राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह आरोप किस मुद्दे पर, किस व्यक्ति पर और किस जगह लगाया जाय, यह जरूर विचारणीय है। भारतीय राजनीति के लिए यह विडम्बना ही है कि आज जनता के द्वारा लगने वाले आरोप से निजात पाने के बजाय लगातार दूसरे लोगों पर आरोप लगाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की जा रही है। कुछ इसी तरह के विचार अन्ना हजारे के लोकपाल मुद्दे पर देखने को मिल रहा है। सवाल यह है कि जब सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गम्भीर है तो फिर वह घटने के वजाय रोज नया क्यों हो रहा है? आम जनता का आक्रोश क्यों बढ़ रहा है? सरकार के द्वारा बनाई गयी कमेटी पर टीका-टिप्पणी क्यों हो रही थी? जबकि उसमें सरकार के लोग भी शामिल थे? यह कौन सी राजनीति है जिसमें जनता द्वारा चुने जाने के बाद जनता के अविश्वास को विश्वास में न लेकर उल्टा उसी पर प्रतिरोप किया जा रहा है? जन लोकपाल बिल और ड्राफ्टिंग कमेटी के विरूद्ध सबसे पहले सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने ही सवाल उठाया, वह भी इस आशय के साथ कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए इस लोकपाल बिल को कांग्रेस का पूरा-पूरा समर्थन है। इस समर्थन और विरोध के बीच कमेटी बन गयी, लेकिन फिर वही पुराना राग और पुरानी डफ़ली। यह लोकपाल, जो सरकार के कुछ काबिल लोगों ने बनाया वे लोग उसमें नहीं आयेगे और अगर आ ही जायेंगे तो क्या कुछ वर्षों की जांच पड़ताल से गुजरने के बाद पुनः बरी हो जायेंगे, इसकी पूरी इमानदारी से इसमें रक्षा की गयी है। अन्ना हजारे क्या साबित करना चाहते है कि उनके दबाव के कारण सत्ताधारी वर्ग ने अपने आपको फंसा ले, यह भारत में नहीं होता है। इस दुनिया में किसे ऐसी महानता प्रिय होगी जो अपने पर अंकुश लगाने के लिए खुद नियम बनाये और उसे लागू करे।
ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस के लोग कैसा लोकतंत्र चाहते हैं। पिछले दो साल में भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आये हैं उतने स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी सरकार के प्रारम्भिक दो वर्ष के कार्यकाल में नहीं आये थे। सत्ताधारी वर्ग लोकपाल की अहमियत से भले ही इत्तेफाक नहीं रखे लेकिन यह सचाई है कि इसे राजनीतिक दाव-पेंच में फंसाकर न सिर्फ इसकी अर्थवत्ता को कम कर दिया गया है बल्कि अन्ना के साथ-साथ इस देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं का मजाक बनाया जा रहा है। ऐसी स्थिति में भारत का आम आदमी किस पर विश्वास करेगा।
सरकार के मनमाने तंत्र का नया नमूना फिर देखने को मिला है। जिस तरह का लोकपाल बना है वह कुछ पन्नों में जगह घेरने के सिवाय कुछ भी नहीं है। अन्ना बार–बार यह अनशन करने की घोषणा कर रहे हैं, लेकिन सरकार उससे स्थाई निजात पाने के बजाय लगातार जिन्दा रखना चाहती है कि लोगों का ध्यान अन्य मुद्दों की ओर से हटा रहे। भ्रष्टाचार और मंहगाई के इस आलम में कौन पिस रहा है सरकार के नुमाईंदे या जनता? सरकार की ओर से बार-बार यह आश्वासन दिया जाता रहा है कि मंहगाई और भ्रष्टाचार पर रोक लगाई जायेगी लेकिन होता ठीक इसके विपरीत है, जितनी बार सरकार की ओर से समय लिया जाता है कि आने वाले इतने समय में महगाई कम हो जायेगी ठीक उतने समय में मँहगाई कुछ और बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में जनता के पास कौन सा रास्ता है, वह क्या करे? क्या मूक बनकर सब कुछ सहे या अपना विरोध जताए? राहुल गांधी का एक बयान आया था जिसमें उन्होंने यह कहा था कि जो लोग भ्रष्टाचार में दोषी पाये जायेंगे उन्हें बख्सा नहीं जायेगा। राहुल गांधी के स्वभावानुसार तो यह बयान ठीक था लेकिन भारत के राजनीतिक धुरन्धरों के बीच इसकी क्या कीमत हो सकती है। अभी तक उनके अन्दर कहीं से भी भावी प्रधानमंत्री का न तो तेवर दिखाई दे रहा है और न क्षमता, बावजूद इसके लोग लगातार उनके लिए घोषणाएं करते आ रहे हैं, यह उनकी सदासयता है। अन्ना हजारे के मुद्दे पर तो राहुल ने अपना बयान दिया लेकिन बाबा रामदेव के मुद्दे पर वे चुप रहे, क्यों? क्या रात में होने वाली रामलीला मैदान की घटना की खबर नहीं मिली। भट्टापारसौल की जनता भारत की है और रामदेव के साथ धरना पर बैठने वाली नहीं, उनके साथ क्या हुआ यह भी दिखना चाहिए तभी निष्पक्ष और इमानदार राजनीति सामने आती। बहरहाल उन्हें लगा होगा कि यह उनकी सरकार के विरूद्ध आन्दोलन है तो इसमें मध्यम मार्ग ही अपनाया जाय जबकि अन्ना हजारे और रामदेव का आन्दोलन सरकार के विरूद्ध नहीं भ्रष्टाचार के विरूद्ध था।
सरकार में शामिल लोगों का यह मानना कि लोकपाल उनके अनुसार बन गय है जिसे लागू किया जाना चाहिए, लेकिन यह कितना कारगर है यह तो इसके स्वरूप से सिद्ध हो गया है। आखिर भारत के राजनीतिज्ञ इस बात को कब समझेंगे कि सरकार किसी नेता या मंत्री की नहीं होती है वह जनता की होती है, और जन-आन्दोलन भी जनता के ही होते हैं जिसे विवादों और बयानों में फंसा कर बार-बार दिशाहीन बनाने की कुछ कोशिश हुई और कुछ हो रही है। यह वर्तमान समय के राजनीतिक दाव-पेंच और विचारहीन राजनीति का एक नमूना है।
महात्मा गांधी और जयप्रकाश के बाद इस देश में जनता के द्वारा इस तरह के आन्दोलन न के बराबर हुए। इन्हें इतने व्यापक स्तर पर समर्थन क्यों मिला। यह समर्थन किसका था, क्या इसमें सिर्फ सरकार विरोधी जनता थी? ऐसा नहीं है। इन दोनों आन्दोलनों में वे लोग भी शामिल थे जो सरकार के समर्थक हैं। किसी मुद्दे पर असहमति का मतलब यह नहीं होता है कि वह आपका विरोधी है। असहमति और विरोध की बुनियाद में फर्क है। दोनों को एक ही रूप में नहीं लिया जा सकता। यह समय असहमति का है जिस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। अगर सबकुछ ठीक है तो फिर लोगों मे असहमति क्यों है। क्या ये यूपीए के ‘सुशासन’ के समर्थन में है? नहीं, ऐसा नहीं है। यह वर्तमान भारत सरकार के कार्यप्रणाली के प्रति आम लोगों की अनास्था है। और यदि यूपीए सरकार इससे सीख नहीं लेगी तो फिर राजनीति लोकतंत्र की नहीं, पार्टी-तंत्र की ही होगी।
अच्छा तो तब हुआ होता जब सरकार बयानों और विवादों से बाहर निकलकर सर्वसहमति से लोकपाल को बनाने मे मदद की होती। यह स्वस्थ राजनीति का परिचय होता, जिसकी इस देश को अत्यधिक जरूरत है। इस देश के साथ ही कांग्रेस के लिए भी यह इतिहास में दर्ज करने योग्य कदम होता जिसे उसने बड़े सस्ते में गवां दिया। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सरकार को सही कदम उठाने के लिए जो अवसर मिला था वह जनता द्वारा दिया गया। अन्ना हजारे किसी के विरोधी नहीं हैं बल्कि इस देश को साफ सुथरा बनाने वालों के सहयोगी हैं। उनकी भावनाएं इस देश के करोड़ो लोगों की भावनाएं हैं, जिनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। अन्ना के जन लोकपाल बिल के साथ भ्रष्टाचार के उन मुद्दों की ओर कार्य करना चाहिए जो जनता द्वारा उठाये गये हैं। एक बार फिर अन्ना अनशन की घोषणा कर रहे हैं अब देखना यह है कि इसका कौन सा रूप सामने आता है।
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