मुद्दा
सन्तोष कुमार राय
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित.....
आज भ्रष्टाचार हमारे देश की संसदीय राजनीति का अहम हिस्सा बन गया है। जब से राष्ट्रीय राजनीति में गठबंधन सरकारों का दौर चला है, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना मुश्किल होता जा रहा है। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर दो गठबंधन हैं। जनता दोनों को आजमा चुकी है। आज देश के मतदाता विकल्पहीनता की स्थिति में है। किसे चुना जाय और किस तरीके से चुना जाय, यह प्रश्न आज भारतीय मतदाताओं के सामने एक बड़े रूप में खड़ा है। जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो देश की जनता को यह भरोसा हुआ कि इस बार देश को एक समझदार प्रधानमंत्री मिला है। यह भरोसा कु छ अधिक लम्बा चला और मनमोहन सिंह दुबारा प्रधानमंत्री बन गये। जाहिर सी बात है कि उनको जनता के विास की रक्षा करनी चाहिए थी, लेकिन वे भ्रष्टाचार जैसे अहम विषय पर हाथ खड़ा करते हुए अपनी गठबंधन की मजबूरी गिनाने लगे। दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद जब भ्रष्टाचार का पहला मामला आया था तो उन्होंने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा था कि दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा। उसके बाद तो जैसे इस देश में भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गयी। अब सीबीआई भी क्या कर लेगी जब भ्रष्टाचार ने इस देश में ‘ईमानदारी और नैतिक मूल्य’ की जगह ले ली है। आज अगर कोई नेता यह कहे कि भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा और आने वाले समय में हम भ्रष्टाचार मुक्त देश के निवासी होंगे तो यह मान लेना चाहिए कि या तो वह जनता को धोखा दे रहा है, या फिर अपने समय की हकीकत से आंख चुरा रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि उसे वर्तमान राजनीति का ज्ञान भी नहीं है। भ्रष्टाचार की बात आते ही नेता जनता पर भी यह आरोप लगाते हैं कि उसका चुनाव गलत था, उसे सही प्रतिनिधि का चुनाव करना चाहिए। लेकिन जनता की स्थिति एक विकल्पहीन की है, वह मजबूर है किसी न किसी को अपना मत देने के लिए। और चुनाव के समय तो सभी ईमानदार होते हैं लेकिन जैसे चुनाव जीतते हैं उनके करोड़पति बनने का श्रीगणोश हो जाता है। इसमें भी पकड़े वे ही जाते हैं जो कु छ अधिक लूटते लगते हैं। आज यह कहना बहुत कठिन है कि कौन ईमानदार है और कौन भ्रष्ट है, वस्तुत: हमाम में सब नंगे हैं कोई कम है तो कोई अधिक। अगर ऐसा नहीं होता तो संसद में इतनी भारी संख्या करोड़पतियों की नहीं होती। यहां यह भी सवाल उठाया जा सकता है कि सांसद ही करोड़पति क्यों होते हैं? क्या वे इस देश के बाकी लोगों से अधिक मेहनत करते हैं? और अगर मेहनत के हिसाब से करोड़पति होने का पैमाना तय होना होता तो सबसे पहले देश के किसानों को अमीर होना चाहिए था। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि मौजूदा नियम ऐसे लोगों को देश का प्रतिनिधित्व करने से रोक नहीं पाता है जो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं। इसलिए चुनाव प्रक्रिया में बदलाव अतिआवश्यक हो गया है। अपने चुनाव क्षेत्र का 10 और 20 प्रतिशत वोट पाने वाला भी इस देश में सांसद बन जाता है। ऐसे में वह उन 80 प्रतिशत लोगों को उपेक्षित रखता है जिन्होंने उसे वोट नहीं दिया। फिर कैसे सम्यक विकास की बात होगी। अब एक निश्चित प्रतिशत में वोट पाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह एक बार इसका भी सर्वे करा ले कि कितने लोग इस तरह की चुनाव पद्धति में विास रखते हैं और कितने लोग इसमें बदलाव चाहते हैं। फिलहाल जो चुनाव पद्धति भारत में चल रही है वह भाई-भतीजावाद की परम पोषक है। ऐसे में गुणवत्ता और क्षमता का कोई मतलब नहीं रह जाता। हमें समझना होगा कि सियासी मजबूरी स्वीकार कर लेने से न तो देश बच सकता है और न ही विकास हो सकता है। नेताओं की यही कथित मजबूरी भारतीय राजनीति को पैतृक धंधे का रूप दे रही है, और इस धंधे के घाटे का खमियाजा देश की आम जनता भुगत रही है। बेकाबू भ्रष्टाचार और महंगाई के आलम में जीवन हर रोज कु छ और कठिन होता जा रहा है। यूरोपीय देशों की तर्ज पर हमारे यहां भी चुनाव प्रक्रिया में कुछ बुनियादी बदलाव जरूरी हो गया है। फिलवक्त जरूरत है कि एक ऐसी पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया बनाई जाए जो अधिकाधिक जनता के समर्थन का प्रतिनिधित्व करे। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते वक्त उम्मीद नहीं की होगी कि उनके द्वारा जनता के हित के लिए बनाई गई लोकतांत्रिक व्यवस्था कभी ऐसे भी विकृत स्वरूप ग्रहण कर सकती है। यदि डॉ. अम्बेडकर जैसे लोगों को इसका जरा भी भान होता तो उनके द्वारा जरूर कोई दूसरा रास्ता बनाया गया होता। लेकिन अब बदलाव अवश्यंभावी लगता है। कई बार कु छ बुनियादी परिवर्तन वक्त की जरूरत बन जाते हैं। यह समय भी कु छ ऐसा ही जरूरतमंद है जिसे देश तथा जनहित में स्वीकार किया जाना चाहिए।