देश में गरीबी और भूखमरी लायी गयी!

सन्तोष कुमार राय

बात उन दिनों की है जब मनमोहन सिंह सरकार के नुमाईन्दे जनता के बीच अपनी सरकार के विगत पाँच वर्षों के कर्मों का लेखा-जोखा गिना रहे थे। उन दिनों मंहगाई को लेकर आम आदमी में आक्रोश की जगह पीड़ा का भाव था। जीवन को बचाने की प्रत्येक वस्तु सामान्य से दोगुने मूल्य पर मिल रही थी (आज तो कई गुना हो गया है)। मैं बहुत दिनों से गांव नहीं गया था। इस मंहगाई को लेकर मन बहुत बेचैन रहता था कि हमारे गांव के गरीब लोग अपना भरण-पोषण कैसे कर रहे होंगे। जिनके पास धन सम्पत्ति है उन्हें इसके बढ़ने-घटने से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जिनका सहारा मजदूरी और किसानी है उन पर इसका प्रभाव पड़ता है। मैं गांव गया और जाने के बाद अपने गांव की स्थिति देखकर बहुत दुखी हुआ। हर तरफ लोग परेशान थे किसी आदमी ने यह नहीं कहा कि मैं सुखी हूं और मेरी मजदूरी या किसानी से मेरे परिवार का खर्च चल जाता है। उस समय तक स्थिति बद थी आज बद्तर हो गयी है, लोगों के अन्दर की प्रतिरोधी शक्ति मर गयी, आत्मविश्वास मर गया और यही स्थिति रही तो जीवन भी धीरे धीरे मरेगा ही, क्योंकि मनुष्य की ऐसी स्थिति से लड़ने की भी सीमा है। आज भी गावों में ज्यादातर गरीब लोग ही रहते हैं, किसानी-मजदूरी ही उनके जीवन का उदय और अवसान है। उदय तो कल्पना की चीज है, हां अवसान हर रोज होता है वो भी घुट-घुटकर। जब-जब उन्हें किसी चीज की जरूरत महसूस होती है उनका अवसान ही होता है क्योंकि मंहगाई के कहर ने उन्हें विकलांग बना दिया है।

आज यह सवाल उठ सकता है कि इतने दिनों बाद इस बात का क्या महत्व है? महत्व है, वह इसलिए कि उस समय तक लोगों के पास विरोध करने और इसमें सुधार के लिए सरकार को मजबूर करने की क्षमता थी लेकिन आज मंहगाई ने आम आदमी को इस कदर तोड़ा है कि उसके अन्दर के विरोध करने की शक्ति हमेशा के लिए लगभग समाप्त हो गयी है। अपने दूसरे कार्यकाल में और अभी तक सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया है। भारत सरकार के तथाकथित महान अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी इस देश की विकास दर को बढ़ाने का झांसा दे रहे हैं। अगर भूखमरी और भ्रष्टाचार को ही विकास कहते हैं तो यह विकास इस सरकार को मुबारक, लेकिन ध्यान रहे जब इस देश में अंग्रेजो की तानाशाही नहीं चली तो और लोगों की क्या बात है।

हमारे देश में जब भी सरकारी कर्मचारियों, सांसदों आदि के वेतनबृद्धि की बात आती है तो तत्काल कमेटी बना दी जाती है और उसकी सिफारिस के आधार पर वेतन बृद्धि हो जाती है, लेकिन जब इस देश सबसे बड़े वर्ग की जब बात आती है तो सरकार की तरफदारी और वकालत करने वाले मूक क्यों हो जाते हैं? यह कहां का न्याय है कि विकास आपका और आप जैसे सरकार से सीधे तौर पर जुड़े हुए लोगों का हो और उसकी भरपाई इस देश की गरीब जनता से की जाय। सरकार मंहगाई बढ़ाने से पहले इसका सर्वे क्यों नहीं करवाती कि इस देश के कितने प्रतिशत लोग इसके साथ चल सकते हैं। उस समय सत्ताधारी वर्ग की काबिलियत कहां चली जाती है। दरअसल मनमोहन सिंह के विकास का पैमाना उपर से नीचे की ओर चलता है जबकि व्यावहारिक विकास का पैमाना नीचे से उपर की ओर जाता है। आज सरकार में शामिल कितने ऐसे नेता हैं जो आम हिन्दुस्तानी की एक दिन की कमाई से अपने परिवार का खर्च चला सकते हैं। पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि एक भी नेता नहीं है आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि आपको हमने चुना है या फिर इसलिए कि आप ही इस देश के सर्वाधिक कर्मठ इंसान हैं, या फिर इसलिए कि यह आपका जन्मना अधिकार है? अखिर किस हैसियत से इस देश के नेता देश में हाहाकार मचा रहे हैं।

सत्य यह है कि हिन्दुस्तान में मानवता के ह्रास का सर्वाधिक दोषी आज के नेता हैं। यह आज का ऐसा वर्ग है जो अपने को देश और लोकतंत्र दोनों से उपर मान लिया है। आज ऐसे नेताओं के मुंह से लोकतंत्र का नाम गाली की तरह लगता है जो भ्रष्टाचार के बल पर सरकार चलाने और अपनी लोकतंत्रात्मक छवि प्रस्तुत करते हैं, उन्हें न तो लोकतंत्र के मायने पता है और न ही मर्यादा। बहुत विषम समय है और ऐसे समय में जीना बहुत कठिन है। भविष्य कैसा होगा इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। सरकार और उसके सहयोगी कब इसे समझेंगे पता नहीं है लेकिन एक बात सच है कि मंहगाई का यह तांडव ऐसे ही जारी रहा तो पता नहीं कितने लोग भुख से मर जायेंगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। आज यह कहना गलत नहीं होगा कि देश में गरीबी और भुखमरी आयी नहीं, लाई गयी है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सरकार की विफलता या प्रशासनिक नाकामी

संतोष कुमार राय   उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं को विफल करने में यहाँ का प्रशासनिक अमला पुरजोर तरीके से लगा हुआ है. सरकार की सदीक्षा और योजन...