वह भावपूर्ण बातें हैं और आप जो समझना चाह रहे हो तर्कपूर्ण बातें हैं. दिक्कत यही है कि आप अपने तर्कों से और मैं कह रहा हूं कि आप अपने कुतर्कों से हमारे भाव को और हमारे जैसे लाखों विद्यार्थी जो विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले हैं और अलग-अलग जगहों पर हैं या पढ़ रहे हैंउनके भाव को कुचलना चाह रहे हैं. आप जिस तरह की भड़ैती विश्वविद्यालय में कर रहे हैं इसकी निकृष्टता का अनुमान आपको बखूबी है. चचा नैतिकता के आधार पर तो मैं नहीं कहूंगा क्योंकि वह तो आपके पास है ही नहीं तो अनैतिकता के आधार पर ही विश्वविद्यालय को जितनी जल्दी हो सके छोड़कर चले जाइए. जितना बेडा गर्क करना था आपने खूब किया है.

इसका कारण क्या हैयह भी आपको बता देता हूँ. चचा आप अब चौथे पन की ओर बढ़ रहे हैं. यह ऐसी उम्र है जिसमें आप जैसे लोग मानसिक दिवालिया और बौद्धिक कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. आपकी उम्र बुद्धिविवेकज्ञानशील से बहुत आगर निकल चुकी है. ऐसी स्थिति में आपो मेरा सलाह है कि अब आपको सीधा बनवास चले जाना चाहिएउससे पहले रुकना ही नहीं चाहिए. आपको तो पता ही है कि वहाँ के बच्चे आपका कितना सम्मान करते हैं. यह बच्चे आपके आफिस में प्रवेश करने से पहले बाहर ही अपना जूता चप्पल उतार देते हैं और इसीलिए उतार देते हैं क्योंकि आपका सम्मान करते हैंलेकिन आप तो उसे कुछ और ही समझ रहे हैं. आप इतने बड़े परिसर में राष्ट्रपति की तरह विराजमान हैं और ज्ञान दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी. जो विश्वविद्यालय पूरे देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करता रहा हैजो विश्वविद्यालय पूरे देश की अर्थव्यवस्था में सहयोग करता रहा हैउस विश्वविद्यालय की अर्थव्यवस्था को आप बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी. आपको शर्म आने को तो मै नहीं कह सकता और डूब मरेना कहकर अशिष्टता तो कत्तई नहीं. मुझे पूरा भरोसा है इन दोनों स्थितियों में आपके लिए सबसे जरूरी दो चीजें हैं. महामना ने मंदबुद्धि और क्षीण शारीर के लोगों के लिए वहाँ एक गौशाला का निर्माण करवाया था. अभी भी वह डेयरी फार्म के नाम से चल रहा है. आप वहां से गाय का शुद्ध दूध मंगाइए और एग्रीकल्चर वालों से कहिए कि वहां जो सरसों पैदा होता है उसका एकदम शुद्ध सरसों का तेल भी मुहैया कराएँ. तो चचा दबा के दूध पीजिए और अपनी गंजी कटोरदान रूपी खोपड़ी पर आधा किलो सरसों का तेल लगाईये और अपने गठ्ठरनुमा शरीर को कुछ देर तेज धुप में सेकिये. इससे थोडा बहुत जो जीवन बचा हुआ है हो सकता है उसका निर्वाह हो जाये.

देखिये न चचा आपको पैसों के पेंड़ वाली सलाह पर ज्ञान देना तो भूल ही गया था. वह क्या है कि आपको पेड़ तो वहाँ बहुत हैं और आपने सभी को खूब हिलाया भी हैसमझ रहे हैं न. चिंता मत कीजिये मैं किसी को बताऊंगा नहीं. मुझे क्या मतलब है. लेकिन एक बात बता देता हूँ चचा ज्यादा पैसा-पैसा करना भी ठीक नहीं होता है. आप जहाँ इस समय हैं वहाँ की स्थानीय भाषा में पैसा का अर्थ बहुत खराब होता है. मुझे पता है आप बहुत उतावले हैं और इसका अर्थ जानने के लिए आप परेशान हो जायेंगे इसलिए बता देता हूँ. पैसा से ही पैसाना बना है. पैसाना का मतलब घुसाना होता है. चचा अब जरा सोचिये पैसा क्या क्या करा देगा. तो आपके बचे जीवन के लिए शुभकामनाएँ फेंकता हूँ और बाबा विश्वनाथ से अनुरोध करता हूँ कि आपको कुछ सदबुद्धि दें ताकि आपकी लोलुपता पर कुछ विराम लगे. अब खुद को रोकता हूँ चचा.

नमस्कार

एक पूर्व छात्र जो आपके कुकर्मों से आहत है.

 

ग्रामीण नयन में राम... (मर्यादा पुरुषोत्तम का मर्यादित समाधान)

संतोष कुमार राय

 


महाकवि तुलसीदास ने लिखा है कि ‘रामहि केवल प्रेम पियारा’. यह प्रेम ही है जो भगवान राम के भक्तों का उनके प्रति गहरी आस्था और अगाध श्रद्धा का परिचायक है. भारत का ग्रामीण समुदाय गोस्वामी तुलसीदास की आँखों से भगवान राम को देखता है. रामचरितमानस वह ग्रन्थ है जिसने भगवान राम को आम जनमानस के हृदय में कई सदियों से स्थापित किया है. दरअसल पिछले पांच शतक से भगवान राम की जन्मभूमि के प्रति अगाध और अटूट श्रद्धा का केंद्र भी यह ग्रन्थ ही है. वैसे तो भारत में भगवान राम को लेकर तीन सौ से अधिक रामायण लिखे गए हैं लेकिन रामचरितमानस की लोकप्रियता अद्भुत है. सामान्यतः इन सभी का विषय एक ही है. वह यह कि भगवान राम के मर्यादित जीवन का चित्रण. आज जब राम मंदिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के कर-कमलों से हुआ तो अपने इष्ट के प्रति वह असाधारण प्रेम ग्रामीण समुदाय की आँखों में ढाल के पानी की तरह उतर आया. एक ओर शिलापूजन करते हुए भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री और उनका साथ देते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को गदगद हृदय से आशीर्वाद देते ग्रामीण समुदाय को अलौकिक एहसास हो रहा था तो दूसरी ओर बहुप्रतीक्षित राम मंदिर का शिलान्यास ग्रामीण आँखों के लिए किसी सपने के पूरा होने जैसा ही था.

यह शिलान्यास कोई साधारण शिलान्यास नहीं था, बल्कि यह भारतीयों के लिए असाधारण और अलौकिक अनुभूति का समय था. भगवान राम के मंदिर तो हजारों हैं, लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. जिस तरह दुनिया में कैथोलिक ईसाईयों के लाखों चर्च और मुसलमानों की लाखों मस्जिदें हैं,लेकिन ईसाईयों के लिए वेटिकन सिटी और मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना एक ही है. उसी तरह दुनिया में भगवान श्रीराम के मंदिर अनेक हो सकते हैं लेकिन राम जन्मभूमि तो एक ही है. राम मंदिर का महत्व समस्त भारतीयों के लिए है. यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक धरोहर है. यही कारण है इस ऐतिहासिक दिन पर समस्त भारतीयों से खुले मन से प्रसन्नता व्यक्त की.

वैसे तो राम जन्मभूमि का आंदोलन बहुत लम्बा चला है लेकिन इस संदर्भ में जब हमने ग्रामीण समुदाय से बात की तो उनका कहना था कि हमें यह उम्मीद थी कि एक दिन हमारे भगवान अपने भव्य मंदिर में जरुर जायेंगे. उसका कारण यह है कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो देर से ही सही जाएंगे मर्यादित तरीके से ही. हुआ भी बिलकुल वैसा ही. राम मंदिर के दर्शन की ललक हृदय में समाये कई पीढियां गुजर गईं. रामभक्तों की वह पीढ़ी, जो अब अपने जीवन के अंतिम दिन की ओर बढ़ रही है, उसने 1980 के बाद के सभी आन्दोलनों को इसी आस में बहुत करीब से देखा और जिया है कि एक दिन रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होंगे. शिलान्यास को देखते हुए उन सभी की आँखों से झर-झर अश्रु वर्षा हो रही थी और हृदय में अद्भुत आह्लाद उठ रहा था, ठीक वैसे ही जैसे भगवान राम वनवास से लौटकर जब अयोध्या आये थे तो अयोध्यावासियों में जैसी खुशी थी वैसी ही खुशी आम जनमानस में देखने को मिली. उन लोगों को ऐसा लग रहा था जैसे उनका जीवन धन्य हो गया और उनकी सांसें बस इसी दिन के लिए रुकी हुई थीं. ऐसे अनेक लोग मिले जिन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर किया.

जन्मभूमि आंदोलन आस्था का आंदोलन था. उसमें शामिल ओगों से जब हमने इस सन्दर्भ में बात की तो उनका कहना था कि हम अपनी आस्था के लिए गए थे, वहाँ कोई लड़ाई लड़ने नहीं गए थे. लड़ाई तो अंग्रेजों से लड़ ही चुके थे. हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और अपनी वैश्विक पहचान को स्थापित करने के लिए गए थे. आज जब हम अपनी आस्था को स्थापित होते हुए देखेते हैं तो हमें अपने नेतृत्व पर अटूट विश्वास पैदा होता है. ठीक है इसका समाधान न्यायलय द्वारा हुआ लेकिन उसके लिए जिन लोगों ने प्रयास किया, जिन लोगों ने इसका समाधान निकालने का संकल्प किया, निश्चित तौर पर वे कोरोड़ों आस्थावान लोगों के आशीर्वाद के पात्र हैं. स्वाधीनता के बाद ही इसका त्वरित समाधान होना चाहिए था लेकिन लोगों ने इसका खूब राजनीतिकरण किया. जबकि ऐसे मामले किसी एक धर्म, संप्रदाय या विचारधारा के नहीं होते. ये मामले सांस्कृतिक प्रतिष्ठा के होते हैं. वर्तमान नेतृत्व को धन्यवाद देते हुए  लोगों ने एक स्वर में कहा कि यह वह नेतृत्व है जिसने दबाई हुई सांस्कृतिक पहचान और प्रतिष्ठा को उसकी वास्तविक जगह दिलाई.

इस सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण सवाल ग्रामीण समुदाय के सामने रखा तो उसका जैसा सकारात्मक उत्तर मिला वह वास्तव में संतोष देने वाला था. जब मैंने पूछा कि कई लोगों का मानना है कि इस शिलान्यास में संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों को शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि यह शुद्ध रूप से धार्मिक मामला था. ग्रामीण मानस से जो हमें उत्तर मिला वह वास्तव में दृष्टि विस्तार करने वाला था. वह यह कि यह सांस्कृतिक कार्य है और सांस्कृतिक कार्य राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं करेगा तो कौन करेगा. विश्व के सामने हम कैसा उदहारण प्रस्तुत करेंगे. क्या हमारा चरित्र क्षद्म और ढोंगी हो गया है? क्या हम अपने सांस्कृतिक आस्था के प्रतीक को विश्व जन समक्ष हमारा प्रधानमंत्री नहीं रखेगा तो, रखेगा कौन? इसी डरपोकपन की वजह से तो अभी तक इसे रोका गया था. हम न्याय के मंदिर में किसकी शपथ लेते हैं. क्या उसका संबंध धर्म और संस्कृति से नहीं है. लोकतंत्र में नेतृत्वकर्ता की आस्था का केंद्र जनता होती है. जनता के द्वारा चुना गया प्रतिनिधि यदि जनता के मनोभावों के अनुकूल कार्य नहीं करेगा तो उसको पद पर बने रहने का कोई भी नैतिक अधिकार नहीं है. यह कार्य राष्ट्रीय अस्मिता और प्रतिष्ठा का कार्य था इसलिए राष्ट्रीय नेतृत्व के हाथों संपन्न हुआ. इस पर जो लोग सवाल खड़े करेंगे उन्हें राष्ट्रीयता और संस्कृति की समझ नहीं है.

ये सारी बातें ऐसी बातें थीं जिनका संबंध किसी तरह के व्यक्तिगत लाभ हानि से नहीं था. ग्रामीण समाज भारतीय संस्कृति का संरक्षक और पोषक समाज है. भारत की सांस्कृतिक चेतना गाँवों में ही विकसित हुई है. सभ्यता के जितने भी चरण विकसित हुए हैं उनका संबंध गाँवों से ही है. इसीलिए इस मुद्दे पर ग्रामीणों की राय का अलग महत्त्व है. शहर की एक निर्धारित गति होती है. वह उससे नीचे नहीं चल सकती लेकिन गाँव अपने ठहराव के लिए जाने जाते हैं. यही ठहराव भारत की वैश्विक पहचान का परिचायक है. विश्व के शहरों का रहन-सहन एक जैसा हो सकता है, शहरों की बनावट एक जैसी हो सकती है. क्योंकि हमेशा विकसित शहरों की तर्ज पर ही अविकसित शहरों का विकास किया जाता है.  लेकिन हर गाँव की अपनी व्यक्तिगत पहचान होती है. उसके अपनी जीवन शैली होती है. इसलिये विश्व के गाँव कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते. यही कारण है कि भाषा, संस्कृति और समाज को देखने-समझने का नजरिया बिल्कुल अलग होता है. इसीलिए भगवान राम के मंदिर के शिलान्यास को ग्रामीण समुदाय ने बहुत अलग तरह से लिए. उसके लिए यह धर्म का नहीं पहचान और प्रतिष्ठा का विषय था.

इस तरह से ग्रामीण समुदाय ने शिलान्यास को लेकर खुशी व्यक्त किया. अब उसे अपनी पहचान को दिखने-बताने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा. भारतीय समाज के संस्कृति पुरुष भगवान श्रीराम अब मंदिर में होंगे जहाँ से विश्व समुदाय प्रेरणा ग्रहण करेगा. साथ ही इससे समानता, सहृदयता और विश्व बंधुत्व का सन्देश भी विश्व समुदाय में गया है. धर्म, संस्कृति और समाज दबाने के नहीं उसे स्थापित करने के विषय हैं. इसलिए यह स्थापना नए भारत के नए युग की स्थापना है.

(16 अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


नई शिक्षा नीति के अनसुलझे सवाल

 संतोष कुमार राय



नई शिक्षा नीति स्वागत योग्य है. भारतीय शिक्षा व्यवस्था में यह बहुप्रतीक्षित बदलाव हुआ है. वैसे तो यह बदलाव आज से बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन देर से ही सही यह सही दिशा में बदलाव हुआ है. इससे पहले 1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति आयी थी जिसका 1992 में विस्तार हुआ. लेकिन यह शिक्षा नीति ऐसी नहीं बन पायी जिससे शिक्षा के समग्र विकास का स्वरूप परिलक्षित हो सके. इस शिक्षा नीति में शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ साक्षर बनाना नहीं बल्कि शिक्षित व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास है. एक ओर प्राथमिक शिक्षा को विद्यार्थी की बुनियाद से जोड़ना और उसकी विशिष्ट क्षमताओं का विकास करना है, वहीँ उच्च शिक्षा में कुछ नए मानकों को शमिल करके विषय विशेषज्ञता और आधुनिक शिक्षा के वैश्विक रूप को अंगीकार करते हुए शिक्षा प्रक्रिया को जनोन्मुख बनाने पर जोर दिया गया है. यहाँ सवाल उच्च शिक्षा से जुड़े हुए कुछ मुद्दों का ही है जन्हें लेकर संदेह की स्थिति बनी हुआ है.

उच्च शिक्षा में सबसे बड़ा सवाल भाषा का है. भाषा को लेकर नई शिक्षा नीति में भी बहुत ढुलमुल रास्ता अपनाया गया है. वास्तव में यहाँ कठोर रास्ता अपनाते हुए एक व्यवस्थित दिशा निर्देश जारी करना चाहिए था. लेकिन ऐसा न करते हुए और शिक्षा नीति में भाषा के सवाल को लेकर होने वाले विवादों से पीछा छुड़ाते हुए इस मुद्दे पर संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेद का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि जबरन किसी पर कोई भी भाषा थोपी नहीं जा सकती. फिर सवाल जस का तस बना हुआ है कि आखिरकार भारत में उच्च शिक्षा की वास्तविक भाषा का दर्जा किसे दिया जाएगा? और भाषा के बिना शिक्षा का कोई महत्त्व भी है क्या? भाषा का सवाल स्वाधीन भारत के सबसे पुराने और विवादित सवालों में से एक है जबकि यह सबसे बड़ा सवाल है जिसका निपटारा करने में सरकार चूक गई. यह बहुत अच्छा अवसर था जिसे शिक्षा के साथ जोड़कर बहुत आसानी से हल किया जा सकता था. लेकिन इसी के साथ भाषा को लेकर जिस संवैधानिक पक्ष को इसमे शामिल किया गया है क्या वाही उच्च शिक्षा पर भी लागू होगा? क्या उच्च शिक्षा में हिंदी को बढ़ावा दिया जायेगा? क्या सामाजिक विषयों तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हिंदी में अध्ययन, अध्यापन और शोध को भारतीय संस्थानों में सहज अनुमति मिलेगी? अभी तक की स्थिति को देखते हुए यह कहना बहुत गलत नहीं होगा कि कभी नहीं. फिर प्रारंभिक शिक्षा में मातृभाषा पर जिस तरह से जोर देने और मातृभाषा को प्रारंभिक शिक्षा की भाषा के रूप में स्वीकृत करने का क्या अर्थ रह जायेगा.

इस शिक्षा नीति का उद्देश्य भारतीय शिक्षा व्यवस्था को वैश्विक शिक्षा व्यवस्था के सामानांतर खड़ा करने की है. लेकिन कोई भी देश जिसने शिक्षा में ऊंचाई हासिल की है उसकी अपनी भाषा का बहुत बड़ा योगदान है. फिर भारतीय शिक्षाविदों को यह समझ में क्यों नहीं आया कि जिस तरह से प्रारंभिक शिक्षा में भाषा के बुनियादी रूप को तरजीह देने की कोशिश हुई वैसे ही उच्च शिक्षा और शोध की भाषा को भी एक व्यवस्थित रास्ता दे दिया जाय. दरअसल यह शिक्षा नीति अभी भी अधजल गगरी के छलकाव जैसी ही है. और इसकी पूर्णता अभी ताका के मौसौदे आधार पर संदिग्ध है.   

इस शिक्षा नीति में सबसे अच्छा बदलाव मंत्रालय के नाम का हुआ है. पिछले तीन-चार दशकों से शिक्षा और मनुष्य दोनों को जिस तरह से संसाधन बनाया गया था उससे बनाने वाले की मुर्खता का अंदाजा लगाया जा सकता है. यहाँ यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पिछले सात दशकों में जिन दो बुनियादी क्षेत्रों को नजरंदाज किया गया है उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य है. शिक्षा में सर्वाधिक उपेक्षित पक्ष भाषा ही रही है. इस नीति में भी जिन पक्षों का कहीं उलेख नहीं है उनमें उच्च शिक्षा की भाषा, सामाजिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा और शारीरिक और व्यावहारिक शिक्षा. पुस्तकीय और विषयी अवधारणा पर भरपूर जोर होने का बाद भी बहुत कुछ है जो खाली लग रहा है. वैश्विक स्वरूप को अपनाना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपनी बुनियाद को खोने की शर्त पर अपनाना ठीक नहीं है.  इसका यह मतलब कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि नई शिक्षा नीति में कुछ भी नया ठीक नहीं है। बहुत कुछ है जिससे शिक्षा की स्थिति में बहुत बड़े और सार्थक बदलाव की उम्मीद छिपी है. स्कूली स्तर पर मातृभाषा को महत्त्व देना इस नीति की बहुत बड़ी पहल है.  इसमें मातृभाषा को महत्व मिला है।

उच्च शिक्षा में दूसरी बड़ी व्यवस्था विषय चयन के बदलाव और क्रेडिट सिस्टम का है. यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. लेकिन देर से ही सही यह दुरुस्त बदलाव है. लेकिन इसके साथ जो संकट है वह भी कम नहीं है. एक ओर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में बहुत सरलता से इसे लागू कराया जा सकता है तो वहीं राज्यों के कम संसाधन या लगभग संसाधन विहीन विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इसे कैसे लागू कराया जाएगा, यह बहुत बड़ा प्रश्न है. जहाँ तक अध्यापक- विद्यार्थी का अनुपात एक-तीस रखा गया है ऐसे में उन ग्रामीण महाविद्यालयों का क्या होगा जहाँ पांच सौ से एक हजार विद्यार्थियों पर एक ही अध्यापक हैं.

दूसरी ओर अनेक ऐसे महाविद्यालय हैं जहाँ बहुत कम विषयों की मान्यता ही मिली हुई है अर्थात वहां रूचि के अनुसार विषय चुनने का विकल्प ही मौजूद नहीं है, ऐसे में इस शिक्षा नीति को लागू करा पाना बहुत आसन नहीं दिखता. अध्यापक न्युक्तियों में जिस तरह का भ्रष्टाचार पूरे देश स्तर पर पांव पसारे हुए है, उसमें योग्य अध्यापक चुनना किस्त सहज और सरल होगा. इस पूरी नीति में कहीं भी प्रशासनिक अकर्मण्यता के लिए कहीं एक शब्द भी नहीं लिखा गया है. कहीं भी इसका भी उल्लेख नहीं है कि सरकार इसे लागू कराने का प्राथमिक स्रोत होगा लेकिन द्वितीयक और अन्य इसके स्रोत विश्वविद्यालय और महाविद्यालय ही होंगे. इससे पहले जैसी कार्यशैली विश्वविद्यालयों में देखने को मिली है क्या उसे देखते हुए इसके लागू होने पर आशंका नहीं व्यक्त की जा सकती. इस शिक्षा नीति का धरातल पर न उतरने की स्थिति में जिम्मेदारी कैसे तय होगी, होगी भी या नहीं इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है. ऐसा लगता है जैसे नीति नियंताओं ने पूर्व के नाकारेपन से आंखे चुराते हुए यह नीति बनाई है. किसी भी नीति को लागू करने में उसके निर्धारकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है.

कुल मिलाकर यह शिक्षा नीति ऊपर से देखने में तो बहुत अच्छी और साफ-सुथरी दिख रही है लेकिन इसकी सफलता और असफलता फिलहाल भविष्य की गोद में है. साथ ही इसे लागू करने में आने वाली अड़चनों का भी पिटारा अभी खुल नहीं पाया है. इसलिए हमें बिना निराश हुए इसकी सफलता की उम्मीद करनी चाहिए, साथही यह भी सोचना चाहिए कि इसमें जो आवश्यक चीजें छूट गई हैं, उन्हें भी इसमें शामिल किया जायेगा. अंत यह कि यदि यह मुकम्मल लागू हो जाती है तो भारत की शिक्षा व्यवस्था किसी भी देश को टक्कर दे सकती है. 

(9  अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


संतोष कुमार राय 

पिछ्ले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है. यह स्थिति और भयावह हो उससे पहले उत्तर प्रदेश में लंबी अवधि की पूर्णबंदी बहुत जरुरी हो गई है. अब जैसे जैसे महानगरों की स्थिति में थोड़ा सुधार हो रहा है छोटे-छोटे जिलों में कोरोना प्रभावितों की प्रतिदिन मिलने वाली संख्या में वृद्धि हो रही है. प्रदेश सरकार की ओर से हर तरह की सजगता और प्रशासनिक कड़ाई के बावजूद कुल संख्या में प्रतिदिन कुछ न कुछ वृद्धि हो ही रही है.

पिछले कुछ दिनों के आंकड़ों पर नजर डाली जाय तो ये हमें डराने वाले आंकड़ें हैं. अब प्रतिदिन कोरोना संक्रमित केस मिलने का रिकॉर्ड बन रहा है. 24 जुलाई को अब तक का सर्वाधिक 2529 नए पॉजिटिव केस मिले. इससे पहले यह एक दिन में मिलने वाले मरीजों की सर्वाधिक संख्या है. जबकि 22 जुलाई को 2308, 19 जुलाई को 2250 पाजिटिव केस मिले थे। इसका असर यह हुआ है कि राज्य में कुल संक्रमितों की संख्या में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई. राज्य में कुल संक्रमितों का आंकड़ा अब 60000 के पार हो गया है, जो राज्य सरकार के लिए और आम जनमानस के लिए गहरी चिंता का विषय है. इसमें ख़ुशी की बात यह है कि प्रदेश में पाए गए कुल मरीजों में से 36000 से अधिक मरीज ठीक होकर अपने घर जा चुके हैं.  हैं, जबकि एक्टिव केस 21000 के आस-पास है. वहीँ केस बढ़ने के साथ ही प्रत्येक 24 घंटे के कोरोना से मरने वालों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है. यह सख्या अब 24 घंटे में 36 से ऊपर जा रही है. प्रदेश में मरने वालों की संख्या अब 1300 से अधिक हो गई है. उत्तर प्रदेश में जुलाई महीने में हर दिन कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी से लगातार रिकॉर्ड टूट रहा है। बीते 2३-24 दिनों में 36000 से अधिक रोगी मिल चुके हैं, जबकि मार्च से जून तक 23070 मरीज मिले थे।

यदि मार्च से जून तक के आंकड़ों पर नजर डाली जाय तो हम पाते हैं कि लॉक डाउन के दौरान कोरोना का संक्रमण उत्तर प्रदेश में बहुत नियंत्रण में था. लॉक डाउन खुलने के बाद से यह बेकाबू होता जा रहा है. पहले जो संख्या पुरे प्रदेश में आती थी अब वह प्रत्येक जिले से मिल रही है जो सरकार के लिए थोड़ी असहजता का कारण बनता जा रहा है. यदि शीघ्र इसका निदान नहीं हुआ तो आने वाला समय प्रदेश की जनता के लिए कितना भयावह होगा, इसका अनुमान लगा पाना कठिन है.

अब सवाल उठता है कि इसे कैसे रोका जाय और इसमें सरकार की क्या भूमिका हो सकती है. इसके लिए लॉक डाउन या पूर्णबंदी बहुत जरुरी है. इसके आलावा और कोई रास्ता भी नहीं है. आम जनमानस के भरोसे इसे रोक लगभग असंभव ही है. अभी भी प्रदेश के छोटे-छोटे शहरों में सामान्य बंदी या रात्रि कर्फ्यू का कोई बहुत मतलब नहीं है. लोग न तो सजग हैं और न ही सरकारी आदेशों के मान रहे हैं. विशेह्स्कर उन जगहों पर जो सार्वजनिक पहुँच की जगहें हैं. जैसे बैंक, बाजार, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन आदि. इन सभी जगहों को कुछ दिन के लिए बंद कर दिया जाना चाहिए जिससे संक्रमण की चेन टूटे और इसकी वृद्धि पर रोक लगे, क्योंकि इसके आलावा इसे रोकने का कोई दूसरा साधन नहीं है. अभी तक सरकार की ओर से इस सन्दर्भ में कोई न तो सूचना जारी हुई है और न ही कोई तैयारी दिख रही है. इस बीच अलग-अलग जिलों में प्रशासन की ओर से व्यवस्था की जा रही है जो कि नाकाफी है. अब जरुरत है एक बार फिर से सामूहिक प्रयास करने की. यदि ऐसा होता है तो कोरोना की चेन तोड़ने में सफलता मिलना कोई कठिन काम नहीं है.

(2 अगस्त, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


किसानों के लिए चुप्पी मजदूरों पर हाहाकार

संतोष कुमार राय 


किसानों और मजदूरों को लेकर कोई तुलना नहीं लेकिन जैसी स्थिति बनी है उसमें किसानों का पक्ष रखना बहुत आवश्यक है। आज किसानों को लेकर जैसी उदासीनता भारत में व्याप्त है उसके कई कारण हैं। आज की स्थिति को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कई दशकों से भारत की कृषि व्यवस्था और उसकी अहमियत को समझने वाला नेतृत्व कम से कम कृषि क्षेत्र को तो नहीं मिला। कहना तो यह भी गलत नहीं होगा कि स्वाधीनता के बाद से ही भारतीय कृषि व्यवस्था को सत्तासीन समुदाय ने दोयम दर्जे का कार्य बनाने का काम किया जिसका परिणाम यह है कि आज भारत की जीडीपी में कृषि का सिर्फ 14-15 प्रतिशत हिस्सा रह गया है, जबकि भारत की जनसंख्या का लगभग 55-60 प्रतिशत की प्रत्यक्ष निर्भरता कृषि पर ही है। बाहर से देखने पर यह बहुत साधारण और सहज दिख रहा है लेकिन इसके अंदर की विडम्बना बहुत भयावह और घातक है।

मजदूरों को लेकर सरकारी अमला जिस तरह तत्पर और संवेदनशील दिखा, किसानों के किसी भी मुद्दे पर कभी भी ऐसा नहीं दिखा। पिछले लगभग तीन महीने से देशभर के ध्यानकर्षण के केंद्र में वे मजदूर हैं जो शहरों से पलायन कर अपने गाँव जा रहे हैं। मीडिया और सरकारी तंत्र ने खूब शोर मचाया कि मजदूरों के लिए क्या-क्या किया जाएगा और कितना कुछ किया जा रहा है। आज जब वही मजदूर, जो गाँव छोड़कर शहर गए थे, उनके जाते समय क्या किसी ने यह सोचा था कि शहरों में इनके लिए क्या व्यवस्था होगी? शायद नहीं। और ये शहर गये ही क्यों यह भी एक बड़ा प्रश्न है। जबकि कृषि क्षेत्रों को बड़ी संख्या में कामगारों की आवश्यकता है। उसका कारण यह है कि किसी न किसी रूप में यह किसान-पुत्र ही थे जो जीविकोपार्जन के लिए गाँव छोड़कर शहर गए थे। इसक भी कारण यही है कि कृषि से कल के किसान और आज के इन मजदूरों का भरण-पोषण लगभग असंभव हो गया था। अब यहाँ चिंता की बात है कि पूरे भारत के शहरी क्षेत्रों में इतने बड़े पैमाने पर मजदूर कहाँ से पैदा हो गए? और ये मजदूर गाँव ही क्यों जा रहे हैं?

तमाम सरकारी दावों और कोशिशों के बाद भी भारत सरकार किसानों के लिए वह रास्ता नहीं बना पा रही है जिससे किसानी को सम्मानजनक पेशा के तौर पर देखा जाय। एक समय था जब भारत में कृषि कार्य को न सिर्फ सम्मानजनक रोजगार माना जाता था, बल्कि भारत की जीडीपी में कृषि का बहुत बड़ा हिस्सा होता था। आज की स्थिति में कोई भी किसान अपने बेटे हो किसान नहीं बनाना चाहता। यदि वह मजबूरन बन जाय तो अलग बात है। हम सभी को यह बहुत अच्छी तरह पता है कि भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है। इसकी लगभग 55 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि क्षेत्र में ही कार्यरत है। वर्तमान में कृषि का भारतीय अर्थव्यस्था के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 14 के आस-पास योगदान है। लेकिन स्वाधीनता के बाद से देखें तो लगातार भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान घटता रहा है। 1951 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 52.2 प्रतिशत था। 1965 में यह 43.6 प्रतिशत हो गया। 1976 में यह 37.4 प्रतिशत हो गया। गिरने की दर लगातार बढ़ती रही और 2011, 2012 और 2013 में सीधे 18 प्रतिशत पर आ गया और आंकड़ों के मुताबिक 2015-16 में यह अपनी न्यूनतम अवस्था 14 प्रतिशत पर आ गया। जबकि देश की 135 करोड़ आबादी की खाद्य सुरक्षा कृषि पर ही निर्भर है।

ऐसा क्यों और कैसे हुआ इस पर अब बहस करना बेमानी है।  सोचने की बात यह है कि भारत के किसानों और कृषि को कैसे इससे बाहर निकाला जा सकता है। सरकार की ओर से पिछले 6 वर्षों में जो प्रयास हुए हैं वे प्रशंसनीय हैं लेकिन अभी भी सरकार की ओर से किसानों को कोई ठोस रास्ता प्रदान नहीं किया गया है जो वास्तव में कृषि को आगे बढ़ाए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया। पहला लोकल ही भोकल और दूसरा आत्मनिर्भर भारत। इस संदर्भ मे यह कहना अतिवाद नहीं होगा कि भारत तब तक आत्मनिर्भर नहीं हो सकता जब तक भारत की कृषि आत्मनिर्भर नहीं होगी। इस संदर्भ में यह आवश्यक है कि कृषि और कृषकों के उत्थान के लिए ऐसा नेतृत्व कृषि क्षेत्र को मिले जिसे भारत की कृषि व्यवस्था की समझ हो और उसके पास कृषि सुधार की सम्यक समझ हो। अभी तक देश में मुट्ठीभर केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन सुधार के लिए अनेक आयोग बने और उन आयोगों के सुझाव पर पूर्णतः अमल हुआ, जबकि भारत के सबसे बड़े रोजगार क्षेत्र के लिए स्वामीनाथन समिति के बाद से कोई आयोग नहीं बना और न ही स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिसों को अमल में लाया गया।

अब यह बहुत आवश्यक है कि आत्मनिर्भर भारत के लिए पहले आतमनिर्भर किसान की दिशा में सरकार की ओर से व्यवस्थित दिशा निर्देश मिले। यदि वास्तव में लोकल को आगे करना है तो उसके लिए अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा। भारत में यह जड़ कृषि ही है। कृषि का सुदृढ़ ढांचा भारत के विकास का नया सोपान बन सकता है। अब देखना होगा कि कोरोना काल से सीख लेते हुए सरकार इस दिशा में क्या प्रावधान करती है और उसका कितना लाभ कृषि और किसानों को मिलता है।

(14 जून, 2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


महामारी में गाँव लौटे कामगारों के जीविका की समस्या

 संतोष कुमार राय

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादापिगरियशी” यह मातृभूमि प्रेम के लिए ऐसे ही नहीं कहा गया है। इसका जीवंत उदाहरण आज के समय में दिखाई दे रहा है। संकट के इस समय में आम जनमानस में अपने गाँव लौटने की जैसी बेताबी दिखी, उससे आज के विकसित भारत की छिपी हुई सच्चाई बाहर आ गई। कोरोना महामारी ने शहरों में जैसा भय और अविश्वास का माहौल बनाया उससे शहरों में काम करने के लिए आने वाले लोगों का शहरों के प्रति न सिर्फ विश्वास कम किया, बल्कि एक बार फिर भारत के गाँवों पर लोगों का विश्वास दृढ़ हुआ। अपनी मेहनत और खून-पसीने से जिस शहर को शहर कहलाने लायक मजदूरों ने बनाया-चमकाया, महामारी के समय में वही शहर मजदूरों के लिए बेगाने और डरावने लगने लगे। कोरोना के भय ने आम कामगारों के मन में जिस किसी एक के प्रति अगाध श्रद्धा और अटूट विश्वास पैदा किया वह भारत के गाँव हैं। एक बार फिर आधुनिक शहरों पर परंपरागत गाँव भारी पड़े। मजदूरों ने हरसंभव प्रयास किया कि वे किसी भी तरह से अपने गाँव पहुँच जाएँ। बहुतों ने तो जान की बाजी लगाकर अपने गाँव तक पहुँचने की कोशिश की। कुछ पूर्णबंदी से पहले तो कुछ पूर्णबंदी के दौरान हृदय विदारक कष्ट उठाकर अपने गाँव पहुँचने का प्रयास करते रहे और अब भी कर रहे हैं। जबकि सरकार की ओर से इन मजदूरों को जहाँ थे वहीं रोकने की हरसंभव कोशिश भी होती रही। अंततः सरकारों को भी इन कामगारों की जिजीविषा के आगे अपनी राह बदलनी पड़ी और अब देश के अलग-अलग हिस्सों से मजदूरों को श्रमिक विशेष ट्रेन तथा बस चलाकर उन्हें उनके प्रदेश, फिर उन्हें उनके गाँव तक पहुंचाया जा रहा है।

अब जब मजदूर अपने गाँव आ गये हैं और आ रहे हैं तो इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठना स्वाभाविक है। जैसे कि शहरों से वापस आने के बाद इनके जीविकोपार्जन के लिए अभी गाँवों में क्या व्यवस्था है? क्या गाँव में इनका भरण-पोषण हो जाएगा या फिर इन्हें गाँव छोड़कर शहर ही जाना पड़ेगा? इतनी बड़ी संख्या में मजदूर जब ग्रामीण क्षेत्रों में आ रहे हैं तो आम ग्रामीण की इनके लिए क्या राय है? इन सवालों को लेकर जब थोड़ी गहराई में उतरने की कोशिश की तो ग्रामीण यथार्थ की अनेक परतें खुलीं। सबसे पहली बात यह कि इन मजदूरों के गाँव आने के बाद जो प्राथमिक तौर पर दिखा वह यह कि इनके आने से सभी प्रसन्न हैं अर्थात गाँव में स्थायी रहने वाले भी और ये मजदूर भी। मजदूर इसलिए प्रसन्न हैं कि इस महामारी से बाहर निकलकर वे अपनी जन्मभूमि पर आ गये हैं और उन्हें यह विश्वास है कि यहाँ उन्हें कुछ नहीं होगा। जहाँ तक रोजगार का प्रश्न है तो भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है और कृषि में इतने तरह के कार्य हैं कि उसमें अधिकतम लोगों को रोजगार दिया जा सकता है और पहले भी इन मजदूरों को मिलता रहा है। ग्रामीण किसानों में मजदूरों के आने से प्रसन्नता है कि कृषि कार्य अब लगभग मशीनों के सहारे किसी तरह से हो पाता था और पिछले दो दशक से कृषि कार्य मजदूरों के अभाव में लगभग उपेक्षित हो गया था, उसे फिर से वही सम्मान और संपन्नता मिल सकती है। उदाहरण के लिए जब संपूर्णबंदी हुई तो गाँव में गेहूं की कटाई चल रही थी। मजदूरों के अभाव में किसान गेहूं को हार्वेस्टर से कटवाते थे जिसमें अच्छा खासा व्यय होता था। उसके बाद पशुओं के चारे के लिए भूसा बनवाना पड़ता था और उसमें भी उतना ही व्यय होता था। लेकिन मजदूरों के बढ़ने से इस बार एक ही काम को दो बार नहीं करवाना पड़ा और बड़े पैमाने पर मजदूरों ने गेहूं की कटाई में सहभागिता की। इसी तरह खेतों में गर्मी की सब्जी, गन्ना, सूरजमुखी, मूंग जैसी अनेक चीजें लगी हुई हैं, जिनके लिए बड़े पैमाने पर मजदूरों की आवश्यकता होती है। किसान प्रसन्न हैं कि उन्हें आसानी से मजदूर मिल जाएंगे और उन्हें अच्छा उत्पादन और मजदूरों को कार्य मिलेगा।

यहाँ यह भी समझने की जरूरत है कि अब ग्रामीण भारत की तस्वीर बहुत हद तक बदल चुकी है। परिवहन के साथ अन्य संसाधनों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है जिससे ग्रामीण भारत का उत्पादन आसानी से शहरों में और दूसरे देशों में पहुँच रहा है। सरकार की ओर से भी गाँवों में रहने वाले मजदूरों के लिए अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसका लाभ इन मजदूरों को भी मिलेगा। मनरेगा के तहत ग्रामीण भारत में रोजगार गारंटी की योजना पिछले कई वर्षों से चल रही है। वहीं खाद्यान्न वितरण से भी गाँव में रहने वाले मजदूरों का जीवन बहुत आसान हुआ है। पिछले पाँच-छः वर्षों में बड़े पैमाने पर आवास, शौचालय, बिजली और उज्जवला के तहत गैस कनेक्सन देकर सरकार ने ग्रामीण जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। शहरों से गाँव आए मजदूरों को बड़े पैमाने पर ग्रामसभाओं के द्वारा मनरेगा के तहत काम दिया जा रहा है। वहीं कृषि, पशुपालन, मछली पालन, बागवानी आदि में भी खूब काम मिल रहा है। गाँव में रोजगार को लेकर जब मजदूरों से बात करने कोशिश की तो उनका उत्तर कुछ इस तरह का था। उन्होने बताया कि शहरों में मासिक कार्य मिलता था जबकि गाँवों में यह दैनंदिन होता है। शहरों में खर्च भी अधिक था, जिसमें सबसे बड़ा खर्च रहने का था। गाँव में रहने का कोई खर्च नहीं लगता, वहीं बिजली-पानी पर भी बहुत कम खर्च होता है। इसलिए शहर की अपेक्षा गाँव में बहुत कम व्यय करके भी आराम से रहा जा सकता है। उन्होने बताया कि अब गाँवों में भी काम इतना बढ़ गया है कि यहाँ भी अच्छा काम मिल रहा है। खेती-किसानी के अतिरिक्त भी अनेक क्षेत्र हैं जिनमें बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन हुआ है। इस उत्तर में जो आत्मसंतोष था वह गाँव के प्रति उनके विश्वास और आत्मीयता को प्रकट कर रहा था।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है। मजदूरों के आने से किसानों का पक्ष भी जानना आवश्यक था। जब किसानों से इन मजदूरों को लेकर सवाल किया तो उनका कहना था कि जबसे ग्रामीण मजदूरों का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ कृषि की रीढ़ बैठ गई। हम सभी मशीनों के सहारे खेती कर रहे थे जबकि खेती में बहुत सारे ऐसे काम हैं जो मजदूरों के बिना संभव नहीं हो पाता। इन मजदूरों के आ जाने से खेती-बारी की स्थिति में बहुत सुधार हो जायेगा।

इस सारी स्थितियों को देखते हुए गाँव आए मजदूरों को लेकर फिलहाल ऐसी कोई बड़ी परेशानी दिखाई नहीं दे रही। आगे की स्थिति कैसी होगी यह समय तय करेगा। लेकिन एक बात तय है कि ग्रामीण भारत भी अब हर तरह से रोजगारोन्मुख हो गया है और ऐसे अनेक क्षेत्र सृजित हुए हैं जहाँ बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए हैं। यदि सरकार की ओर से ग्रामीण और कृषि विकास की योजनाओं को थोड़ा और विस्तार दे दिया जाय तो गाँव सिर्फ मजदूरों को रोजगार ही मुहैया नहीं कराएंगे, अपितु भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में भी बड़ी भूमिका निभायेंगे।

(31 मई2020 के युगवार्ता में प्रकाशित)


संकट के समय गाँव का गँवई बोध

 संतोष कुमार राय

17 मई, 2020 के पांचजन्य के अंक में प्रकाशित
10 मई2020 के युगवार्ता में प्रकाशित

ग्रामीण का तद्भव गँवार होता है लेकिन दोनों के प्रयोग के संदर्भ और व्याख्या में बहुत बड़ा फर्क है। आम तौर पर आधुनिक और शहरी भारत में गँवार का मतलब अनपढ़ और मूर्ख जैसा ही प्रतीत कराया जाता है। लेकिन ग्रामीण बोध या गंवई बोध जितना आत्मीय, संवेदनशील, मानवीय और बुद्धि-संपन्न होता है आधुनिक शिक्षा संपन्न भारत में शायद ही देखने को मिले। इसका एक जीवंत और प्रेरणादायी उदाहरण पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे लगे हुए बिहार के कुछ गाँवों में देखने को मिला। 

हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि पूरे भारत को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार से ही उपलब्ध होती है। यही वे श्रमिक हैं जिनके श्रम से आज का भारत विकास के अनेक पायदान चढ़कर आगे बढ़ा है। पिछले एक माह से अधिक समय से भारत में संपूर्ण बंदी लागू है। देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले मजदूर, जिन्हें हजारों की संख्या में दिल्ली की सरकार ने भयानक असंवेदनशीलता और अमानवीयता का परिचय देते हुए बसों में भर-भरकर उत्तर प्रदेश की सीमा पर लावारिस और लाचार बनाकर छोड़ दिया था, वे मजदूर तमाम संघर्ष के बाद जब अपने गाँव पहुंचे तो उन्होने जिस संवेदनशीलता और जागरूकता का परिचय दिया उससे हमें अद्भुत प्रेरणा और सीख मिलती है।

पिछले महीने की 12 तारीख को बिहार के बक्सर जिले के एक गाँव के 40 कामगार लगभग 15 दिन के संघर्ष के बाद अनेक दिन के भूखे-प्यासे अपने गाँव पहुँचे। गाँव आने के बाद उन्होने गाँव के बाहर से ही गाँव में रहने वाले लोगों और गाँव के मुखिया को फोन करके बुलाया और सभी ग्रामीणों के साथ एक बैठक किया और मुखिया के सामने उन लोगों ने प्रस्ताव रखा कि हम सभी दिल्ली से आ रहे हैं और देश में जैसी महामारी फैली है उसमें हमारा सीधे गाँव में प्रवेश करना ठीक नहीं है। हम सभी चाहते हैं कि हमें 14 दिन तक गाँव के बाहर रहने की व्यवस्था की जाय जिससे हम लोगों की वजह से गाँव में किसी को भी किसी भी तरह का नुकसान न हो और कोरोना के संक्रमण से हमारा गाँव सुरक्षित रहे। मुखिया के साथ ग्रामीणों ने इस प्रस्ताव का हृदय से स्वागत किया और गाँव के बाहर एक विद्यालय में उनके रहने की व्यवस्था की गई। बिना किसी सरकारी सहायता ग्रामीणों ने 14 दिनों तक उन कामगारों के रहने-खाने की उत्तम व्यवस्था किया। उसके बाद सभी कामगार सहर्ष अपने-अपने घर गये। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिले जिससे महानगरीय जीवन जीने वालों को सीख लेनी चाहिए। यहीं ग्रामीण शिक्षा है। यही गाँव का संस्कार है। पिछले एक महीने में ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा अनेक जगहों पर देखने को मिला जो किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाया जाता। एक ओर शहर के लोग हस्पतालों से भाग र्हए थे, चिकित्सा सेवा में लगे लोगों पर हमला कर रहे थे ठीक उसी समय भारत के सुदूर गाँवों में गहरी मानवता अपना संस्कार प्रकट कर रही थी। 

आपदा के समय सामान्यतः हम ऐसी जगहों की ओर जाते हैं जिन पर हमारा अटूट विश्वास होता है। कोरोना महामारी ने महानगरों में जैसा भय और असंवेदनशीलता का माहौल पैदा किया गया उसमें ग्रामीण समुदाय से जुड़े लोग अपने गाँवों में सुरक्षित पहुँचने के लिए बेताब दिखे। एक बार फिर गाँव और गाँव के लोगों के प्रति विश्वास और सद्भाव मजबूत हुआ है। यहीं वास्तविक भारत बसता है जो कभी विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित था।


लाकडाउन में ग्रामीण भारत सरकार और प्रशासन के साथ

संतोष कुमार राय 

कोरोना वायरस एक वैश्विक महामारी बनकर उभरा है। एक ऐसी महामारी जिसके वायरस को शायद ही देखा जा सकता हो। इसका खतरनाक रूप विश्व के कई देशों को तबाह कर दिया है। यह बात हर भारतीय को अब ठीक से समझ में आ गई है। वैसे भारत जैसे देश और उसमें भी ग्रामीण भारत में लॉक डाउन करा देना कितना कठिन और असहज है, इससे हम सभी परिचित हैं। शुरुआती कुछ दिन के अफवाहों को छोड़ दिया जाय तो कोरोना को लेकर सरकार की ओर जारी हर एहतियात और निर्देश को लोगों ने बहुत गंभीरता से लिया है। भारत की अव्यवस्थित चिकित्सा सुविधाओं और उसमें भी भगवान भरोसे चलने वाली ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के मद्देनजर आम जन में इसे लेकर बहुत खौफ और भय जैसा माहौल रहा और यह चिंता सभी के मन में थी और अभी भी है कि अगर स्थिति बिगड़ गई तो इलाज तो बहुत दूर, हस्पतालों में पहुँचना भी आसान नहीं होगा। अमेरिका, इटली, स्पेन और चीन जैसे समृद्ध राष्ट्र जब इस महामारी के सामने घुटने टेक दिये हैं तो फिर भारत जैसे अल्पविकसित और अविकसित देश की क्या औकात है।

इस दौरान जो स्थिति रही उसे देखते हुए यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि 130 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश को इस महामारी से कैसे बचाया जा सकता है? क्या सरकार के पास ऐसे संसाधन मौजूद हैं जिनके सहारे देश को इस महामारी से बाहर निकाला जा सकता है? शायद नहीं और इसे भारत की ग्रामीण जनता बहुत गहराई से समझ रही है। फिर इससे बचने का एकमात्र और अंतिम उपाय यही था कि सरकार द्वारा जारी निर्देशों का पालन किया जाय और इस महामारी को फैलने से रोका जाय, अन्यथा इसकी भयावहता व्याप्त होने में बहुत अल्प समय लगेगा।

अक्सर ऐसा होता है कि ग्रामीण भारत मीडिया की नजर में उस तरह नहीं आ पाता जैसा कैमरे में महानगरीय चमक-दमक को सहेजा जाता है। महानगरीय खबरों की बहुलता के बाद कुछ छोटे शहरों की खबरें आती हैं उसके बाद ग्रामीण भारत की ओर कैमरा घूमता है जो स्क्रीन पर जगह बनाने में लगभग नगण्य ही रहता है। जहाँ तक कोरोना के मद्देनजर भारत बंद का प्रश्न है तो पिछले लगभग 15 दिनों में जो जागरूकता और गंभीरता देखने को मिली है वह सहज ही हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती है। 12-13 मार्च के आस-पास जब भारत में कोरोना के केस बढ़ने लगे उस समय लोगों के मन में अनायास ही भय जैसा बन गया। सरकार की ओर से जब कुछ सुझाव दिये जाने लगे तो लोगों का ध्यान कोरोना से बचने के उपायों की ओर गया। प्रारंभिक चरण में जब राज्य सरकारों की ओर से विद्यालय, कालेज और सिनेमाघरों को बंद करने का आदेश हुआ, साथ ही आम लोगों के लिए जब साफ-सफाई के सुझाव और सुरक्षित रहने की चिकित्सकीय सलाह दी गई तो आम जनमानस पूरी तरह सचेत हो गया। वहीं विश्व में कोरोना से मची तबाही की जो खबरें आयीं उसका भी असर आम लोगों पर हुआ। लेकिन अभी तक वैसी सजगता नहीं आयी थी जैसी कोरोना से बचने के लिए जरूरी थी।

कोरोना से बचने के लिए प्रधानमंत्री ने जब एक दिन के जनता कर्फ़्यू की घोषणा किया तो सभी को यह समझ में आ गया कि इससे बचाव का यही रास्ता है। कुछ एक अपवादों और कुछ अफवाहों पर ध्यान न दिया जाय तो जनता कर्फ़्यू भारत के इतिहास में एक सफलतम कर्फ़्यू में गिना जाएगा, साथ ही इससे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का भी सहज अनुमान हो गया कि उनके एक छोटे से अनुरोध पर पूरे देश में बाजार, दुकानें, सड़के, गाडियाँ सबकुछ बंद रहा। भारत जैसे देश में इस तरह के बंद को सफल बना देना कितना कठिन है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है जहाँ प्रतिरोधी आवाज में निकलने वाला हर तीसरा वाक्य लोकतंत्र की हत्या होता है। लेकिन यह हुआ। न सिर्फ हुआ, बल्कि इसी से आगे के बंद की राह भी निकली। मतलब प्रधानमंत्री और सरकार की ओर से यह एक प्रयोग था कि लोग इसे किस रूप में ले रहे हैं और कितना सहयोग कर रहे हैं। एक दिन के जनता कर्फ़्यू के मद्देनजर कुछ दूकानदारों, कुछ ग्राहकों और कुछ अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए लोगों से बात करने की कोशिश की गई। जिसमें सभी का जवाब लगभग एक जैसा ही था कि प्रधानमंत्री ने अनुरोध किया है तो हमारे लिए ही किया है। उन्हें हमारी चिंता है तभी किया है। इसलिए हम सभी का यह सामूहिक कर्तव्य है कि हम सभी इसे सफल बनाने में सहयोग करें और ऐसा हम सबने किया।

22 मार्च के जनता कर्फ़्यू की सफलता के बाद सरकार को समझ में आ गया कि कोरोना से निपटने के इस तरीके को आगे बढ़ाया जा सकता है। 24 मार्च की मध्य रात्रि से कोरोना वायरस से बचाव को लेकर संपूर्ण भारत में 21 दिन का लंबा लाक डाउन कर गया, जिसकी घोषणा 24 मार्च को खुद प्रधानमंत्री ने की और समस्त देशवासियों से हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि वे घर से बाहर ना निकलें। शहरी और महानगरीय भारत में जहाँ इसे लागू कराने में प्रशासनिक सहयोग लेना पड़ा तो वहीं ग्रामीण भारत खुद इसे सफल बनाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहा है। पिछले 15 दिनों में पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे सटे हुए बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में जैसी जागरूकता देखने को मिली है, वह न सिर्फ सराहनीय है बल्कि इस महामारी से बचाव में सहयोग न करने वाले लोगों और इसे गंभीरता से न लेने वालों के लिए अनुकरणीय भी है।

21 दिन के लाक डाउन को लेकर जब कुछ व्यावसायियों से बात की गई तो सभी का जवाब कोरोना को हराने और देश को बचाने के पक्ष में था। बक्सर में होल सेल के कपड़ा व्यवसायी राजेश से जब पूछा कि इस बंद को वे अपने व्यवसाय के से जोड़कर कैसे देख रहे हैं तो उनका जवाब कुछ इस तरह था। उन्होने कहा कि लाक डाउन देश के लिए है, देश के लोगों के लिए है जबकि मेरा व्यवसाय भी देश और देश के लोगों से ही है। अगर देश और लोग ही नहीं रहेंगे तो मैं व्यवसाय किसके बीच और किसके लिए करूँगा। इसलिए इस बंद को सफल बनाने के लिए मैं हर तरह के नुकसान के लिए तैयार हूँ। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों की दुकानों पर किराना की होल सेल सप्लाई करने वाले भुवन का जवाब तो और हौसला देने वाला था। उसी सवाल के जवाब में उन्होने कहा कि आज राष्ट्र को हमारी जरूरत है। अगर हम राष्ट्र के किसी भी काम आ गए तो यह हमारा सौभाग्य होगा। धंधा सिर्फ जीवन यापन का साधन है। लेकिन यह साधन नहीं भी रहे ग और राष्ट्र रहेगा, लोग स्वस्थ रहेंगे, हम स्वस्थ रहेंगे तो अपनी मेहनत से सबकुछ लूटा के भी दोबारा खड़ा कर सकते हैं। उन्होने कहा कि ऐसे समय में हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है कि हमारे पर जो भी संसाधन है उसके साथ हम अपने ग्राहकों और जरूरतमंदों के बीच खड़ा रहे। प्रशासन के आदेश के अनुसार हम सभी हर तरह से अपने लोगों के साथ अंतिम सांस तक खड़े रहेंगे। वहीं अन्य लोगों में कुछ ग्राहकों, कुछ छोटे दूकानदारों, कुछ किसानों, कुछ मजदूरों से भी बात की गई। सभी जा जवाब कोरोना से बचाव के लिए सरकार के हर आदेश का पालन कराने के पक्ष में ही था। ये सारे जवाब सरकार और प्रशासन को न सिर्फ हौसला देंगे, बल्कि इस महामारी को परास्त करके संगठित और मजबूत राष्ट्र का सर्वोत्तम उदाहरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करेंगे।

ग्रामीण भारत की यह तस्वीर कोरोना की लड़ाई में जैसा उदाहरण बन रहा है वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। इस बीच दैनंदिन श्रमिकों और कुछ गरीब लोगों के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ दिक्कतें भी आयी हैं लेकिन सरकार और प्रशासन की संवेदनशीलता और सजगता ने उससे भी निपटने का रास्ता बना लिया है। कुलमिलाकर आम जन इसे अपनी सुरक्षा, अपने परिवार तथा बच्चों की रक्षा के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। इससे एक उम्मीद बंधी है कि अगले 21 दिनों में भारत कोरोना से बहुत हद तक निपटने में कामयाब होगा।   


सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...