गठबन्धन की राजनीति में बन्धन की सीमा



सन्तोष कुमार राय

वर्तमान समय राजनीति का वह दौर है जब भारत का हर व्यक्ति इसमें दिलचस्पी ले रहा है, ऐसे में गठबंधन की राजनीति का पाक साफ होना बहुत कठिन है। असल में गठबंधन की राजनीति की आज की प्रमुख गुणवत्ता यह है कि वह जितनी अधिक व्यावसायिक है उससे कहीं अधिक मौकापरस्त। नब्बे के बाद के कुछ राजनीतिक समझौतों पर ध्यान दिया जाय तो बात साफ हो जायेगी। नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा के बीच गठबन्धन की सरकार बनी लेकिन छ: महीने में ही अलग थलग हो गये। उसके बाद केन्द्र में एनडीए का गठबन्धन हुआ जिसके सहारे वाजपेयी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन अगले चुनाव में जनता ने उस गठबन्धन को नकार दिया। फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए नाम से गठबन्धन हुआ और मनमोहन सिंह की सरकार बनी जिसमें बामपंथी भी शामिल थे और उनकी भूमिका क्या थी यह सभी को पता है। सरकार में रहते हुए उन्होंने सरकार चलाने के लिए मित्र धर्म का निर्वाह बखूबी किया, हां जनता से जो वादे करके आये थे उन्हें जरुर भूल गये और अलग होने पर कुछ आरोप लगाकर विचारधारा को जरूर एहसान मन्द बनाए, जिससे लगे कि इनकी राजनीति बिना अपनी वैचारिकी के एक कदम भी नहीं चलती है। लेकिन इसका खामियाजा उन्हें अगले चुनाव में अवश्य भुगतना पड़ा और उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि अब वे सरकार के भीतर रहें या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कांग्रेस ने इस बार जरूर एक नया खेल खेला और बंगाल में वाम विरोधी ममता को सरकार में मिला लिया। पिछली सरकार मे जो वाम-कांग्रेस एक राग अलाप रहे थे इस बार एक दूसरे पर आरोप लगाते हुए नहीं थकते। दोनों ही स्थितियों में कांग्रेस का कत्तई फायदा नहीं हुआ। लेकिन एक समस्या यहां जरूर खड़ी हो गयी कि अगर बंगाल में ममता की सरकार बनती है तो उससे कांग्रेस को क्या मिलेगा? क्या सीटों के बंटवारे की ही तरह यहां भी कांग्रेस समझौता कर लेगी या कुछ और होगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन अगर वाम अपनी सरकार बचाने में सफल रहा तो कांग्रेस का वही हस्र होगा जो अभी कुछ महीने पहले बिहार में हुआ है।

इस बार यूपीए की स्थिति थोड़ी अलग थी। दो पार्टी ऐसी शामिल हुई जो कभी भी अपना हित साधने के लिए यूपीए का साथ छोड़ सकती हैं। कल तक पूर्व संचार मंत्री ए राजा की वकालत करने वाले कांग्रेसी नेताओं को यह नहीं पता था कि प्रादेशिक चुनाव आते ही करुनानिधि पल्ला झाड़ सकते हैं। कुछ वैसी ही हालत ममता की भी है। ममता बंगाल के लिए कुछ भी करेंगी, सरकार रहे चाहे जाय, उन्हें तो बंगाल की कुर्सी से मतलब है।

दरअसल गठबन्धन की राजनीति में राष्ट्र हित बहुत ही कम होता है। वहां सीधे सीधे पार्टी का हित होता है, और इन दोनों पार्टियों का हित प्रदेश के चुनाव हैं। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा? क्या चुनाव होगा? क्या जनता को मंहगाई के गर्त में धकेल दिया जाएगा? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं होगा। कांग्रेस की मजबूरी है कि उसे सरकार चलाना है, इसलिए सहयोगी पार्टियों के मनसुबे के अनुसार सीटों का बंटवारा हो रहा है। पिछ्ले संसदीय चुनाव में जिस प्रकार सरकार की सहयोगी पार्टियों ने रंग दिखाया वह सामने है। मसलन लालू और पासवान जैसे और लोग भी कांग्रेस के साथ होंगे ही।

इस समय यूपीए दो तरफ से घिरा हुआ है, पहला बिपक्ष से और दूसरा अपने आंतरिक सहयोगियों से। और सहयोगियों की स्थिति ऐसी है कि वे लगातार सरकार को किसी न किसी विवाद की ओर ले जा रहे हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरकार को लेकर कांग्रेसी नेता कुछ अधिक सजग दिखाई देते हैं जबकि सजग उन्हें होना चाहिए जो सहयोगी हैं। आज यह प्रश्न भारत के प्रत्येक आदमी के मन में उठ रहा है कि वर्तमान यूपीए सरकार से कहाँ चूक हुई जिसके चलते भ्रष्टाचार और मँहगाई का इतना बड़ा बोझ आम लोगों के सिर पर आ गया। इसका एहसास उन्हें भी बखूबी है जो सत्ता में हैं। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों मंहगाई को रोकने की बात लगातार कर रहे हैं लेकिन उन्हें भी यह पता नहीं है कि इसे कैसे रोका जाय। पिछले दिनों प्याज के रूप में एक नमूना सामने आया। प्याज की कीमत में भयानक वृद्धि हुई और कृषिमंत्री ने इसका ठीकरा मौसम के सिर पर फोड़ दिया, लेकिन गौर करने योग्य यह है कि मीडिया के लोग प्याज की बड़ी हुई कीमत से लगातार अवगत कराते रहे। हमें यह भी बताते रहे कि प्याज में इतनी तेजी से जो बाढ़ आयी है उसका कारण है फसल का बर्बाद होना लेकिन यह किसी ने नहीं बताया अमुक अमुक मंडियों में प्याज उपलब्ध नहीं है। लगभग सभी महानगरों से कीमत बढ़ने की खबर आ रही थी, कहीं से भी प्याज के न मिलने की खबर नहीं आयी। ऐसे में किसे गलत माना जाय सरकार को, वितरण प्रणाली को, बिचौलियों को या फिर प्रकृति को। मजेदार बात यह है कि इतना सब होने बाद भी कोई यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि गलती हुई है। दबे मन से भारत के प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि कुछ गलतियां हुईं हैं, साथ में यह तर्क भी दिया कि हमारा कार्यकाल लम्बा चला इसलिए कुछ गलतियां हो सकती हैं, आगे इसका ध्यान दिया जायेगा।

एक और बात जो काँग्रेस पार्टी के ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार में जो लोग लिप्त हैं उन्हें बख्शा नहीं जायेगा। यहाँ समझने की कोशिश होनी चाहिए कि आखिर किसकी जांच की जायेगी। ‘टू जी स्पेक्ट्रम’ घोटाला ‘कामन वेल्थ गेम’ हमारे सामने है और उसकी लगातार जाँच भी चल रही है लेकिन आने वाले समय में क्या यूपीए के नेता जनता के सामने यह कहने की हिमाकत कर पायेंगे कि हमने जांच करवाया और जो देश का नुकसान हुआ था उसे हमने वापस करा दिया, यह तो आने वाला समय बतायेगा, अभी हम लोग धैर्य-पूर्वक जाँच के बाद आने वाले परिणामों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

काँग्रेस पार्टी के और सदस्यों को इसका पता हो या ना हो लेकिन प्रधानमंत्री को इस बात की आशंका थी कि यूपीए की दूसरी पारी आसान नहीं होगी। न्यूज चैनलों के सम्पादकों के सवालों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी मजबूरी की ओर बड़ी इमानदारी से संकेत किया था। लेकिन क्या इस स्वीकार भाव से देश चल सकता है? शायद नहीं ! जहाँ तक मेरा मानना है कि लोकतंत्र किसी भी मजबूरी में न तो चल सकता है और न ही उसकी रक्षा की जा सकती है, क्योंकि सरकार बनाने की जो मजबूरी काँग्रेस पार्टी के सामने थी उसने आखिरकार अपना रंग दिखा ही दिया और सरकार की इतनी फजीहत के बाद करुनानिधि ने यह संकेत दे दिया है कि वे कभी भी अपना हाथ छुड़ा सकते हैं। इसके बाद सरकार को समर्थन की जरुरत पड़ेगी और मिलेगा भी। लेकिन क्या अब सरकार से यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाला समय भारत के लिए मजबूरी का नहीं विकास का होगा।

सरकार की वर्तमात नीति को लेकर थोड़ी असमंजस की स्थिति जरुर है, क्योंकि प्रादेशिक चुनाओं के परिणाम भी कुछ समस्या पैदा कर सकता है। जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें बंगाल भी है जहाँ की मुख्य दावेदार हैं ममता। ऐसे में ममता का अंतिम समय तक साथ देना थोड़ा कठिन है। यह गठबंधन की राजनीति का बहुत पुराना नियम है कि सही काम के सभी हकदार होते हैं लेकिन गलत हमेशा मुख्य पार्टी के पाले में जाता है और इसका सर्वाधिक विरोध वही करते हैं जो कुछ दिनों पहले उसमें सिर से पैर तक डूबे होते हैं। बाहर निकलने के बाद अपने त्याग की कहानी कहने लगते हैं। आने वाले समय में ये राग कई पार्टियों के नेता अलापेंगे। इन प्रादेशिक चुनाव के परिणामों का असर कुछ महीने बाद होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव पर भी पड़ेंगे जहां कांग्रेस लगातार अपने को स्थापित करने की कोशिश कर रही है। अभी तक उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर कांग्रेस पार्टी में कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही है जबकि अन्य पार्टी के नेता प्रयास तेज कर दिये हैं। अगर भारत में कांग्रेस को इस गठबंधन धर्म से बाहर निकलना है तो जरूरी है कि वह अपना स्वतंत्र आधार बनाए।

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