सन्तोष कुमार राय
अभी तक विश्व में जितनी भी जनक्रांतियां हुई हैं उन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिला है। बिना जनसमर्थन के जनक्रांति नहीं हो सकती। वर्तमान भारत भी ऐसे ही जागरूक जनता के जनसमर्थन के साथ आगे बढ़ रहा है| अब जरूरत है इसे सही दिशा देने की, लेकिन क्या वर्तमान समय में कार्यरत राजनीतिक दल इस समाज को सही दिशा दे सकते हैं? मुझे लगता है कि अभी तक की स्थिति को देखकर यह नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस और भाजपा दोनों अभी तक अपने विचारों में स्पष्ट नहीं दिख रहे हैं जिससे यह उम्मीद की जाय।
सरकार बार-बार यह आश्वासन दे रही है कि हम भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं, यह अच्छी बात है इसमें किसी को कोई समस्या नहीं है , सभी लोग यही चाहते हैं। अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के विरूद्ध अभियान में शामिल लोग भी यही चाहते हैं, फिर सरकार को समस्या क्यों हो रही है। बार-बार अन्ना हज़ारे के विरूद्ध अनाप-सनाप बयानबाजी क्यों हो रही है। कल संसद में राहुल गांधी ने बहुत दिनों बाद कुछ कहा लेकिन किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि उनके और कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के बयान में सिर्फ भाषागत भिन्नता होगी। उन्होंने अन्ना के आन्दोलन को लोकतंत्र पर हमला बताया। अब सवाल यह उठता है यह लोक तंत्र किसका है, किसके लिए है और इसका रक्षक कौन है? भारत में लोकतंत्र को स्थापित करने वाले कौन थे। वे लोग यहीं के थे और आज जब लोकतंत्र खतरे में है तो उसकी रक्षा करने वाले भी यहीं के होंगे। अब यह भी जटिल प्रश्न है कि भारत में लोकतंत्र को किससे खतरा है, जनता से या फिर नेताओं से। अभी तक के हालात को देखते हुए हम यही कह सकते हैं कि जो लोग लोकतंत्र की रक्षा का नारा लगा रहे हैं और आम जनता को उसका विरोधी बता रहे हैं, वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। इस आन्दोलन में आने वाली जनता से लोकतंत्र को कम सरकार को अधिक खतरा है। ऐसे में सरकार के लोगों का बौखलाना स्वाभविक है। उनके पास कहने को कुछ नहीं है तो अपने को लोकतंत्र का हितैसी ही सिद्ध करने पर तुले हुए है।
सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस देश का लोकतंत्र देशवासियों का है, देशवासियों के लिए है और इसकी रक्षा करने वाले भी भारत के ही लोग हैं। किसी भी देश में जनक्रांति कब और क्यों होती है? जहां तक मैं समझता हूँ कोई भी जनक्रांति या जनआन्दोलन तभी होते हैं जब सत्ता के द्वारा जनता के अधिकारों का हनन होता है। वर्तमान भारत में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जिसे सरकार भी करना चाहती है और अन्ना के साथ आन्दोलन कर रही जनता भी। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है आखिर सरकार सिर्फ अपनी बात जनता पर थोपने का प्रयास क्यों कर रही है, उसे जनता की बात सुनाई क्यों नहीं दे रही है।
दरअसल सरकार को चिंता अपने अस्तित्व को बचाने की है। वह बौखलाहट में कई बार गलत बयानबाजी में उलझ रही है। सरकार को लगता है कि यह आन्दोलन उसके खिलाफ है लेकिन यह उसकी गलतफहमी है। यह आन्दोलन सरकार के खिलाफ नहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ है। हां इससे जुड़ी एक बात महत्व की है कि यह भ्रष्टाचार जरूर सरकार समर्थित है। मेरी जानकारी के मुताबिक यह पहला अवसर है जब जनता इतनी जागरूक हुई है और यह भारत के लिए अच्छा संकेत है कि आने वाले समय में कोई भी सरकार इसे नजरंदाज़ नहीं कर पायेगी। उसे जनता के प्रतिरोध का सामना करना ही पड़ेगा।
यह भी पहली बार हुआ है जब प्रतिरोध के मानकों को जनता ने तय किया है किसी विपक्षी पार्टी ने नहीं। ऐसे में विपक्ष की भूमिका भी बहुत अच्छी नहीं है। विपक्षी न तो अपना पक्ष स्पष्ट कर रहे हैं और न ही जनता के आन्दोलन में सहयोग कर रहे हैं, इसलिए उनकी भी भूमिका कम संदिग्ध नहीं है।
अब जनता के सामने इस व्यवस्था से लड़ने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। सरकार और विपक्ष अपना रास्ता तय करे कि उन्हें किसके साथ जाना है और क्या करना है। लोकतंत्र की रक्षा करने वाली जनता के साथ या फिर बचाने वाली सत्ता के साथ। एक बात स्पष्ट है कि अब लोकतंत्र बच जायेगा लेकिन वह बचा हुआ लोकतंत्र किसका होगा जनता का या सत्ता यह भविष्य की गोद में है।
इस आन्दोलन ने हमें जो दिया है उस पर भी विचार करने की जरूरत है। इसमें युवाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है। यहां समर्थन और विरोध की बात नहीं है कि किसका समर्थन मिल रहा है और किसका विरोध प्राप्त है। खुशी की बात यह है कि बड़े पैमाने पर जागरूकता दिखाई दे रही है और इसका निर्णय भी किसी न किसी रूप में आयेगा ही, अभी आये या कुछ दिनों बाद। अच्छा तो तब होता जब जनतंत्र को मजबूत बनाने के लिए इसमें सभी लोग आगे आते। साथ ही इस जनसमर्थन का उपयोग एक साफ सुथरे लोकतंत्र की पुनर्स्थापना में हो जाता। आने वाले समय के लिए यह उम्मीद की जा सकती है कि इसे कोई न कोई सकारात्मक रास्ता जरूर मिलेगा।
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