संतोष कुमार राय
भारतीय समाज में सर्वाधिक संख्या मध्यवर्गीय लोगों की है। यहां मध्यवर्ग के भी दो भाग हैं। पहला उच्च मध्यवर्ग (अपर मिडिल क्लास) जिसमें स्थाई नौकरी पेशा लोगों को रखा जा सकता है तथा दूसरा निम्न मध्यवर्ग (लोवर मिडिल क्लास) जिसमें सर्वाधिक संख्या किसानों की है। आज भारत में जिस तरह से बेतहासा मंहगाई बढ़ रही है उसमें जीवन कितना कठिन होता जा रहा है इसका अंदाजा अभी भी सरकारी अमला को नहीं है। यह आज के राजनेताओं की समझ में न तो आ रहा है और न ही वे इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में आम आदमी की समस्या को कौन समझेगा यह आज के मध्यवर्गीय समाज के लिए बड़ा प्रश्न है।
यह एक लोक प्रचलित कहावत है कि ‘सावन के अंधे को हर समय हरा ही दिखाई देता है’। असल बात यह है कि आज के सत्ताधारी वर्ग का इससे बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। जिस तरह से मंहगाई के बोझ तले आम आदमी का जीवन दबता चला जा रहा है उसे देखकर सरकार की बेखबरी का अंदाजा लगाया जा सकता है। मंहगाई की मार ऐसी बढ़ती जा रही है कि आम आदमी का जीवन दुर्लभ हो रहा है। नमूने के लिए पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमत को देखा जा सकता है। आखिर सरकार के इस रवैये के पीछे उसकी मंशा क्या है? वह इन बढ़ी हुई कीमतों को किस रूप में देख रही है? कई बार यह दलील दी गई कि इसका आधार छठा वेतनमान है लेकिन सरकार के पास तो यह आंकड़ा है कि इस देश में कितने लोगों को यह वेतनमान मिलता है फिर जो लोग इसके दायरे में नहीं आते है उनके लिए सरकार के पास क्या विकल्प है? इस बढ़ी हुई मंहगाई की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है जो किसी भी वेतन वर्ग में नहीं आते हैं। आज कृषि कार्य की बुनियादी जरूरतों में डीजल और पेट्रोल शामिल हो गया है, जिसकी कीमत बढ़ने पर उनकी परेशानी का बढ़ना लाजमी है। भारत में पिछले दस साल में पेट्रोल की जो मूल्यबृद्धि हुई है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक मध्यवर्गीय किसान उसके साथ कैसे चल सकता है। साल 2002 में पेट्रोल की कीमत जून से दिसम्बर तक की अवधि में 11 बार परिवर्तित हुई। पहले यह कीमत पैसे में बढ़ती थी अब इसे रूपये में बढ़ाया जा रहा है। जून से लेकर अगस्त तक पेट्रोल की कीमत 29 रूपये के आस-पास थी, सितम्बर में इसमें कुछ पैसे की बृद्धि हुई, फिर अक्टूबर में भी बृद्धि हुई उसके बाद नवम्बर में कमी आयी और 1 दिसम्बर 2002 को पेट्रोल की कीमत 28.91 प्रति लीटर(दिल्ली) थी। 2003 के अंत तक यह बढ़कर 33.7 हो गया। 2004 के अंत में यह 37.84 तथा 2005 में बढाकर 43.49 कर दिया गया। 2006 में लगभग 1 रूपये की बृद्धि के साथ 44.45 तक ही पंहुचा। इसके बाद इसकी कीमत में थोड़ी कमी आयी और 2007 में यह 43.52 पर बना रहा। उसके बाद जो सिलसिला जारी हुआ वह आज मुम्बई में 68.33 तक पहुंच गया है। 2008 में 45.62, 2009 में 44.72 तथा 2010 के अंत तक यह बढ़कर 55.87 हो गया। जनवरी 2011 में तेल की कीमत बढ़ाकर 58.37 कर दिया गया। जनवरी के बाद से तेल में कोई बृद्धि नहीं हुई लेकिन इस बार पाँच रूपये बढ़ाकर इसको दिल्ली में 63.37 तक पहुँचा दिया गया।
पिछले साल जून से लेकर अब तक पेट्रोल की कीमत में आठ बार बृद्धि की जा चुकी है। अभी और बढने की आशंका जताई जा रही है क्योंकि सरकार की उदारता जनता के साथ नहीं उद्योगपतियों के साथ है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार यह कहते हुए पल्ला झाड़ लेती है कि यह गठबन्धन की सरकार है और यह गठबन्धन की मजबूरी है, तो क्या यह मान लिया जाय कि मंहगाई भी गठबन्धन की ही मजबूरी है। हो सकता है कि सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस मंहगाई को झेल जाय लेकिन गैरसरकारी और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का जीवन कैसे चलेगा, इसका सरकार के पास कोई जवाब है? मजबूरी में सरकार चलाने का मतलब यह नहीं है कि जनता को मंहगाई के बोझ तले दबाकर मार दिया जाय। सत्ताधारी वर्ग को इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
आज यह कहना कठिन है कि कौन समस्याओं से नहीं जूझ रहा है, लेकिन इसमें भी सर्वाधिक पीड़ित मध्यवर्गीय किसान ही हैं। किसान इसलिए क्योंकि उन्हें अपनी बुनियादी जरूरत की पूर्ति के लिए इस व्यवस्था द्वारा दी गयी सुव्यवस्थित मंहगाई से सीधे-सीधे जूझना पड़ता है। किसानों को गरीबी रेखा से नीचे की सरकारी सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं क्योंकि उनके पास थोड़ी बहुत जमीन भी है। दरअसल यह जमीन उन्हें और कुछ दे या न दे उनके क्लास को तो अवश्य ही परिवर्तित कर देती है और यह क्लास उन्हें समस्याओं के सिवा और कुछ नहीं देता है। जमीन के व्दारा मिले हुए क्लास और कमरतोड़ मंहगाई के बीच किसान पिसने के लिए अभिशप्त हैं। आने वाले समय में कम से कम सरकार के व्दारा कोई ऐसा कदम उठता नहीं दिख रहा है जो किसानों और भारत की बहुसंख्यक मध्यवर्गीय जनता के दर्द को समझे और दूर करे।
सरकार और देश के लिए यह खुशी की बात है कि आज हमारा देश किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं जूझ रहा है, जूझ रहा है तो अपनों के व्दारा दी गयी कुव्यवस्था से। ऐसा नहीं है कि इसका समाधान नहीं है, समाधान है लेकिन सरकारी अमला इस तरह की जहमत उठाना नहीं चाहता है। हमारे वित्त मंत्री ने लगातार देश की विकास दर में बृद्धि को अपना और सरकार का सराहनीय प्रयास बताया है लेकिन क्या उन्हें पता है कि इस देश के गरीब मजदूर और किसान अपना भरण-पोषण कैसे करते हैं? इस देश के नेताओं के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वे चुनाव के बाद इस देश को दिल्ली की नजर से ही देखते हैं जबकि देश को दिल्ली होने में उतना ही समय लगेगा जितना समय दिल्ली को न्यूयार्क या लंदन, जो आज की स्थिति को देखते हुए असंभव के अलावा कुछ नहीं लग सकता है। जब तक हमारे नेता देश के रूप में गांवो को नहीं समझेंगे सुधार नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि विकास की गति गांवो की ओर से शुरू हो लेकिन यह इसके विपरीत दिल्ली से चल रही है। यह दृष्टि को दिग्भ्रमित करने का सबसे बड़ा कारण है। यहां के नेता और सरकार में सम्मिलित लोग नीचे से उपर देखने के वजाय उपर से नीचे देखते हैं। और जब तक वे उपर से नीचे देखते रहेंगे इस देश का विकास कागज पर ही होता रहेगा, और मै यह दावे के साथ कह सकता हूं कि न तो उसे जमीन मिलेगी और न ही वह जमीन पर आ पायेगा, जिसे सरकार ‘सावन के अंधे की तरह देख रही है’।
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